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बिना लिप्त हुए निरंतर कर्म करने से व्यक्ति को सर्वोच्च की प्राप्ति हो सकती है। अथवा किसी भी नियम की परिपूर्णता त्याग या बलिदान में है गीता में यही निहित है। गीता में जो परम उपयोगी ज्ञान बताया गया है वह मात्र ब्राह्मणों या हिन्दुओं के लिए नहीं अपितु इसमें सभी के लिए किरणें और रंग मौजूद हैं। गीता का केन्द्रीय भाव और शिक्षाएं किसी भी गैर हिन्दू के लिए कम उपयोगी और अनुकरणीय नहीं है। गीता बताती है कि वह स्वयं को कैसे खोजे और किस प्रकार अपनी ठोस पहचान करे। भगवद्गीता में कृष्ण ही आत्मन हैं, वही पुरुषोत्तम हैं और ईश्वर के ईश्वर एवं सृष्टि के स्वामी भी वही हैं। गीता में जीवन के गूढ़ रहस्यों का निचोड़ है, इसे महाभारत का उपनिषद कहा जाए तो यह भी कम है।
-महात्मा गांधी
महादेव भाई देसाई के ग्रंथ में
गांधी के अनुसार गीता' से
जीवन महाभारत, अर्जुन का अंतर्द्वंद्व सबकी उलझन
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ युद्धक्षेत्र है। दोनों ओर शत्रुरूप में रिश्तेदार और मित्र खड़े हैं। अर्जुन के सामने धर्मसंकट है।
इस संसार जीवन के युद्ध में हम सभी निरंतर लड़ाई लड़ रहे हैं। अपनी कमजोरियों और कायरता को छिपाने के नित नए बहाने हम ढूंढते हैं। अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ है। गीता उसे द्वंद्व से मुक्ति दिलाती है कि हे पुरुषार्थी जागो, भावुकता और कमजोरी को छोड़कर युद्ध करो। स्वयं पराक्रम और कर्म में तत्पर होकर बिना फल की चिंता किए कर्तव्य निभाना जरूरी है। परमात्मा आशाओं को पूर्ण करता है लेकिन वह अपने लिए कोई आकांक्षा नहीं पालता। भक्त जिस किसी भी प्रतीक को पूजते हैं वे परमात्मा की ही आराधना करते हैं। अपने मार्ग पर दृढ़ रहना चाहिए।
-स्वामी विवेकानन्द 26 मई, 1900,
सेनफ्रांसिस्को व्याख्यान से
स्वार्थ भावना से ऊपर उठाती गीता
भगवद्गीता हमें तीन परम मार्ग बताती है- ज्ञान मार्ग, प्रेम मार्ग और कर्म मार्ग। गीता निष्काम कर्म का पाठ पढ़ाती है। सत्य और धर्म की खोज का आशय यह नहीं है कि व्यक्ति कर्म करना छोड़ दे। अहम में व्यक्ति में यह चेतना नहीं रहती कि उससे बाहर भी दुनिया है लेकिन स्व की भावना में वह दूसरों की भी चिन्ता करता है। यदि हम निष्क्रिय या कर्महीन हो जाएंगे तो आत्मा की मुक्ति नहीं हो सकती। कोई भी व्यक्ति ठोस कार्य तभी कर सकता है जब वह महसूस करे कि दुनिया वास्तविक है और उसका अहम झूठा है। कम मात्रा में स्व का भाव स्वार्थी बनाता है लेकिन व्यापक रूप से यही स्व की भावना सारे संसार के साथ आत्मीयता की अनुभूति कराती है। यही स्व की भावना विस्तार लेकर अनेक के साथ एक के ऐक्य भाव की चेतना को साकार करती है।
-रवीन्द्रनाथ टैगोर
'साहित्यिक अवधारणाएं' से)
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