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उत्तराखण्ड में चार धाम हैं-यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ। मान्यता है कि इन तीर्थों के दर्शन करने से व्यक्ति के पाप नष्ट हो जाते हैं और वह जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। शास्त्रों में इन्हें पृथ्वी और स्वर्ग एकाकार होने का स्थल भी माना गया है। हिन्दुओं के लिए ये अत्यंत पवित्र स्थान हैं। इनकी प्राकृतिक सुंदरता श्रद्धालुओं को तो मोहित करती ही है, साथ ही देशी-विदेशी सैलानियों को भी अपनी ओर खींचती है। यहां आपको चार हजार मीटर से भी ज्यादा ऊंचाई तक यात्रा करनी होती है और डगर कहीं आसान तो कहीं बहुत कठिन है। तीर्थयात्री सबसे पहले यमुनोत्री (यमुना) और गंगोत्री (गंगा) का दर्शन करते हैं। यहां से पवित्र जल लेकर श्रद्धालु केदारेश्वर पर जलाभिषेक करते हैं। चारों धाम अक्षय तृतीया को खुलते हैं और दीपावली के दो दिन बाद भाईदूज को बंद हो जाते हैं।
बद्रीनाथ
कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने अजुर्ुन से कहा था कलियुग में सिर्फ बद्रिकाश्रम में मिलूंगा। बद्रीनाथ का मन्दिर अलकनंदा नदी के तट पर समुद्र तल से 19,204 फीट की ऊंचाई पर है। अलकनंदा का पानी बर्फ के समान ठंडा है और इसी के तट पर आदिकाल से दो तप्तकुण्ड बहुत गर्म पानी से भरे हुए हैं। मन्दिर में दर्शन करने से पूर्व इन कुण्डों में स्नान करने का विधान है। बद्रीनाथ मन्दिर बहुत पुराना है। यहां भगवान श्रीकृष्ण की पादुकाएं रखी हुई हैं। इन पादुकाओं की पूजा आज भी बद्रीनाथ के मन्दिर में होती है। मन्दिर के बारे में कथा यह है कि शंकराचार्य जी को शलीग्राम शिला के रूप में भगवान बद्रीनारायण की गढि़त मूर्ति अलकनंदा नदी के पास एक गुफा में मिली थी। इस मूर्ति को उन्होंने तप्त कुण्ड के पास एक गुफा में स्थापित किया। यह गुफा अब भी नारद गुफा के नाम से जानी जाती है। 16वीं सदी में गढ़वाल के राजाओं ने इस मूर्ति को आज के भव्य मन्दिर में स्थापित किया। यह मन्दिर पत्थर से बना है। इसके मुख्य द्वार पर बहुरंगी अत्यन्त आकर्षक सजावट की गई है। यह मन्दिर प्रकृति के उस भूखण्ड में बसा है जो स्वयं एक प्राकृतिक मन्दिर सा है। जहां हर स्थान पर भगवान को देखा और पूजा जा सकता है। अरुंधति ने अपने पति महर्षि वशिष्ठ से बद्रीनाथ के महत्व के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि अरुंधति, बड़े-बड़े पापियों के पाप भगवान बद्रीनारायण के दर्शन मात्र से नष्ट हो जाते हैं और वे पुण्य लोक को प्राप्त कर लेते हैं। इनका एक दर्शन ही सारे वेदों के ज्ञान को देने वाला है। जिसे प्राप्त करके मनुष्य अज्ञान के अंधकार से निकल कर दैविक ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
हमारे सारे तीर्थों में यही तीर्थ है जिसे आश्रम कहा जाता है। इस स्थान को तीर्थ बनाने के लिए नर नारायण, महर्षि वशिष्ठ, कण्व, वेदव्यास, श्री गणेश और अनगिनत ऋषि-मुनियों ने हजारों वर्ष तक तपस्या की। इस मन्दिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की शालिग्राम की बनी हुई मूर्ति है और भगवान पद्मासन में बैठे हैं।
