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लोकतंत्र का वसंत:वसंत और वरिष्ठ लोकतंत्र के नागरिक

by
Jan 22, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Jan 2015 14:59:34

वासुदेव कामत
प्रत्येक नागरिक किसी न किसी कला से जुड़ा है। कहीं कलाकार के रूप में अपनी साधना में रत है तो कोई किसी कला का रसिक है। कला के प्रति रुचि यह मनुष्य मात्र की पहचान है। परन्तु क्या कला के प्रति उसका लगाव केवल 'स्वांत:सुखाय' है? कला क्या केवल मनोरंजन के लिये है? किसी कला की निमिति समाज प्रबोधन करती है या समाज मन को कलुषित या दूषित करती है? यदि कला समाज के सुख-शान्ति के लिये घातक हुई तो अपने लिये सचमुच चिंता का विषय है।
आज की स्थिति में भारत के बहुतांश घरों में दूरदर्शन के माध्यम से सैकड़ों चैनल द्वारा बरसों चलने वाले धारावाहिकों ने परिवार के व्यक्ति-व्यक्ति को 'इडियट बॉक्स'-के साथ जकड़ कर रखा है। दिन भर कार्य करके घर आने वाला व्यक्ति, स्कूल और कॉलेज से आये छात्र अपने कर्तव्य कर्म की थकान मिटाने हेतु टी.वी. के सामने बैठते हैं, और क्या देखते हैं?
किसी धारावाहिक से परिवार के व्यक्ति-व्यक्ति में कैसा द्वेष है? कौन किससे कपट करता है? छोटी-छोटी बातों पर झगड़ता है, तलाक लेता है। प्रत्येक धारावाहिक की अभिनेत्री बार-बार रोती है। धारावाहिक के विषय ऐसे हैं जो अंधश्रद्धा बढ़ाने वाले, मन को कमजोर करने वाले, शकुन-अपशकुन के संस्कार देने वाले हैं। जरा हम सोचें कि हम अपने मन की थकान मिटाने के लिये क्या इनपुट दे रहे हैं? घर में एक दूसरे के साथ संवाद नहीं, बहुतांश समय हम अपने मोबाइल फोन के साथ चिपके हुये हैं। परस्पर स्नेह का घर में वातावरण नहीं है। जिस सार्वजनिक त्योहार का हम एक समय गर्व करते थे, समाज प्रबोधन का कार्य करते थे, उन त्योहारों का वातावरण राजकीय अलगाववाद से भरा पड़ा है। उनमें स्पर्धात्मक मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है। अपनी संास्कृतिक सभ्यता पर यह सुनामी की तरह आक्रमण हो रहा है। हमें विचार करना है कि क्या हमारी शक्ति इसका सामना कर पायेगी?
मन में विश्वास है, लेकिन प्रत्यक्ष कृति में परिणाम आवश्यक है। हमें भारतीय ललित कलाओं के माध्यम से सनातन संस्कृति का संस्कार मन में संक्रमित करना है। सनातन माने 'यथा स्थितिवादी' नहीं, बल्कि चिर पुरातन जो नित्य नूतन का शाश्वत अनुभव देती है। यह स्थिति हमें पुन: प्राप्त करनी है। सभी कलाओं में सौन्दर्य बोध और आकर्षण का गुण जन्मजात है। कला की यह पहचान है, लेकिन कला को केवल मनोरंजन तक सीमित न रखें, यदि वह संस्कार वाहक बने तो बोध प्रदायिनी कला होगी।
आजकल भौतिक विकास की बहुत चर्चा हो रही है। वैश्विकरण की इस घड़ी में यह विकास आवश्यक है, ये हम सब मानते हैं। लेकिन इस भौतिक विकास को पाने के लिये सांस्कृतिक विकास को दुर्लक्ष्य नहीं कर सकते, समाज का व्यक्ति केवल शारीरिक रूप से विकसित हो तो वह समाज दिशाहीन होगा और केवल वैचारिक विकास होकर शारीरिक कमजोरी रही तो वह निष्क्रिय रहेगा। इसलिये अपने देश का सांस्कृतिक और भौतिक विकास सम समान होना चाहिये। अपेक्षित है कि हम सांस्कृतिक विकास के लिये कटिबद्ध हों।
इसलिये हम सभी विधा के कलाकार कार्यकर्ता, जहां जो भी विधा अधिक कार्यरत है, उनका साप्ताहिक एकत्रीकरण का प्रयास करें। हमने हरेक विधा को सशक्त करने के लिये कुछ केन्द्र निश्चित किये हैं। विधा की गुणवत्ता बढ़ाने हेतु कलाकारों का नियमित एकत्रीकरण, प्रस्थापित गुरुजनों का मार्गदर्शन, कला शिविर और कला साधकों की कला प्रस्तुति आदि का वह ऐसा आदर्श केन्द्र होगा जो अन्य स्थानों के लिये अनुकरणीय होगा। इन केन्द्रों में राष्ट्रीय विचार के कलाकार प्रबोधित होंगे। जो अपनी सार्वजनिक प्रस्तुति में इसका संप्रेषण कर सकें।
कलाकारों के लिये अपनी सफलता मापने का एक सरल मापदण्ड है। कला की प्रस्तुति की तुलना में उससे अधिक गुणवत्ता आज के कार्यक्रम में लायें और आने वाले कल का कार्यक्रम आज से भी अधिक बेहतर हो। हम अपने अंतिम लक्ष्य की ओर बढ़ते जायेंगे। अकेले नहीं, सभी को साथ लेकर चलेंगे। कला-विकास के लिये कटिबद्घ होने का यह उचित समय है। ल्ल
लेखक ख्यातिप्राप्त अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित चित्रकार तथा संस्कार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

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