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जन्मदिवस पर विशेष
भारतीय राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी आजादी के बाद पचास के दशक से लेकर लगभग आधी शताब्दी तक एक चर्चित व्यक्तित्व रहे हैं। 25 दिसम्बर 1924 को ग्वालियर में कृष्ण बिहारी वाजपेयी के घर जन्मे अटल के दादाजी मूलत: उत्तर प्रदेश के आगरा जिले की तहसील बाह के बटेश्वर गांव के निवासी थे। पिता शिक्षा विभाग में कार्यरत थे। सरस्वती शिशु मंदिर, गोरखी बाड़ा, ग्वालियर से विद्यालयी शिक्षा पूर्ण कर इन्होंने स्नातक उत्तीर्ण करने के बाद डीएवी महाविद्यालय, कानपुर से राजनीति विज्ञान में एम.ए. किया। किशोरावस्था में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़कर राष्ट्रप्रेम की भावना जीवन्त की। 1940 में दसवीं कक्षा में संघ शिक्षा वर्ग – प्रथम वर्ष, और 1942 में द्वितीय वर्ष किया, इसी वर्ष 16 साल की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन में 23 दिन तक जेल में रहे। 1944 में संघ शिक्षा वर्ग तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण पूरा किया। इसके बाद संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनकर समाज-राष्ट्र कार्य के आगे शोधकार्य एवं विश्वविद्यालय में अध्यापन की प्रबल इच्छा को विराम लग गया। अटल जी संघ द्वारा प्रकाशित मासिक पत्र 'राष्ट्रधर्म' से जुड़ गए और एक विश्वविद्यालय के शिक्षक का स्वप्न देखने वाला युवा सामाजिक दायित्व व राष्ट्र सेवा के निमित्त पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हो गया। इसी का परिणाम था कि अटल जी राष्ट्रधर्म के साथ-साथ पाञ्चजन्य साप्ताहिक और बाद में दैनिक स्वदेश, चांद तथा वीर अर्जुन इत्यादि के भी संपादक रहे। जहां तक कवि अटल का प्रश्न है तो 14-15 वर्ष की आयु में नौवीं-दसवीं कक्षा में अपने विद्यालय की पत्रिका में उनकी पहली कविता 'हिन्दू तन-मन हिन्दू जीवन' 1939-40 के आसपास प्रकाशित हुई। राष्ट्रप्रेम और समाजसेवा के लिए अपना तन-मन समर्पित करने वाला युवा अपरोक्ष रूप से यह स्वीकारोक्ति करता है कि उसका जीवन बचपन से ही संघर्षमय और यौवन प्रेम से रहित रहा है किन्तु परमार्थ व राष्ट्रभक्ति हेतु समर्पित होने पर उसे असीम गौरवानुभूति है-
कुश कांटों से सज्जित जीवन
प्रखर प्यार से वंचित यौवन
नीरवता से मुखरित मधुबन
परहित अपना अर्पित तन-मन।
जीवन के प्रति इसी व्यापक दृष्टिकोण ने और किशोरावस्था से ही जन-जन के साथ जुड़ने और उसकी पीड़ा को दूर करने की भावना ने बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्तित्व अटल बिहारी को आगे चलकर भारतीय राजनीति का शिखर पुरुष बनाया। उनके आकर्षक व्यक्तित्व, अप्रतिम तेजस्विता तथा वाक् कौशल का ही परिणाम था कि चाहे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू हों, शांति पुरुष लाल बहादुर शास्त्री, डॉ. राममनोहर लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय अथवा धुर विरोधी श्रीमती इन्दिरा गांधी, किसी ने भी इस विराट व्यक्तित्व को मान देने में और उनकी प्रतिभा का लोहा मानने में कंजूसी नहीं की। जहां तक समकालीनों का प्रश्न है दलगत और विचारगत विरोध होने के बावजूद सभी अजातशत्रु अटल जी के आकर्षक व्यक्तित्व के कायल रहे हैं। जन-जन के मध्य पांच-छह दशकों तक अपना जादू कायम रखने वाले अटल जी अपने कर्मपथ में संलग्न रहकर 1957 में संसद में पहुंचे और 1977 में देश के विदेश मंत्री तथा इसके बाद 13 दिन, 13 माह और 5 वर्ष के लिए तीन बार देश के प्रधानमंत्री भी बने, किन्तु उनको कभी पद ने अहंकार के मोहपाश में नहीं बांधा, वे हमेशा सहज, सरल व सर्वसुलभ बने रहे। भारतीय समाज जीवन में देश के एक-एक व्यक्ति के हृदय में रहने, जनप्रिय व लोकप्रिय होने तथा एक आम व्यक्ति की तरह जीवनयापन करने वाले शिखर व्यक्तित्व अटल जी का विशद् दर्शन इन पंक्तियों में छिपा है-