अर्थात्, जो पवित्र वन, पर्वत और नदियों से पूर्ण बद्रिकाश्रम में सदा पद्मासन लगाए एक रूप में बैठै (अटल) विराजमान हैं, जिनका अत्यन्त अनुपम दर्शन सिद्ध, योगीन्द्र और देवताओं को भी आनन्द और कल्याण देने वाला है। बद्रीनाथ में शंकराचार्य द्वारा स्थापित परंपरा के अनुसार केरल के नम्बूदरी ब्राह्मण ही मुख्य पुजारी का काम करते हैं। इन्हें 'रावल' कहा जाता है।
केदारनाथ में शिव शिलारूप
भगवान श्री केदारेश्वर का मन्दिर एक सुरम्य प्रकृति की शोभा है। नीचे मंदाकिनी का कल-कल निनाद, ऊपर पहाड़ों पर बर्फ की सफेद चादरें, रात को छिटकती चन्द्रमा की शीतल चांदनी, मंदिर के घंटा-घडि़याल का मधुर संगीत, वेद मंत्रों के घोष और बीच-बीच में हर-हर महादेव तथा 'नम: शिवाय' की ध्वनि, रोम-रोम में साक्षात् शिवलोक का अनुभव कराती है।
ऋषिकेश से कीर्ति नगर और फिर गुप्तकाशी के पास फाटा। गुप्तकाशी से थोड़ा आगे गौरीकुण्ड से 14 किलोमीटर कठिन चढ़ाई कर केदारनाथ पहंुचना होता है। यहां एक तिकोनी शिला के रूप में भगवान शिव विराजमान हैं। कहा जाता है कि पाण्डव जब हिमालय की ओर प्रस्थान कर रहे थे तो भगवान शिव ने एक वृषभ का रूप धारण कर इस पहाड़ पर अन्य पशुओं के बीच छिपने का प्रयास किया था, लेकिन भीमसेन ने भगवान शिव को वृषभ के रूप में भी पहचान लिया और उनको पकड़ने का प्रयास करने लगे। शिवजी धरती में समा गए, उनके सिर और सींग पशुपतिनाथ (नेपाल) में निकले, और उनके पैर जम्मू-कश्मीर में सीमावर्ती पंुछ क्षेत्र में निकले। पंुछ में बूढ़ा शिव का मंदिर है, जहां अब भी पूजा-अर्चना होती है। भीम का हाथ वृषभ रूप शिव की पीठ पर पड़ा था। वही हिस्सा एक तिकोनी शिला के रूप में केदारनाथ मन्दिर में पूजा जाता है। शिवजी के धरती में समा जाने की एक प्रचलित कथा और भी है। शिवजी जब पृथ्वी में समाए तो उनके हाथ जिस जगह निकले उसे तंुगनाथ कहते हैं, जहां शिवजी का मुख निकला वह जगह रुद्रनाथ कहलाती है। कल्पनाथ में भगवान शिव की जटाओं का पूजन होता है। मद्यमहेश्वर में अन्य अंगों का पूजन होता है। केदारनाथ, मद्यमहेश्वर, तंुगनाथ, कल्पेश्वर और रुद्रनाथ ये पंच केदार कहलाते हैं। केदारनाथ का मन्दिर पाण्डवों ने बनवाया था जिसके अब भग्नावशेष ही बाकी हैं। वर्तमान मंदिर का निर्माण आद्य शंकराचार्य जी ने लगभग 800 वर्ष पूर्व किया था। यह मन्दिर समुद्र तल से 3553 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। केदारनाथ मन्दिर के पास ही आद्य शंकराचार्य जी की समाधि भी स्थापित है। मन्दिर के पास यात्रियों के रहने की अच्छी व्यवस्था है और एक छोटा सा बाजार भी है।
यमुनोत्री
