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.तुफैल चतुर्वेदी
पैरिस में 'शार्ली एब्दो' पत्रिका के कार्यालय पर हुए हमले और परिणामस्वरूप अनेक लोगों की जघन्य हत्या गहरी चिंता और बहुत गहरे दु:ख का विषय है। कोई भी सभ्य व्यक्ति निहत्थे लोगों पर किए गए इस भयानक क्रूर हमले की निंदा करेगा। मैं भी इसकी भर्त्सना करता हूं, इस पर विस्तार से बात करना चाहता हंू और इसके लिए तुलनात्मक अध्ययन का सहारा ले रहा हूं। राजाराम मोहन राय, जिन्हांेने ब्रह्म समाज की स्थापना की थी, के बारे में आज यह बात कम लोग ही जानते हैं कि वे ईसाई थे। उन्हांेने सती प्रथा के उन्मूलन के लिए कार्य किया था। मध्य काल में चर्च ने यूरोप में लाखों महिलाएं जादूगरनी, टोने-टोटके करने वाली चुड़ैलें घोषित कर जिंदा जला दी थीं। भारत में भी गोवा में उन्होंने ऐसे जघन्य पाप किए, मगर भारत के ईसाइयों में सती प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता। कभी सुना नहीं गया कि किसी नन या मदर सुपीरियर ने किसी कार्डिनल या पोप के लिए आत्मदाह कर लिया हो या उन्हें सती करवा दिया गया हो। सती प्रथा पर आज जितना भी लिखित इतिहास उपलब्ध है उसके अध्ययन से पता चलता है कि यह कोई बड़ी प्रचलित प्रथा नहीं थी। इक्की-दुक्की घटनाएं ही थीं मगर थीं तो। कई गणमान्य व्यक्तियों ने ये आरोप भी लगाए हैं कि भारत के हिन्दू समाज को बदनाम करने के लिए ईसाई मिशनरियों ने इन बातों को तूल दिया। फिर भी राजाराम मोहन राय के 22 मई, 1772 में पैदा होने और 27 सितम्बर, 1833 में इंग्लैंड में मरने और दफनाए जाने तक किसी ने भी उन्हें हिन्दू-द्रोही नहीं कहा। भारत-द्रोही नहीं कहा। उन्हें मार डालने की धमकी नहीं दी। ऐसा क्यों हुआ?
अगर इसकी छान-फटक की जाएगी तो केवल यह कारण हाथ आएगा कि भारत हिन्दू बहुसंख्या का देश है और हमारे स्वभाव में ही दूसरे के प्रति सौहार्द, सौमनस्य, सज्जनता है। भारत में ब्रह्म-समाज, प्रार्थना-समाज, आर्य-समाज जैसे सैकड़ों छोटे-बड़े आंदोलन चले मगर मार डालेंगे, काट डालेंगे जैसी बातें न तो किसी ने कीं, न किसी के मन में आईं। ध्यान रहे यह भारत वही भारत है जहां इस्लाम के अत्याचारों के कारण शान्ति-प्रिय हिन्दू समाज में से शस्त्र-धारी सिख-पंथ उभर आया मगर वे लोग इस्लाम के अत्याचार के खिलाफ रहे, मुसलमानों के खिलाफ नहीं रहे। प्रमाण के लिए गुरु ग्रन्थ साहब को देखा जा सकता है जिसमें अनेक मुसलमान संतों की वाणी संग्रहित की गई है। यह हिन्दू समाज का सहज जीवन है कि वह अच्छे की तरफ, शुभ की तरफ बढ़ता है।
शार्ली एब्दो पत्रिका के कार्यालय पर हुए हमले का कारण पैगम्बर मोहम्मद का कार्टून बनाया जाना है। कार्टून में कोई खास बात नहीं है। उसमें मोहम्मद अपनी अनेक बुर्काधारी पत्नियों से घिरे खड़े हैं। बीच में उनकी अंतिम और बच्ची पत्नी आयशा अपने हाथ में गुडि़या लिए हुए है। आयशा इस्लाम के पहले खलीफा अबू बकर सिद्दीक की बेटी थीं और हदीसों के अनुसार 6 या 7 वर्ष की आयु में 52 वर्ष के पैगम्बर मोहम्मद ने उनसे निकाह कर लिया था। माना जाता है कि निकाह के दो वर्ष बाद मोहम्मद ने आयशा के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे। आइए, जानें कि हदीस क्या है।
