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पेशावर से अरबी बोलने वाले क्षेत्र सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं। अपने क्षेत्र से वहां अरबी बोलने वाले मारने-मरने क्यों आये? छोटे-छोटे बच्चों की आंखों में, सर में गोलियां मारने वाले केवल जुनूनी हत्यारे नहीं हो सकते।
तुफैल चतुर्वेदी
बहिश्तो-जा-कि मुल्ला-ए-न बायद
जि मुल्ला शोरो-गोगा-ए-न बायद
(स्वर्ग उसी जगह है जहां मुल्ला नहीं है और उनका शोर सुनाई नहीं देता-दारा शिकोह)
दक्षिण एशिया यानी अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश, भारत की स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही है। अफगानिस्तान से अमरीका के हटने के बाद वहां हमारी उपस्थिति, पाकिस्तान के उत्पात, पाकिस्तान, बंगलादेश में इस्लामी जिहादियों की हिंसा के तांडव, अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमले, इन घटनाओं पर छायी चुप्पी, गहरी चिंता में डाल रहे हैं। ये क्षण विस्तृत योजना बनाने और उन पर तब तक अमल करने का है जब तक वांछित परिणाम न आ जाएं।
सामान्य जानकारी ये है कि 1979 में रूस ने अफगानिस्तान के तत्कालीन नेतृत्व के निमंत्रण पर अफगानिस्तान में अपनी सेनाएं भेजी थीं। अमरीका वियतनाम की हार के कारण आहत था और बदला लेने की ताक में था। उसने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जिया-उल-हक, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात के नेतृत्व को तैयार किया़ जिसके कारण धरती का ये भाग कराह रहा है। यहां सबसे बड़े कारण का जिक्र नहीं होता कि इन सब कारकों को इकट्ठा तो अमरीका की बदले की भावना ने किया, मगर इन सबको मिला कर जो विषैला पदार्थ बना उसे टिकाने वाला, जोड़े रखने वाला तत्व क्या था? एक ऐसे देश में लड़ाई के लिए, जिससे उनकी सीमाएं भी नहीं लगतीं, अपने खरबों डलर झोंकने के लिए सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात क्यों तैयार हो गए? अगर ये इस्लाम नहीं था तो वे कारण क्या था?
सबको स्वीकारने, सबको जीवन का अधिकार देने, सबको अपनी इच्छानुसार उपासना करने, सबको स्वतंत्र सांस लेने का अधिकार देने वाली समावेशी मूर्तिपूजक, प्रकृतिपूजक संस्कृति, जिसे इस भाग में हिन्दू संस्कृति कहा जाता है, ही विश्व की मूल संस्कृति है। विश्व भर में एक ईश्वर या अल्लाह जैसा कुछ मानने वाले सेमेटिक मजहबों ने इसी के हिस्से तोड़-तोड़कर अपने साम्राज्य खड़े किये हैं। निकटतम अतीत में हमसे पाकिस्तान और बंगलादेश छीने गए हैं। जिन दिनों पाकिस्तान बनाने का आंदोलन चल रहा था, मुस्लिम नेता शायर इकबाल की पंक्तियां बहुत पढ़ते थे। इकबाल की 'शिकवा', 'जवाबे-शिकवा' नामक दो लम्बी नज्मों में इस्लाम का मूल दर्शन लिखा हुआ है। उसकी एक बहुत चर्चित पंक्ति है-
'तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चट्टानों पर'
शाहीं यानी बाज, जो आकाश में सारे पक्षियों से ऊपर उड़ता है, स्वतंत्र जीवन जीता है। पहाड़ों में रहने वाले, छोटी चिडि़यों का झपट्टा मार कर शिकार करने वाले, उनका मांस नोंच-नोंच कर खाने वाले बाज के जीवन-दर्शन को इस्लामी नेतृत्व ने अपने समाज के लिए आदर्श माना। इकबाल का ही इसी सिलसिले का एक शेर और उद्धृृत करना चाहूंगा-
'जो कबूतर पर झपटने में मजा है ऐ पिसर (बाज अपने बेटे से कह रहा है)
वह मजा शायद कबूतर के लहू में भी नहीं'
पुरानी कहावत है कि नाग पालने वाले नागों से डंसे जाने के लिए अभिशप्त होते हैं। जिस रूपक की सभ्य समाज उपेक्षा करता, घृणा करता, उसे इस्लामियों ने अपना प्रेरणा-स्रोत माना। अब ये बाजों के झुण्ड कबूतर पर झपटने का मजा अधिक पाने के लिए पेशावर में उतर आये हैं। यहां थे की जगह हैं प्रयोग जान-बूझ कर कर रहा हूं कि ये कोई नई घटना नहीं है। इस्लामी इतिहास को देखें तो मुहम्मद ने अपने साथियों के साथ उत्तरी अरब में रहने वाले एक यहूदी कबीले बनू कुरैजाह पर आक्रमण किया। 25 दिन तक युद्घ करने के बाद यहूदियों के इस कबीले ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस्लामी सूत्रों के हवाले से एक औरत सहित सारे पुरुषों के गले धड़ से अलग कर दिए गये।
