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आस्तिक और नास्तिक सिर्फ अपनी मान्यताओं में उलझे रहकर ठिठक न जाएं यह गीता बताती है। सम्पूर्ण मानवता की ठिठकन, जकड़न तोड़कर आगे बढ़ने वाला यह मार्ग कर्म का है।
रमेश भाई ओझा
नं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 2/ 23)
आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकता और अग्नि जला नहीं सकती। आत्मा जल से गीली नहीं होती और पवन उसे सुखा नहीं सकती। आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते? आत्मा अछेद्य है- छेद नहीं हो सकता। अकाट्य है। नैनं दहति पावक:- उसे अग्नि जला नहीं सकती, क्यों नहीं जला सकती? आत्मा अदाह्य है- जल न सके ऐसी है। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:- पानी उसे गीला नहीं कर सकता। लेकिन ऐसा क्यों है?
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योयमऽशोष्य एव च।
एव च से बता दिया- निश्चित ही अस्पृश्य है। मतलब जिसे स्पर्श ना किया जा सके, छुआ ना जा सके ऐसी। वह कैसी है? नित्य है। नित्य: सर्वगत: सर्वव्यापी, व्यापक। नित्य है, इसलिए हमेशा है। सर्वगत। सर्वव्यापी है। स्थाणु: अचल: -अचल है, स्थिर रहने वाली है। चलायमान नहीं, गति करने वाली नहीं वह कहीं आती भी नहीं और कहीं जाती भी नहीं। इसलिए वह आत्मा कहां गई? भगवान के मुख से निकला हुआ एक-एक शब्द बहुत वजनदार है। कितने अच्छे श्लोक हैं? तुम इसे अच्छी तरह से सोचो। अगले श्लोक में जो चीज कही गई है उसके लिए…उनका प्रत्युत्तर होगा तो इनके बाद के श्लोक में मिलेगा। जवाब बाद के आधे श्लोक में दिया है। उन्हें शस्त्र काट नहीं सकते। उन्हें अग्नि जला नहीं सकती, उन्हें पानी गीला नहीं कर सकता। उन्हें वायु सुखा नहीं सकता। क्यों? किसलिए? तो उसका जवाब आधे श्लोक में दिया है उन्हें शस्त्र काट नहीं सकते, उन्हें अग्नि जला नहीं सकती है, उन्हें पानी गीला नहीं कर सकता। उन्हें वायु सोखती नहीं है।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योयमऽशोष्य एव च।
फिर प्रश्न आया। … तो उसका जवाब मिला।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन: ।।
((श्रीमद्भगवद्गीता 2/ 24)
इस तरह से गीता का स्वाध्याय करते जाओ, चिंतन करते रहो, मजा आएगा। क्योंकि आत्मा नित्य है, सर्वव्यापी है, स्थाणु- स्थिर रहने वाली है, अचल, सनातन है।
श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का अंतिम श्लोक देखें-
एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 2/72)
इस श्लोक के अंतिम चरण पर ध्यान दीजिए। 'ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति' ऐसे दो शब्द आते हैं- 'ब्रह्म' और 'निर्वाण'। योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने पांच हजार साल पहले श्रीमद्भगवद्गीता के इस श्लोक में ब्रह्म शब्द का जो उपयोग किया था उनको जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने मत में प्रयोजित किया और भगवान बुद्ध ने इस श्लोक में से निर्वाण शब्द को चुना। ध्यान दीजिए कि 'निर्वाण' शून्य होने की बात बताता है और ब्रह्म पूर्ण होने की बात कहता है। एक में भर जाने की बात है और दूसरे में खाली हो जाने की बात है। जिस तरह गंगा और नर्मदा दोनों अलग-अलग दिशा में बहती हैं, मगर अंत में दोनों सागर में ही समाती हैं उसी तरह यहां ब्रह्म और निर्वाण एक ही स्थिति के दो नाम हैं।
सब अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार मार्ग ग्रहण कर सकते हैं। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार मार्ग ग्रहण कर सकते हैं।
संशय करने का अधिकार शिष्य को है और श्रोता को भी है। यह अधिकार जब से छीन लिया गया है तब से धर्म का क्षेत्र तंदुरुस्त नहीं रहा है, और वह मात्र मान्यता बन गया है। ईश्वर हैं यह भी मान्यता है और ईश्वर नहीं हैं वह भी मान्यता ही है। इस अर्थ में देखा जाए तो नास्तिक की नास्तिकता प्रामाणिक नहीं है और आस्तिकों की आस्तिकता भी प्रामाणिक नहीं है।
भगवान बुद्ध के पास एक आदमी आया, उसने आकर कहा ईश्वर का अस्तित्व है, मैं मानता हूं कि ईश्वर है। बुद्ध बोले ईश्वर नहीं है। तेरी मान्यता गलत है, ईश्वर है ही नहीं। शाम ढलते-ढलते दूसरा आदमी आया उसने कहा मैंने सुना है कि ईश्वर नहीं है। आप कह रहे हैं कि ईश्वर नहीं है। बुद्ध ने कहा, नहीं, नहीं ईश्वर है और सनातन है। बुद्ध का उत्तर सुनकर वह चला गया। बुद्ध के शिष्य आनंद को अचरज हुआ, वह सोच में पड़ गया। गुरुदेव ऐसा क्यों कहते हैं? बात समझ में नहीं आयी, आप सुबह कहते हैं ईश्वर है और शाम को कहते हैं नहीं है। मामला क्या है?