मेरे प्रभु, मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं, इतनी रुखाई कभी मत देना।
वास्तव में यह विराट चिंतन ही है जिसने देशभर के लोगों में अटल जी के प्रति असीम श्रद्धा व प्रेमभाव का निर्माण किया और विरोधियों को चाहते हुए भी कभी प्रश्न करने का अवसर नहीं दिया। दुर्भाग्य से जिस प्रकार इस देश की राजनीति अवसरवादी, मूल्यहीन और भ्रष्ट रही है उसी प्रकार यहां के साहित्य में भी गिरोहबाजी, गुटबंदी व चाटुकारिता का भाव विद्यमान है। इसी कारण भारतीय राजनीति के जाज्वल्यमान नक्षत्र अटल बिहारी वाजपेयी पूरे देश सहित विदेशों में भी लोकप्रिय रहे किन्तु जब उन्हें सर्वप्रिय व सर्वमान्य होने की स्वीकृति का पुरस्कार मिलना चाहिए था, चाहे 2006 में राष्ट्रपति पद की बात हो अथवा लंबे समय से भारतरत्न दिए जाने की मांग-सत्तासीन बौने, स्वार्थी एवं भ्रष्ट लोग इस विराट पुरुष से ईर्ष्या करते दिखे। यही स्थिति साहित्य जगत की है, कुछ ने इनकी कविताओं को संघ की शाखाओं तक सीमित कर दिया, कुछ ने कोरे राष्ट्रवाद वाली तो कुछ ने इनमें सांप्रदायिकता भी खोज ली। 'लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: किं प्रयोजनम्' की उक्ति को चरितार्थ करती हैं ये पंक्तियां-
गोपाल राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किए
कब दुनिया को हिन्दू करने घर-घर में नरसंहार किए? कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ीं? भू-भाग नहीं शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
भारतीय राजनीति में तो नेताओं को भीड़ जुटाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, लेकिन राजनेता अटल जी से बाकी नेता ईर्ष्या भी इसी कारण करते थे कि जनसैलाब उनके नाम से ही उमड़ पड़ता था और विरोधी दलों के नेता व कार्यकर्ता भी आकर उनको सुनते थे। देश की समस्याओं का पूरा वृत्त उनको मालूम था इसलिए लगभग आधी शताब्दी तक संसद में उपस्थित जननायक अटल जी ने बिना चर्चा के कोई विषय नहीं छोड़ा। अहंभाव, बाह्य प्रदर्शन एवं दिखावे की प्रवृत्ति से अटल जी हमेशा दूर रहे। संसद और सड़कों पर भी हमेशा लोगों के मन मस्तिष्क में रहने वाले अटल जी ने कभी अपने को न तो बड़ा कहा और न बड़ा दिखाया। वे जानते थे कि जनता का प्यारा दुलारा व्यक्ति यदि दोहरा चरित्र रखेगा तो वह जनता के हृदय में स्थायी रूप से नहीं टिक सकता। ऐसे नकली मुस्कान बिखेरने वालों को तो खून के आंसू रोना पड़ता है-
जो जितना ऊंचा, उतना ही एकाकी होता है
चेहरे पर मुस्कानें चिपका, मन ही मन रोता है
यही जननायक कवि युद्ध विरोधी बनकर मित्रता का भाव लेकर पाकिस्तान में शांति की गाड़ी लेकर, पोखरण में परमाणु परीक्षण कर देश में भय व भूख को मिटाकर स्वर्णजयंती चतुर्भुज मार्ग, नदी जोड़ो अभियान और संचार क्रांति का प्रणेता बनकर देशवासियों का असीम प्रेम व श्रद्धाभाव प्राप्त करता है और सभी का आह्वान करता है कि मेरा ध्येय और चिंतन संकुचित न होकर समष्टि तक व्याप्त है-
हमने छेड़ी जंग भूख से बीमारी से
आगे आकर हाथ बटाए दुनिया सारी
पद्मविभूषण डा. अटल बिहारी वाजपेयी ने दिसम्बर 2005 में ही राजनीति और सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लिया था। देश के प्रत्येक गांव कस्बे तक जन-जन के हृदय में रहने वाले वाजपेयी ने आधी शताब्दी के कालखण्ड में जितनी विदेश यात्राएं की होंगी, संभवत: वह विश्व के किसी भी राजनीतिक व्यक्ति से ज्यादा होंगी। इधर कुछ वर्षों से अटल जी का स्वास्थ्य चिंताजनक बना हुआ है। शांत चित्त आंखों में अतीत के अनेक सुनहरे पल हैं, पर वाणी साथ नहीं दे पा रही। जीवन के 91वें वसंत में आइए, हम उनके अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना करें। -सूर्य प्रकाश सेमवाल
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