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प्रो. राव तटवर्ती
आमतौर पर दुनिया में हर देश के सशस्त्र बल आधुनिकतम तकनीकों की मांग करते हैं, जो बहुत जटिल और स्वभाव में बहुआयामी होती हैं। भारतीय सशस्त्र बल भी कोई अपवाद नहीं हैं, तथा वे सामान्य तौर पर राष्ट्रीय संस्थानों, विशेष तौर पर रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) से आधुनिकतम तकनीकों की मांग लगातार करते हैं ताकि एक सतत रूप से बदलते हुए और जटिल विश्व परिदृश्य में रक्षा तैयारियों के परिकल्पित उच्च स्तर को बनाए रखा जा सके। देश भर में फैली अपनी 50 से अधिक प्रयोगशालाओं के जरिए डीआरडीओ मुख्य रूप से सशस्त्र बलों की गुणात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। हालांकि अधिकांश मामलों में सशस्त्र सेनाओं की आधुनिकतम तकनीकों की तत्काल आवश्यकता और एक नई प्रौद्योगिकी विकसित करने में डीआरडीओ को लगने वाली दीर्घ अवधि में संतुलन नहीं हो पाता है, जिस कारण सशस्त्र बलों की ओर से की गई मांग और डीआरडीओ द्वारा की गई आपूर्ति में अच्छा-खासा अंतर पैदा हो जाता है। इसका कथित परिणाम भारी संख्या में किए जा रहे रक्षा प्रौद्योगिकी के आयात में निकला है, जिससे भारत रक्षा क्षेत्र से संबंधित प्रणालियों और प्रौद्योगिकियों का 70 प्रतिशत से अधिक आयात करने वाला दुनिया का अनूठा देश बन बैठा है। 2014-2015 के दौरान रक्षा आयातों के लिए लगभग 95,000 करोड़ रुपए के हैरतअंगेज बजट, और साथ ही नामी-गिरामी विक्रेताओं की बड़ी संख्या, जो गंभीरता से चाहती है कि भारत आयातों के दुष्चक्र के भीतर फंसा रहे, हम सभी के लिए मिल-बैठने और विकल्पों के बारे में विचार करने के लिए गंभीर संकेतक हैं।
यह सुविज्ञ है कि तकनीक युद्ध जीतती है। हालांकि हाल ही के वैश्विक अनुभवों ने यह भी जताया है कि अगर अनुपयुक्त ढंग से इस्तेमाल की जाए, तो प्रौद्योगिकी युद्ध हरा भी देती है। प्रौद्योगिकी (विशेष रूप से सवार्ेच्च स्तर की और निर्णायक प्रौद्योगिकी) के साथ समस्या यह है कि इसे जिस कामकाजी परिवेश में वांछित परिणामों के लिए तैनात किया जाना हो, उस परिचालन क्षेत्र के पर्यावरण के प्रभावों, क्षमताओं और सीमाओं की बहुत ही गहरी समझ इसके लिए आवश्यक है। यानी जो तकनीक दुनिया के किसी विशेष क्षेत्र में एक देश के लिए कारगर होती है, हो सकता है कि एक अलग पर्यावरण और जलवायु में स्थित दूसरे देश के लिए कारगर न हो।
कई बार इस विषय पर बहस हो चुकी है कि सशस्त्र बलों के लिए आयात की आवश्यकता क्या है और भारतीय सशस्त्र बलों की बदलती मांगों को निर्धारित समय सीमा में पूरा कर सकने की भारतीय शोध एवं अनुसंधान संगठनों की क्षमता क्या है। इस बहस का परिणाम इस विषय पर अनेक विश्लेषणों में और समस्याओं पर अंतरदृष्टियों में निकला है, जिनमें महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों में आत्मनिर्भरता के महत्व पर जोर दिया गया है। कई विद्वानों द्वारा प्रस्तुत विश्लेषणों में अक्सर यह सरल प्रश्न उठाया गया है कि क्या भारत में भारतीय ऐसी प्रौद्योगिकियों का डिजाइन और विकास कर सकते हैं जो सशस्त्र बलों की बढ़ती मांग को वांछित समय सीमा में पूरा कर सकती हों, जिसमें जटिल और कभी-कभी अव्यावहारिक समाधान तैयार किए जाएं? यदि आप शांति से आत्मविश्लेषण करें और चिंतन प्रक्रिया पर गहराई से विचार करें, तो सरल प्रश्न और जटिल, अधिक सारपूर्ण और हैरान कर देने वाला हो जाता है। यह ऐसी गुत्थी के नजदीक होता है, जिसका उत्तर बहुत जटिल ही हो सकता है। इस प्रश्न को उचित ढंग से समझने के लिए यह प्रति प्रश्न करना उचित है कि वह क्या है और कौन है, जो सशस्त्र बलों की आवश्यकताओं को बढ़ा-चढ़ाकर जताने के लिए जिम्मेदार हैं? जाहिर है, जिम्मेदार व्यक्तियों के कायोंर् और तकोंर् का आधार उनकी अपनी- अपनी पृष्ठभूमि और साहित्य, किताबों, पत्रिकाओं, खुफिया सूचनाओं और प्रचलित जानकारियों से अर्जित उनका ज्ञान होता है, जिसे मैं प्राथमिक पूर्वाग्रह कहता हूं और उनके कार्य और