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देश के दो राज्यों, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में विधानसभा चुनाव के नतीजे लोकसभा चुनाव से शुरू हुए भाजपा के जीत के सिलसिले के जारी रहने की कहानी बयां करते हैं। जम्मू-कश्मीर के चुनावों पर पूरे देश की नजर थी। सवाल है कि इस सरहदी सूबे के चुनाव नतीजों का विश्लेषण किस तरह किया जाय। क्या इसे भाजपा के 'मिशन 44 प्लस' की नाकामी के रूप में देखा जाय या घाटी में नेशनल कांफ्रेस पर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत के रूप में? या फिर राज्य में हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण के रूप में? क्या यह कहना गलत होगा कि कश्मीर के मतदाताओं ने भाजपा को पूर्ण बहुमत से बदलाव लाने और उसके जरिए पूरे देश की राजनीति में परिवर्तन का अवसर गवां दिया?
दोनों राज्यों के नतीजों का एक निष्कर्ष तो सहज रूप से निकाला जा सकता है कि देश के मतदाताओं ने लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जो भरोसा जाहिर किया था वह अभी कायम है। लेकिन जम्मू-कश्मीर के नतीजे को इस सरलीकृत खांचे में फिट नहीं किया जा सकता। नरेन्द्र मोदी और भाजपा ने पहली बार कश्मीर घाटी में अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कराने का प्रयास किया। इस प्रयास के नतीजे को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक कि इससे भाजपा को क्या मिला। दूसरा कि इससे घाटी ने क्या खोया और जम्मू ने क्या पाया। लद्दाख की चिंताए मोटे तौर पर जम्मू से जुड़ी हुई हैं। एक राज्य के तीन हिस्से किस तरह तीन अलग-अलग राज्यों की तरह व्यवहार करते हैं, जम्मू-कश्मीर इसका उदाहरण है।
भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार को घाटी केंद्रित करके जम्मू में नुक्सान का जोखिम मोल लिया था। उसे घाटी से एक भी सीट नहीं मिली। लेकिन इससे दो महत्वपूर्ण बातें हुईं। घाटी में भाजपा को उम्मीदवार मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई और उसके उम्मीदवार अछूत नहीं माने गए। दूसरी बात यह हुई कि सारी पच्चीस सीटें जम्मू से जीतने के बावजूद वह घाटी की पार्टियों के लिए अछूत नहीं रह गई है। एक बात तय है कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अगले छह साल तक भाजपा की मजबूत उपस्थिति रहेगी। वह सत्ता में न आए तब भी। इतना ही नहीं, शायद पहली बार होगा कि राज्य की विधानसभा और संभवत: सरकार में जम्मू की आवाज इतनी बुलंद होगी।
जम्मू-कश्मीर में क्या हुआ, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह लगती है कि वहां क्या हो सकता था। मान लीजिए कि घाटी के लोगों ने प्रधानमंत्री के विकास के मुद्दे पर साथ आने की अपील को सुना होता तो भाजपा को घाटी कुछ सीटें मिल जातीं। घाटी में भाजपा को सीट मिलने का सीधा अर्थ होता मुस्लिम समुदाय में भाजपा की राजनीतिक स्वीकार्यता। वह भी देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य में। इसका असर भाजपा पर यह होता कि देश के बाकी हिस्सों में भी वह राजनीतिक रूप से ज्यादा समावेशी बनती। भाजपा और मुस्लिम समुदाय में अविश्वास की खाई थोड़ी पटती। इसका असर पूरे देश की राजनीति पर पड़ता। इससे घाटी के लोगों के भी देश की राजनीति की मुख्य धारा में लौटने का संदेश जाता। इस लिहाज से देखें तो भाजपा की एक ईमानदार कोशिश को नाकाम करके कश्मीर घाटी के मतदातओं ने बहुत बड़ा अवसर गंवा दिया।
झारखंड विधानसभा के चुनाव नतीजे एक अलग कहानी बयां करते हैं। यह ऐसा राज्य है जहां भाजपा चौदह साल में से दस साल सत्ता में रही है। उसकी सरकार का सबसे खराब उदाहरण खोजना हो तो झारखंड की ओर देखना होगा। इस राज्य में भाजपा के पक्ष में कुछ भी नहीं था। जिसे दो बार मुख्यमंत्री बनाया उसके नाम पर वोट मिलने की बजाय कटने की आशंका ज्यादा थी। राज्य की बदहाली के लिए जिम्मेदार सरकारों की सूची में पहला नाम भाजपा का ही है। इस वनवासी बहुल राज्य में उसके तीन बड़े वनवासी चेहरे थे, करिया मुंडा, बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा। करिया मुंडा पुराने होने के नाम पर किनारे कर दिए गए। झारखंड की पहली सरकार के मुख्यमंत्री बने बाबू लाल मरांडी। उनकी ईमानदारी राज्य ही नहीं दिल्ली के कुछ भाजपा नेताओं को रास नहीं आई। इसलिए वे पहले सरकार से और फिर पार्टी से बाहर हो गए। रही बात अर्जुन मुंडा की तो वह भी भ्रष्टाचार की संस्कृति पर रोक लगाने में उतने कामयाब नहीं दिखे।
ऐसे में झारखंड में भाजपा के पक्ष में नरेन्द्र मोदी की अपील के अलावा कुछ भी नहीं था। झारखंड में भाजपा की जीत प्रधानमंत्री के प्रति लोगों के विश्वास और अकेले बहुमत से कम सीटें राज्य इकाई के प्रति अविश्वास का संदेश है। झारखंड और जम्मू-कश्मीर में भाजपा के बढ़ते कदम पार्टी के तेजी से हो रहे भौगोलिक विस्तार का प्रमाण हैं। यह घटना देश में तीन दशक बाद फिर से एक राष्ट्रीय दल के वर्चस्व को स्थापित कर सकती है। नरेन्द्र मोदी का कांग्रेस मुक्त नारे का शायद यही लक्ष्य है। भाजपा जिस गति से आगे बढ़ रही है उसी तेजी से कांग्रेस नीचे जा रही है। लेकिन भाजपा की असली परीक्षा पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल के विधानसभा चुनावों में होगी। इन राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे नरेन्द्र मोदी से उम्मीद के आधार पर ही नहीं उनकी सरकार के कामकाज पर भी मतदाताओं की राय होंगे। -प्रदीप सिंह
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