जो आदमी मेरे पास आया था वह ईश्वर को मानता था। वह आस्तिक था, वह ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करता था, लेकिन उसकी आस्तिकता भी केवल मान्यता थी। वह मान्यता जब तक अनुभूति में नहीं बदलेगी तब तक ईश्वर उसके लिए बोझा हो जायेगा। मुझे थोड़ा उसे धक्का देना था। इसलिए मैंने कहा ईश्वर नहीं है। ताकि उसको थोड़ा धक्का लगे और वह अनुभूति की यात्रा शुरू कर दे। शाम को दूसरा आदमी आया। उसने मान लिया था कि ईश्वर नहीं है जिसने मान लिया था कि ईश्वर नहीं है, उसको मैंने कहा कि ईश्वर है, ताकि वह भी मान्यता में रुका न रहे और यात्रा शुरू कर दे। मैंने उससे कहा ईश्वर ही है इसके अलावा-कुछ है ही नहीं ताकि उसकी नास्तिकता को जरा धक्का लगे और वह भी यात्रा शुरू कर दे। इसलिए मैंने अभी भी कहा कि आस्तिक अपनी आस्तिकता को केवल मान्यता न माने। अनुभूति की यात्रा शुरू कर दे और नास्तिक केवल अपनी नास्तिकता को मान्यता न रहने दे और अनुभूति की और यात्रा आगे शुरू करें तो दोनों जहां पहुंचेंगे ओर दोनों एक दूसरे को जहां मिलेंगे वह स्थान एक ही होगा।
तो हमारी नास्तिकता भी प्रामाणिक नहीं है और हमारी आस्तिकता भी प्रामाणिक नहीं है। आजकल नास्तिक कहलाने का फैशन चल रहा है। खूब पढ़े-लिखे 'रेशनलिस्ट' कहते हैं हम इन बातों को नहीं मानते, यह कथा, यह सत्संग, यह कथा वार्ता, यह साधु संतों की बातें झूठी हैं। ईश्वर है ही नहीं। फिर इन फिजूल की बातों को दोहराने से क्या फायदा? मगर इन नास्तिक लोगों को भी कहना चाहिए कि तुम्हारी नास्तिकता भी गलत है। प्रामाणिक नहीं है और जो केवल अंधश्रद्धा से अनुभूति के बिना केवल ईश्वर को मानते हैं उनकी आस्तिकता भी खोखली है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 2/47)
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा – कृष्ण कहते हैं तुम्हारा कर्म फल की इच्छा से प्रेरित नहीं होना चाहिए। कोई-कोई स्वार्थी लोग हैं कि अगर फल न मिले तो व्यर्थ की दौड़धूप क्यों करें? फल अगर मिले ही नहीं तो कर्म करने का क्या फायदा? इसलिए कृष्ण आगे कहते हैं- संगोऽस्त्वकर्मणि- यह फल न मिले तो भी क्यों कर्म करना चाहिए? ऐसा मान करके तू अकर्मण्य नहीं हो जाना। तुझे नुकसान ही होगा। तू कर्म किये जा यह जो श्लोक है वह गोल-गोल घुमाता है। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा – तेरा कर्म फल की इच्छा से उत्पन्न नहीं होना चाहिए।
मतलब यह कि फल की लालसा से फल के लिए ही कर्म करना ठीक नहीं है और अगर तू कहता है कि फल मिलना संभव नहीं है, फल मिलने की संभावना ही नहीं है तो हमें कर्म ही क्यों करना चाहिए?
मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि – तुम अकर्मण्य न हो। इसलिए कर्म करते रहो। क्यों? क्योंकि कर्म करने में तेरा अधिकार है। कर्म करने में तू स्वतंत्र है इसलिए- कर्मण्येवाधिकारस्ते- कर्म हम करते हैं तो फल मिलने में क्या तकलीफ है? तो कहते हैं- नहीं, मा फलेषु कदाचन – फल में तेरा अधिकार नहीं है इसलिए तेरा कर्म फल की लालसा से होना नहीं चाहिए।
(अमरीका के डेट्रोईट में गीता के प्रथम दो
अध्याय पर दिए गए प्रवचन के अंश)
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