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वह मात्र 12 वर्ष की है। कुछ समय पहले तक उसका नाम था काजल भील और वह हिन्दू थी। अब उसे मुसलमान बना लिया गया है और नाम रखा गया है सायरा फातिमा। जब तक वह हिन्दू थी उन्मुक्त रहती थी, खेलती-कूदती थी, अपने माता-पिता की लाडली थी। अब वह सिर से पैर तक बुर्के से ढकी रहती है, सहमी रहती है। आखिर है तो वह बच्ची ही। इस कारण कभी कोई गलती हो जाती हो जाती है तो उसका 25 वर्षीय शौहर उसको बुरी तरह पीटता है। दर्द के कारण वह ठीक से चल भी नहीं पाती है, इसके बावजूद वह ससुराल वालों की ख्वाहिशें पूरी करने के लिए दिन-रात दौड़ती रहती है। उसके सामने इसके अलावा और कोई चारा नहीं रह गया है। उसकी आवाज न तो पाकिस्तान की सरकार सुनती है, न वहां की कोई अदालत सुनती है, न वहां का मीडिया सुनता है और न ही वहां के कथित मानवाधिकारी उसकी लड़ाई लड़ने को तैयार हैं। वह पाकिस्तान के मटियारी जिले की रहने वाली है। कुछ दिन पहले ही कुछ मुसलमान लड़कों ने राह चलते उसका अपहरण कर लिया था। इसके बाद उसे जबरन मुसलमान बनाया गया और एक मुसलमान लड़के से निकाह कर दिया गया।
ऐसी दु:खद दास्तान सिर्फ काजल की ही नहीं है। पाकिस्तान में ऐसी सैकड़ों हिन्दू बच्चियां हैं। कुछ वर्ष पहले रिंकल कुमारी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। इतिहासकार सुरेन्द्र कोछड़ कहते हैं, 'गत तीन वर्ष में पाकिस्तान में हिन्दुओं और ईसाइयों की लगभग 1000 लड़कियों को जबरन इस्लाम कबूल करावाया गया है। इनमें 700 ईसाई और 300 हिन्दू लड़कियां थीं। पाकिस्तानी हिन्दू सोसायटी द्वारा विभिन्न अदालतों में प्रस्तुत दस्तावेजों के अनुसार पाकिस्तान में हर माह 14 से 25 वर्ष की 22 से 25 हिन्दू-ईसाई लड़कियों का अपहरण होता है और उन्हें मुसलमान बनाया जाता है। पाकिस्तान के विभिन्न शहरों के पुलिस थानों में ऐसे सैकड़ों मामले दर्ज हैं, जिनमें लड़कियों से दुष्कर्म किया गया और उन्हें इस्लाम कबूल करवाया गया। दु:ख तो इस बात का है कि आज तक किसी भी अदालत ने इन मामलों में हिन्दू लड़कियों की आयु या उनकी निजी इच्छा जानने का प्रयास नहीं किया।'
हिन्दू बने रहने और अपनी जान बचाने के लिए पाकिस्तान से आकर दिल्ली में रहने वाले रमेश ने बताया, 'अब दुनिया में पाकिस्तान को छोड़कर और कहीं भी लोगों को गुलाम बनाकर नहीं रखा जाता है। पाकिस्तान के जमींदारों की शान गुलामों के बिना बढ़ती ही नहीं है। गुलामों में ज्यादातर गरीब हिन्दू हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी हिन्दुओं से गुलामी करवाई जा रही है। उनके साथ जानवरों से भी बुरा हाल किया जाता है। पशुओं को तो गले में रस्सी बांधकर रखा जाता है, लेकिन गुलाम हिन्दुओं को बेडि़यों से जकड़कर रखा जाता है। जब उनसे कोई काम लेना होता है तब उन्हें खोला जाता है। कथित ऊंची जाति के गुलाम इस्लाम कबूल कर गुलामी से मुक्ति पा लेते हैं, लेकिन छोटी जाति के गुलामों को मुसलमान भी नहीं बनाया जाता है। कहा जाता है कि वे लोग सूअर का मांस