इस्लाम के दो प्रमुख आधार हैं। पहला, कुरान है, जिसे मुसलमान अल्लाह की वाणी मानते हैं। उनके अनुसार कुरान को जिब्रील नाम का फरिश्ता मोहम्मद तक लाया था। कुरान के पैगम्बर मोहम्मद तक पहुंचने को इल्हाम कहा जाता है। स्मरणीय है कुरान के सूरा-पारों का क्रम आयतों के काल-क्रम के अनुसार नहीं है इसलिए कई बार इनका सन्दर्भ स्पष्ट नहीं होता, वहां हदीसें काम आती हैं। हदीसें पैगम्बर मुहम्मद का जीवन-चरित्र हैं। उनके कहे-किए गए कामों का संकलन हैं। हदीसें मुहम्मद के देहांत के बाद संकलित की गई थीं। ये छह हैं। इनके नाम बुखारी, मुस्लिम, माजाह, तिरमिजी, दाऊद और निसाई हैं। हदीसों को जिन लोगों ने संकलित किया था, उन लोगों ने मोहम्मद के साथियों, उनके वंशजों से पूछ-पूछ कर इनका संकलन किया। इनके वचनों की संख्या लाखों में थी। यानी आज जितनी मिलती हैं ये उनसे बहुत अधिक थीं। इनमें खासी काट-छांट हुई है और इनके लेखकों ने अपनी समझ से इनकी सत्यता निश्चित की है। इनको मुसलमानों, उनके आचार्यों में मोटे तौर पर अंतिम सत्य माना जाता है। मोटे तौर पर इसलिए कह रहा हूं चंूकि शिया मुसलमान इन छहों हदीसों को प्रामाणिक नहीं मानते। शिया मुसलमानों के पास अपना इस्लामी साहित्य है। उनके अनुसार बहुत सी झूठी हदीसें तैयार की गई थीं। इन हदीसों में बहुत सी बातें गलत हैं। इनके अतिरिक्त शेष मुसलमानों के विभिन्न पंथों में हदीसों के आधार पर फतवे दिए जाते हैं। मुसलमानों में इनको शुद्ध सत्य और प्रामाणिक मानने वाला अहले-हदीस नाम का उप-सम्प्रदाय है। ये मुस्लिमों के लिए वहाबियों से भी अधिक भयानक कट्टर हंै। आप देश के विभिन्न भागों में हरा साफा पहने लोगों को देखते होंगे। ये अहले-हदीस, अहले-कुरान होते हैं। स्पष्ट है हदीस में कही गई बातें सत्य हैं या गलत इसे तय करने वाले हम गैरमुस्लिम कोई नहीं होते। मगर मलाला युसूफजई के सर में मारी गयी गोलियों को, पेशावर के स्कूल में सैकड़ों बच्चों को गोलियों से भून दिए जाने को, सीरिया में यजीदी समाज के लड़के-लड़कियों को गुलाम बना कर बेचे जाने को, काफिरों, मुश्रिकों, मुरतदों, मुलहिदों की हत्याओं को, मंदिरों, चर्चों के विध्वंस को, कुरान के साथ-साथ इन्हीं ग्रंथों से उचित ठहराया जाता है। इन्हीं के आधार पर पैगम्बर मोहम्मद का किया अपने जीवन में उतारना, उनकी तरह जीवन जीने को सुन्नत ठहराया जाता है। यही ग्रन्थ हैं जिनके आधार पर इस्लाम के बारे में किए जाने वाले किसी भी प्रश्न के स्वर को मौन कर दिया जाता है। अर्थात् सभ्य समाज इनकी अवहेलना नहीं कर सकता। इस्लाम की कल्पना ही इस आधार पर की गयी है कि इस्लाम एक दिन सारी दुनिया के लोगों को इस्लाम स्वीकार करवा देगा। सारा संसार मुसलमान हो जाएगा।
हदीसें इस्लामी किताबें बेचने वाले किसी भी बड़े पुस्तक विक्रेता के पास सहज उपलब्ध हैं। दिल्ली में किताब भवन वाले इन किताबों को संसार भर में बेचते-भेजते हैं। इन हदीसों और कुरान के आधार पर दिए गए फतवों के पुस्तकाकार स्वरूप सारी दुनिया में मिलते हैं। यहां यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि आप ऐसे सार्वजनिक ग्रंथों के हवाले से किसी को बात करने से कैसे रोक सकते हैं? यह केवल इस्लामी समाज का ही विषय नहीं है। आखिर ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रेलिया का इस्लामी समाज उन देशों में अपने लिए शरिया कानून चाहता है। शरिया का मतलब कुरान और हदीस के काल में मोहम्मद जी और उनके साथियों के जीवन का अनुकरण, उस काल की प्रथाओं के अनुसार जीवन-यापन की स्वीकृति है।