अन्य सूत्रों के अनुसार यहूदियों के 400 से 900 पुरुषों के गले काट डाले गए जिनमें बच्चे भी थे। भारत में दसवीं पादशाही गुरु गोविन्द सिंह जी के दो बेटे जोरावर सिंह, फतह सिंह मुगल नवाब के काल में काजी के फतवे पर दीवार में चुनवा दिए गए थे। 13 साल के बच्चे वीर हकीकत राय की मुसलमान न बनने के कारण बोटियां नोंच ली गयी थीं। भारत में इस तरह की घटनाओं के तो मुस्लिम इतिहासकारों के स्वयं लिखित असंख्य वर्णन मिलते हैं। 2004 में रूस के बेसलान नगर में इस्लामी आतंकवादियों ने एक स्कूल पर कब्जा कर 777 बच्चों सहित 1100 लोगों को बंधक बना लिया था। 3 दिन चले उस संघर्ष में 186 बच्चों सहित 385 बंधक मारे गए थे। ये इस्लामियों का गैरइस्लामी लोगों के साथ सामान्य व्यवहार है।
आइये पेशावर की घटना पर लौटते हैं। पेशावर में अरबी नहीं बोली जाती। पेशावर से अरबी बोलने वाले क्षेत्र सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं। अपने क्षेत्र से वहां अरबी बोलने वाले मारने-मरने क्यों आये? छोटे-छोटे बच्चों की आंखों में, सर में गोलियां मारने वाले केवल जुनूनी हत्यारे नहीं हो सकते। इन लोगों की मगज-धुलाई, वह भी इस तरह कि हत्यारे जान लेते हुए अपनी जान देने के लिए आतुर हो जाएं, कोई सामान्य षड्यंत्र का परिणाम नहीं हो सकता।
भारत का अरीब और उसके कुछ साथी जिहाद के लिए सीरिया क्यों गए? नाइजीरिया के स्कूल में रात के दो बजे आग लगा कर ग्यारह साल से अट्ठारह साल के चालीस बच्चों को जला कर क्यों बोको-हराम के लोगों ने मार डाला?
ये हत्यारे आप-मुझ जैसे पहनावे वाले, खान-पान वाले लोग हैं मगर इनका मानस बिल्कुल अलग है। दिन में पांच बार एक विशेष प्रकार के आराध्य की नमाज पढ़ने वाले, हर नमाज में एक उंगली उठा कर गवाही देने वाले 'अल्लाह एक है, उसमें कोई शरीक नहीं, मुहम्मद उसका पैगम्बर है', चौबीसों घंटे स्वयं को शैतानों से भरे समाज में मानने-समझने वाले अगर ऐसा करने पर उतारू हो जाएं तो ये कोई असामान्य बात नहीं है। ये 'कत्ताल फी सबीलल्लाह जिहाद फी सबीलल्लाह' की सामान्य परिणति है। 'अल्लाह की राह में कत्ल करो-अल्लाह की राह में जिहाद करो' पर अटूट विश्वास का परिणाम है।
इस सोच की नींव हिलाये बगैर ये दर्शन कैसे ध्वस्त होगा? सदियों से सभ्य समाज ने इस विषैली विचारधारा को नजरअंदाज किया है। किसी कैंसर-ग्रस्त व्यक्ति के ये मानने से कि 'मैं स्वस्थ हूं' वह स्वस्थ नहीं हो जाता। पाकिस्तान का जन्म मुसलमानों ने स्वयं को 'काफिरों' से श्रेष्ठ मानने, सदियों तक अपने गुलाम रहे हिन्दुओं के प्रजातंत्र के कारण स्वयं पर हावी हो जाने की संभावना से बचने के लिए किया था।
इसी अनैतिहासिक और ऊटपटांग दर्शन के कारण उन्होंने पाकिस्तान की शिक्षा प्रणाली भी ऐसी ही मूर्खतापूर्ण बनायी। अब इस विषवृक्ष के फल आ गए हैं। इस विचारधारा को माशाअल्लाह और इंशाअल्लाह जप कर ढेर नहीं किया जा सकता।
इसके लिए मानव सभ्यता के पहले चरण 'सभी मनुष्य बराबर हैं' का आधार ले कर इसके विपरीत हर विचार को तर्क, दंडात्मक कार्रवाही से नष्ट करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। इसे परास्त बल्कि नष्ट करने के लिए वैचारिक स्तर पर, उन देशों से जहां-जहां इसके विष-बीज मौजूद हैं, प्रत्येक स्तर पर लड़ाई लड़नी पड़ेगी। जनतंत्र के सामान्य सिद्घांत 'प्रत्येक मनुष्य बराबर है, सभी के अधिकार बराबर हैं। जीवन का अधिकार मौलिक अधिकार है' को विश्व का दर्शन बनाना पड़ेगा। इसके विपरीत विचार रखने वाले व्यक्ति-समूह-समाज का हर प्रकार से दमन करना पड़ेगा। ये जितना पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश के लिए आवश्यक है उतना ही हमारे लिए भी आवश्यक है। पाकिस्तानी पड़ोसियो! हम इस दारुण दु:ख में आपके साथ हैं और आपके गम में शामिल होना चाहते हैं, मगर क्या करें, हमारी आंखें तो बारह सौ साल से लहू रो रही हैं। तो ऐसा करते हैं, हम इस घटना पर उतना ही दु:ख मना लेते हैं, जितना मुंबई में ताज होटल और यहूदी पंथ-स्थल पर हुए आतंकी आक्रमण के समय आपने मनाया था। ल्ल
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