खाते हैं, इसलिए उन्हें मुसलमान बनने की भी इजाजत नहीं दी जाती है। वहां हिन्दुओं को शारीरिक, मानसिक, धार्मिक, आर्थिक हर तरह से परेशान किया जाता है। हिन्दुओं को अपने किसी परिजन के निधन पर रोने भी नहीं दिया जाता है और शव को जबरन दफना दिया जाता है। काम कराकर मजदूरी भी नहीं दी जाती है। जो लोग परेशानी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं या और कहीं नहीं जा पाते हैं वे इस्लाम कबूल रहे हैं। इसलिए अब वहां हिन्दुओं की आबादी एक प्रतिशत से कुछ ही अधिक रह गई है।' नई दिल्ली के बिजवासन में पाकिस्तानी हिन्दुओं को शरण देने वाले नाहर सिंह कहते हैं कि हिन्दुओं के मानवाधिकार की बात करने वाले लोग एकजुट हों। उल्लेखनीय है कि नाहर सिंह ने तीन वर्ष पहले अपने 30 कमरों वाले मकान को किराएदारों से खाली करवाकर पाकिस्तान से आने वाले हिन्दुओं को सौप दिया था। अब तक उन्होंने 918 पाकिस्तानी हिन्दुओं को शरण दी है। यही नहीं उनके लिए उन्होंने रोजगार का इन्तजाम भी कुछ दानी सज्जनों और स्वयंसेवी संस्थाओं के जरिए से किया हुआ है, लेकिन उन हिन्दुओं को 'वर्क परमिट' नहीं मिलने से उन्हें पुलिस वाले और अन्य सरकारी महकमों के लोग परेशान करते हैं। जिस घर में वे बेचारे रहते हैं बिल न भरने के कारण उस घर की बिजली भी काट दी गई है। नाहर सिंह हिन्दुओं से निवेदन करते हैं कि वे अपने इन हिन्दू भाइयों की मदद करने के लिए आगे आएं।
खाड़ी के देशों में हिन्दुओं का हाल
ह्यूमन राइट्स डिफेंस इन्टरनेशनल (एच.आर.डी. आई.) के महामंत्री राजेश गोगना कहते हैं, 'ऐसे तो पूरी दुनिया में हर मत-पंथ के लोगों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि विश्व में हिन्दुओं के मानवीय अधिकार सबसे अधिक छीने जा रहे हैं। मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में पाकिस्तान और बंगलादेश एक ही देहरी पर खड़े हैं। अफगानिस्तान, श्रीलंका, मलेशिया, भूटान, नेपाल, खाड़ी के देश-इन सबमें भी जितना हिन्दुओं के अधिकारों का हनन हो रहा है, उतना और किसी समुदाय का नहीं। खाड़ी के देशों में 40 से 60 लाख भारतीय काम करते र्है। इनमें 60 प्रतिशत हिन्दू और 40 प्रतिशत मुसलमान हैं। राष्ट्र संघ से जुड़े अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) के अनुसार खाड़ी के देशों में रहने वाले भारतीयों को प्रवासी और श्रमिक होने के नाते जो अधिकार मिलने चाहिए वे उन्हें नहीं मिलते हैं। खाड़ी के देशों में रहने वाले हिन्दुओं को कोई धार्मिक अधिकार नहीं है। वे अपने पास न किसी देवी-देवता की मूर्ति रख सकते हैं और न ही उनकी पूजा कर सकते हैं। जब भी कोई हिन्दू सऊदी अरब या खाड़ी के किसी अन्य देश के हवाई अड्डे पर पहुंचता है तो उसका मोबाइल फोन जांचा जाता है कि कहीं उसके अन्दर किसी देवी-देवता का चित्र तो नहीं है। यदि किसी के मोबाइल में चित्र पाया जाता है तो उसे तुरन्त हटा दिया जाता है। यही नहीं किसी को तो इतनी छोटी सी बात पर बड़ी सजा भी दे दी जाती है। रोजे के दिनों में कोई हिन्दू पानी पीते पकड़ा