सभ्य समाज वयस्क पुरुषों को बच्चियों से विवाह की अनुमति तो नहीं दे सकता। ईसाई मत के ऐसे ही पिछड़े कानूनों का चक्रव्यूह भेद कर बड़ी मुश्किल से स्वतंत्र मानवाधिकार, स्त्रियों के बराबरी के अधिकार, वयस्क होने के बाद ही लड़की का विवाह जैसे कानून अस्तित्व में आये हैं। हम नहीं कहते कि मोहम्मद ने 52 वर्ष की उम्र में 6-7 साल की बच्ची से शादी की थी और अगर की भी थी तो यह 1400 वर्ष पहले की बात हो गई। अब इसे बदला तो नहीं जा सकता मगर उस काल की जीवन-शैली को आज भी अनुकरणीय मानने को तो कोई भी समझदार व्यक्ति तैयार नहीं हो सकता। आखिर अहले-हदीस, अहले-कुरान,वहाबी भी अपनी 6-7 साल की बेटियों की शादी 52 साल के व्यक्ति से तो नहीं करते। बंधुओ, ये बातें उठी ही तब से हैं जबसे सभ्य देशों में शरिया के लागू करने की मांग की गयी है। ये सारी चर्चाएं, बहसें अमरीका के जुड़वां टावरों के ध्वस्त होने के बाद ही शुरू हुई हैं। यूरोप, अमरीका, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में हलाल मांस की दुकानें, हिजाब, बुरका, मदरसे, फहराती हुई दाढि़यां, दुनिया को मुसलमान बनाने की कोशिशें बड़े पैमाने पर दिखाई देने लगी हैं। सभ्य समाज अब इन समस्याओं की गहराई समझने लगा है। यही कारण है कि संसार भर के गैरमुस्लिम देशों में इस्लाम का गहन अध्ययन हो रहा है। सोशल मीडिया पर इस्लामी आस्थाओं पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं। आप में से कोई भी फेसबुक पर नियाज अहमद सिद्दिकी द्वारा उठाए जा रहे गम्भीर प्रश्नों और उन पर उमड़ पड़े समर्थन को देख सकता है। पाकिस्तान, भारत, ईरान, अफरीकी देशों, विभिन्न अरब देशों के लाखों मुसलमान भी इनमें सम्मिलित हैं। दूसरा कारण कुछ लोगों की सोच के हिसाब से यह हो सकता है कि इस्लामी विश्वास और मुसलमानों के अनुसार मोहम्मद का चित्र नहीं बनाया जा सकता। यह बात वहाबियों के फैलाये गए सबसे बड़े झूठों में से एक है। कोई भी मित्र इंटरनेट के किसी भी सर्च इंजन पर 'पेंटिंग्स ऑफ प्रोफेट मोहम्मद' डाल कर देख सकता है। सैकड़ों पेंटिंगों की साइटें खुल जाएंगी। ये पेंटिंग दो प्रकार की हैं। कुछ में मोहम्मद का चेहरा स्पष्ट आकृति के स्थान पर केवल बाह्य रेखाओं से दर्शाया गया है और कुछ में स्वरूप बिलकुल स्पष्ट है। ये चित्र मुस्लिम बादशाहों ने सैकड़ों की संख्या में अपने शासन-काल में बनवाए थे। मैंने स्वयं पाकिस्तान यात्रा के समय इस्लाम के ही दूसरे बड़े उप-पंथ शिया मुसलमानों के घरों में हिन्दू देवताओं के चित्र की तरह अली, हसन और हुसैन के चित्र देखे हैं, तो साहिब यह बात भी गलत है? संसार में नरबलियों का चलन रहा है। भारत में ही पिण्डारी और ठग हुए हैं। लुटेरों के गिरोह, डकैतों के गिरोह हुए हैं। आज भी ऐसे लोग होते हैं।
मगर सभ्य समाज में लिखित संविधान चलता है़, जिसमें प्रत्येक मनुष्य के बराबरी के अधिकारों की स्थापना के आधार पर इन सारे दुष्टों का निर्मूलन हुआ है, होता है। इन्हें जेलों में डाला गया है, फांसियां दी गई हैं और आज भी इनका उपयुक्त दमन होता है। इस समस्या का फैलाव तो कहीं अधिक है। इसने सारे संसार को शिकार बनाने की ठानी हुई है और इसका आधार तो मूल ग्रन्थ है। आप भी शिया मुसलमानों की तरह समझते हैं कि ये हदीसें गलत हैं तो खुल कर इन्हें त्यागिये, त्यागने की मुहिम चलाइये।
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