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राष्ट्रीय सुरक्षा यानी राष्ट्र के नीति निर्धारकों के लिए ऐसा विषय जो सदा उनकी शीर्ष प्राथमिकता रहना चाहिए। किसी भी अन्य नीति या निर्देश के मुकाबले ज्यादा पक्की चीज। एकदम तय बात। राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न यानी ऐसी स्पष्ट नीति जिससे टला नहीं जा सकता। होना तो यही चाहिए, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में क्या ऐसा हुआ? विडंबना है कि 67 वर्ष के इस लोकतंत्र में प्राथमिकताएं देश की बजाय राजनीतिक दल और उसकी राजनैतिक सुविधाओं के हिसाब से तय होती रहीं। अक्षम्य राजनैतिक भूलों पर जनता जाग ना जाए इसलिए उसे भावनात्मक थपकी देकर समय-समय पर सुला दिया गया।
'62 की लड़ाई में 40 हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा भारतीय जमीन चीन ने दबा ली। कितने प्रहरी बलिदान हुए, अब तक ठीक-ठीक पता नहीं। मेजर शैतान सिंह भाटी और उनके साथियों का पराक्रम अतुलनीय था। लेकिन क्या हमारे नेताओं ने अपेक्षित दृढ़ता दिखाई? सवाल देश की सबसे बड़ी कचहरी में उठा। चाचा नेहरू ने कहा 'जमीन तो बंजर थी…।' और बस बात खत्म।
'उत्तर में प्रहरी सा खड़ा हिमालय' गाते-गाते बच्चे बड़े हो गए। 'ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी…' यह सुरीला गीत सुन देश रोते-रोते सो गया।
गणतंत्र दिवस से जरा पहले का ऐसा ही समय था जब 10 जनवरी 1966 को ताशकंद समझौता हुआ। महत्वपूर्ण हाजीपीर दर्रा फिर पाकिस्तान की झोली में डाल दिया गया। जम्मू के उरी और पुंछ सेक्टर को आपस में जोड़ने वाला 15 किलोमीटर का रास्ता हमने पाकिस्तान को दिया और खुद अपने लिए 200 किलोमीटर के रास्ते पर संतुष्ट रहे। जिस दर्रे से हमारे जवान पाकिस्तान की शैतान नब्ज दबा सकते थे अब वह आतंकी घुसपैठ का रास्ता है। इस समझौते के ठीक बाद भारतीय प्रधानमंत्री की संदिग्ध स्थितियों में मौत हो गई और गहन विमर्श की जगह तरह-तरह की चर्चाओं ने ले ली। डेढ़ वर्ष तक भारतीय प्रधानमंत्री की रहस्यमय मौत के साथ ताशकंद के तोलमोल पर जनता के बीच सुगबुगाहट रही, लेकिन 1968 में फिल्म आई 'परिवार' और इसके बाद बस बात खत्म। 2 अक्तूबर को विविध भारती से प्रसारित होने वाले गीत 'आज के दिन दो फूल खिले थे, जिनसे महका हिन्दुस्तान' को गाते-गाते ताशकंद का दर्द हाजीपीर दर्रे की बजाय प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की संदिग्ध मौत पर बह निकला।
दरअसल, राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न ऐसा है जिसे भारतीय सत्ता सदा अपनी शैली में, यानी अनमनेपन से लेती रही। जो प्रश्न तर्क और रणनीतिक कौशल के सहारे हल किया जाना था, ज्यादातर मौकों पर उसे राजनैतिक नफे-नुकसान के समीकरणों से हल किए जाने की कोशिशें हुईं। देशहित के मुद्दों को राजनीतिक रस्साकशी में धकेलने का खामियाजा अंतत: इस देश ने ही भुगता है। भारत के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सिर्फ ऐसे देश की चिंता नहीं है जिसके दो परमाणु हथियारों से लैस, परेशान करने वाले पड़ोसी हैं। यहां सीमाओं पर तनाव, पड़ोस पोषित आतंकवाद और देश के भीतर तक पैठ बनाते कट्टरवाद की गुत्थियों को सुलझाने की विकट चुनौती है। करगिल जैसे दुर्गम पहाड़ी मोर्चे, लंबी तटरेखा और 572 छिटके-बिसराए द्वीप। इन सब पर अब तक ज्यादा बोला-सुना नहीं गया। घुसपैठियों को पोसते सेकुलर, नक्सलवाद समर्थक वामपंथी और जिहादी तत्वों को छांह देती सेकुलर-इस्लामी गिरोहबंदी, ये ऐसे मुद्दे हैं जिनका जिक्र मीडिया भी रस्मी तौर पर भले करता है, अन्वेषण की हद तक नहीं उतरता।
बहरहाल, राजनैतिक अकर्मण्यता की पड़ताल करना और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर दशकों की चुप्पी तोड़ना जरूरी है। पाञ्चजन्य-ऑर्गनाइजर ने यह पहल की है। भारत प्रकाशन का वार्षिक 'सुरक्षा पर संवाद' आयोजन अपने दूसरे वर्ष में ही भारी चर्चा का विषय बना है। सियासी बयानबाजी से परे विशेषज्ञों की राय जानना और उसे जनता और कर्णधारों के सामने रखना महत्वपूर्ण है। रणनीतिक मुद्दों पर राजनैतिक सोच की खाइयों को पाटने का यह उपक्रम 'राष्ट्र सवार्ेपरि' की भावना से प्रेरित है। जब बात देश की हो तो कोई व्यक्ति और उसकी सोच इससे बड़ी नहीं हो सकती। विमर्श की धारा कोई नहीं बदल सकता। बात जब देश की हो तो जन और गण को एक मन होकर सोचना होता है।
साथ ही, पाञ्चजन्य के पाठको, अभिकर्ताओं, विज्ञापनदाताओं एवं समस्त शुभेच्छुओं को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
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