जाता है तो उसे कोड़े मारे जाते हैं। यदि खाड़ी के देशों में किसी हिन्दू की मौत हो जाती है तो वहां उसका अन्तिम संस्कार भी नहीं हो सकता है। जिन मृतकों के परिजन शव को भारत लाने का खर्च वहन कर सकते हैं वे तो ले आते हैं और यहां अन्तिम संस्कार करते हैं, लेकिन किसी गरीब मृतक श्रमिक के साथ ऐसा नहीं हो पाता है। उनके परिजन शव लाने का खर्च नहीं जुटा पाते हैं। इस कारण खाड़ी के देशों में इस समय लगभग 1000 श्रमिकों के शव विभिन्न शव गृहों में पड़े हुए हैं। आंकड़े बताते हैं कि खाड़ी के देशों में सालाना करीब 4000 भारतीय आत्महत्या करते हैं। इसके पीछे उनके मानवीय अधिकारों का हनन एक बहुत बड़ा कारण है।'
हिन्दुओं के लिए नरक बना बंगलादेश
1972 में भारतीय रणबांकुरों की शहादत से जन्मा बंगलादेश भी हिन्दुओं के मानवाधिकारों का हनन करने में पीछे नहीं है। ढाका के एक सामाजिक कार्यकर्ता चंचल मण्डल (परिवर्तित नाम) कहते हैं, 'यहां हिन्दुओं को कोई अधिकार है ही नहीं। चाहे बंगलादेश में किसी भी पार्टी की सरकार हो, हिन्दुओं को दहशत में रहना पड़ता है। जब चाहते हैं कट्टरवादी हिन्दुओं पर हमले कर देते हैं। उनकी दुकान, मकान, जमीन सब पर मुसलमान कब्जा कर रहे हैं। राह चलती महिलाओं और लड़कियों को मुसलमान उठा लेते हैं। जब हिन्दू विरोध करते हैं तो उन् हें उन्मादियों और बेलगाम भीड़ का सामना करना पड़ता है। पिछले सिर्फ 5 वर्ष में बंगलादेश में 300 से अधिक मन्दिरों को या तो आग के हवाले किया गया है या फिर ढहा दिया गया है। विभिन्न पुलिस थानों में दर्ज आंकड़ों के अनुसार एक वर्ष में 240 हिन्दू महिलाओं और लड़कियों की हत्या की गई है। करीब 450 हिन्दू महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ है। दहशत के मारे हिन्दू अपनी लड़कियों को पढ़ने के लिए नहीं भेज रहे हैं। इस कारण विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ने वाली हिन्दू लड़कियों की संख्या कम हो रही है।' इन बातों का समर्थन सिल्चर (असम) से प्रकाशित होने वाले बंगला दैनिक 'जग संख' के पूर्व सम्पादक अतिन दास भी करते हैं। वे कहते हैं, 'इस समय बंगलादेश की आबादी करीब 16 करोड़ है। इनमें लगभग डेढ़ करोड़ हिन्दू हैं। इतनी बड़ी आबादी के लिए कोई नागरिक अधिकार नहीं है। इस कारण वहां के हिन्दू पलायन कर रहे हैं। 1972 में बंगलादेश में 22 प्रतिशत हिन्दू थे। अब केवल 9 प्रतिशत रह गए हैं। देश विभाजन के समय भारतीय नेतृत्व ने कहा था कि वह पाकिस्तानी हिस्से में रहने वाले हिन्दुओं की रक्षा वहां की सरकार नहीं कर पाएगी तो भारत सरकार उनकी रक्षा सुनिश्चित करेगी, लेकिन भारत सरकार ने अपने उस वायदे को नहीं निभाया। इसका खामियाजा बंगलादेश और पाकिस्तान दोनों देशों के हिन्दुओं को भुगतना पड़ रहा है। यदि भारत उन हिन्दुओं की मदद नहीं करेगा तो आने वाले कुछ वर्षों में ये दोनों देश पूरी तरह हिन्दू-विहीन हो जाएंगे। इसका नुकसान भारत को भी उठाना पड़ेगा।'
भूटान से निकाले गए