यमुनोत्री मन्दिर के समीप कई गर्म पानी के सोते हैं। इनमें से सूर्य कुंड प्रसिद्ध है। कहा जाता है अपनी बेटी को आशीर्वाद देने के लिए भगवान सूर्य ने गर्म जलधारा का रूप धारण किया। श्रद्धालु इसी कुंड में चावल और आलू कपड़े में बांधकर कुछ मिनट तक छोड़ देते हैं, जिससे वह पक जाता है। पके हुए इन पदार्थों को तीर्थयात्री प्रसाद स्वरूप घर ले जाते हैं। सूर्य कुंड के नजदीक ही एक शिला है। इसे 'दिव्ये शिला' के नाम से जाना जाता है। यमुना जी की पूजा करने से पहले इस दिव्य शिला का पूजन श्रद्धालु करते हैं। नजदीक ही 'जमुना बाई कुंड' है, जिसमें पूजा से पहले पवित्र स्नान किया जाता है। इस कुंड का पानी हल्का गर्म होता है। यमुनोत्री के पुजारी और पंडा पूजा करने के लिए गांव खरसाला से आते हैं जो जानकी बाई चट्टी के पास है।
यहां स्थित यमुना मंदिर का निर्माण जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं शताब्दी में करवाया था। यमुना के उद्गम स्थिल यमुनोत्री से लगभग एक किलोमीटर दूर 4,421 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर है।
पौराणिक कथा के अनुसार यमुना सूर्य की बेटी थी और यम उनका बेटा था। यही वजह है कि यम अपनी बहन यमुना में श्रद्धापूर्वक स्नान किए हुए लोगों के साथ सख्ती नहीं बरतता है।
खुलने का समय: मन्दिर सुबह 6 बजे से लेकर रात 8 बजे तक खुला रहता है। सु?बह 6:30 और शाम 7:30 बजे आरती होती है। जन्माष्टमी और दीपावली पर यहां विशेष पूजा की जाती है।
गंगोत्री
भारत की पवित्र और आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण गंगा नदी का उद्गम स्थल है गंगोत्री। समुद्र तल से 3,140 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री से ही भागीरथी नदी निकलती है। गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है।
भागीरथी नदी के बाएं किनारे पर सफेद पत्थरों से बने गंगोत्री मंदिर की ऊंचाई लगभग 20 फीट है। 1935 में राजा माधो सिंह ने इस मन्दिर का पुनरुद्धार कराया था। फलस्वरूप मन्दिर की बनावट में राजस्थानी शैली की झलक मिलती है। मन्दिर के समीप ह्यभागीरथ शिलाह्ण है जिस पर बैठकर भागीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तपस्या की थी। इस मन्दिर में देवी गंगा के अलावा यमुना, भगवान शिव, देवी सरस्वती, अन्नपूर्णा और महादुर्गा की भी पूजा की जाती है।
भारतीय संस्कृति में गंगोत्री को मोक्षप्रदायिनी माना गया है। यही वजह है कि चंद्र पंचांग के अनुसार हिन्दू अपने पूर्वजों का श्राद्ध और पिण्डदान करते हैं। मन्दिर में प्रार्थना-पूजा के बाद श्रद्धालु भगीरथी नदी के किनारे बने घाटों पर स्नान आदि के लिए जाते हैं। तीर्थयात्री भागीरथी नदी के पवित्र जल को अपने साथ घर ले जाते हैं। शुभ कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। मन्दिर की गतिविधि तड़के चार बजे से शुरू हो जाती है। सबसे पहले 'उठन' (जागना) और 'श्रृंगार' की विधि होती है जो आम लोगों के लिए खुला नहीं होता है। सुबह 6 बजे की मंगल आरती भी बंद दरवाजे में की जाती है। 9 बजे मन्दिर के पट को 'राजभोग' के लिए 10 मिनट तक बंद रखा जाता है। सायं 6.30 बजे श्रृंगार हेतु पट को 10 मिनट के लिए एक बार फिर बंद कर दिया जाता है। इसके उपरांत रात 8 बजे राजभोग के लिए मन्दिर के द्वार को 5 मिनट तक बंद रखा जाता है। ल्ल
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