तर्क उनके व्यक्तिगत प्रेक्षण और शिक्षण पर भी आधारित होते हैं, जिसे मैं पर्यवेक्षणीय अध्ययन कहता हूं। इतना कहना पर्याप्त है कि आवश्यकताओं के सृजन की प्रक्रिया को समुचित स्तर पर रखना सशस्त्र बलों के लिए कोई आसान या छोटा काम किसी हाल में नहीं है। आवश्यकताओं के सृजन की प्रक्रिया खतरों की धारणाओं से उत्पन्न रणनीतिक आवश्यकताओं की वैध मान्यताओं और उन्हें रोकने के लिए राष्ट्रीय नीतियों से प्रारंभ होती है (जो प्राथमिक पूर्वाग्रहों और पर्यवेक्षणीय अध्ययन का एक संयुक्त प्रभाव होता है)। अगर यह तर्क दिया जाए कि प्राथमिक पूर्वाग्रहों और पर्यवेक्षणीय अध्ययन दोनों के संयोजन पर आधारित कोई भी ज्ञान प्रचलित संस्कृति, इतिहास और वातावरण द्वारा प्रभावित होता है, तो शायद यह साफ हो जाएगा कि 'तकनीकी समाधानवाद' के प्रति आम झुकाव-यह विश्वास कि तकनीक खतरनाक हुए बिना और कुशलता से हमारी सभी रक्षा समस्याओं को हल कर सकती है। सब ठीक रहा, तो एक आशा है और सबसे खराब स्तर पर राष्ट्रीय सुरक्षा के महत्वपूर्ण दायरे में दूसरों पर अनावश्यक निर्भरता का एक कारण है, जो इस ढंग से आत्मनिर्भरता के सिद्धांत को ही पराजित कर देती है जो कि रक्षा क्षेत्र की एक प्राथमिक आवश्यकता होता है।
एक आम धारणा, जिससे कई लोग सहमत हैं, वह यह है कि रक्षा क्षेत्र की घटनाओं पर नजर रखने वाला कोई औसत भारतीय सही में ही हैरान रह जाता है और क्षमता अधिग्रहण में हो रही प्रगति के प्रति कुछ हद तक संदेह रखता है। सहज कारोबारी बुद्घि भी यही कहती है कि जो देश रक्षा प्रौद्योगिकियों का निर्यात कर रहा है, वह आवश्यक नहीं कि आधुनिकतम तकनीक दे, बल्कि वह सुरक्षा और व्यावसायिक कारणों से पुरानी प्रणालियां ही देगा। इसका परिणाम महत्वपूर्ण रक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए देश के विदेशी शक्तियों पर निर्भरता होने के घातक दावानल में घिरने में गंभीर रूप से निकल सकता है। रक्षा आयातों पर अत्यधिक और निरन्तर निर्भरता आमतौर पर अपने साथ अतिरिक्त सुरक्षा और राजनीतिक खतरे लाती है।
भारत की आजादी के बाद से भारत के नीति निर्माताओं के लिए आत्मनिर्भरता एक मंत्र रही है। आत्मनिर्भर होने की इच्छा के बावजूद, तथ्य यह है कि भारत रक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण तकनीकों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। इसके अलावा, रक्षा शोध एवं अनुसंधान और रक्षा उद्योग जो कुछ भी नया करने का दावा करते हैं, वह अधिकांशत: रिवर्स इंजीनियरिंग तक सीमित है, जिसका अर्थ है किसी आयातित वस्तु के पीछे की तकनीक को ढूंढ लेना और उसका उपयोग करना।
इसलिए देश के लिए आवश्यक है कि नए प्रयोगों को प्रोत्साहित करके, कथित बाधाओं और नियंत्रणों को हटाकर, पर्याप्त धन का आबंटन करके और इसके साथ ही शोध एवं अनुसंधान समुदाय में जवाबदेही पर जोर देकर आत्मनिर्भरता के पथ का अनुसरण किया जाए।
भारत में, चुनौतीपूर्ण स्थितियों के तहत, भारतीयों के साथ, एक नियंत्रण मुक्त वातावरण में, सीमित कोष के साथ, भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा नई सोच के बूते सफलतापूर्वक स्वदेशी प्रौद्योगिकियों के विकास के पर्याप्त उदाहरण यह दर्शाते हैं कि आम तौर पर जिन समय सीमाओं का अनुमान लगाया जाता है, उनसे भी कम समय में आत्मनिर्भरता संभव है। हाल ही में भारतीय विज्ञान कांग्रेस में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा वैज्ञानिक और शोध एवं अनुसंधान समुदाय से सपने देखने, कल्पनाएं करने और अन्वेषण करने का आह्वान करना, और साथ ही अतिरिक्त नियंत्रणों को चिन्हित करके उन्हें दूर करने का आश्वासन देना निश्चित रूप से भारत के रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए सही दिशा में एक कदम है।
लेखक जीवीपी-एसआईआरसी एवं जीवीपी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, विशाखापट्टनम में वरिष्ठ प्रोफेसर और निदेशक (शोध एवं अनुसंधान) हैं।
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