बौद्ध मतावलम्बी देश भूटान कहता है कि वह अहिंसक देश है, पर हिन्दुओं को लेकर उसका भी रवैया हिंसक ही रहा है। मालूम हो कि भूटान में 15 वर्ष पहले 1,40,000 हिन्दू थे। भूटान का हर छठा आदमी हिन्दू था, लेकिन अब वहां भी हिन्दू नाम मात्र के रह गए हैं। कुछ वर्ष पहले वहां के हिन्दुओं को निष्कासित कर दिया गया था। वे सब भारत की ओर बढ़े, तो भारत ने उन्हें नेपाली मूल का बताकर नेपाल की ओर जाने को कहा। उनमें से 1,20,000 हिन्दुओं को राष्ट्र संघ ने शरणार्थी का दर्जा दिया हुआ है। वे लोग अभी भी शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं।
नेपाल में आत्मविश्वास हुआ कम
दुनिया के एकमात्र हिन्दू राष्ट्र नेपाल को सेकुलर बनाने से वहां के धर्मप्राण हिन्दुओं का आत्मविश्वास कम हुआ है। यह भी मानवाधिकार का हनन है। नेपाल अन्तरराष्ट्रीय षड्यंत्र का शिकार हुआ है। उन्हीं लोगों ने नेपाल को सेकुलर बनाने की साजिश रची थी, जो लोग विभिन्न देशों में हिन्दुओं के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं। ऐसे लोगों को दुनिया के 50 से अधिक इस्लामी देश तो पसन्द हैं, लेकिन उन्हें एक हिन्दू राष्ट्र अखर रहा था।
मलेशिया में दुत्कार
मलेशिया में भी हिन्दुओं की हालत ठीक नहीं रह गई है। करीब 30 वर्ष पहले वहां की सरकारी नौकरियों में हिन्दुओं की भागीदारी 20 से 25 प्रतिशत थी। अब केवल 5 से 6 प्रतिशत हिन्दू ही सरकारी नौकरी में हैं। कुछ वर्ष पहले मलेशिया सरकार ने नियम बनाया था कि केवल 'भूमिपुत्रों' को ही सरकारी नौकरी दी जाएगी। भूमिपुत्र केवल मुसलमानों को या मुसलमान बनने वालों को ही माना जाता है। इस तरह हिन्दुओं को वहां की सरकारी नौकरियों से दूर किया गया है। इस समय मलेशिया में लगभग 10 प्रतिशत हिन्दू हैं। पिछले 300 वर्ष से मलेशिया में हिन्दू रह रहे हैं। जिन हिन्दुओं की 12-13 पीढि़यां मलेशिया में खप गईं, उन्हें भूमिपुत्र नहीं माना जा रहा है। इससे बड़ा मानवाधिकार का उल्लंघन और क्या हो सकता है? पहले मलेशिया के हिन्दू बच्चे चिकित्सा की पढ़ाई के लिए भारत आते थे, पर अब उन्हें पाकिस्तान भेजा जाता है। यह भी हिन्दुओं को प्रताडि़त करने के लिए ही किया गया है।
अफगानिस्तान से कहां गए हिन्दू
तालिबान के उभरने से पहले अफगानिस्तान में लगभग 2,00000 हिन्दू और सिख थे। वहां की अर्थव्यवस्था में इन दोनों समुदायों की अच्छी पकड़ थी। अब वहां भारतीय दूतावास में काम करने वाले ही हिन्दू हैं। बाकी हिन्दू कहां गए? तालिबान ने मात्र डेढ़ दशक में अफगानिस्तानी हिन्दुओं का सफाया कर दिया। उन्हीं लोगों की जान बची, जो वहां से पलायन कर गए।
गम हो या खुशी, मन्दिर पर पत्थरबाजी
लगभग ढाई दशक से अपने ही देश में विस्थापितों की जिन्दगी जी रहे कश्मीरी हिन्दुओं के मानवाधिकारों का हाल एक विस्थापित और कश्मीरी एवं हिन्दी की लेखिका डॉ. बीना बुदकी इन शब्दों में बताती हैं,'जो लोग उस समय विस्थापित हुए थे अब वे अधेड़ावस्था को पार कर गए हैं, लेकिन उनके मन से अभी भी कश्मीर निकल नहीं रहा है। चिन्ता और तनाव में जिन्दगी गुजारने के कारण वे लोग बीमार रहने लगे हैं। जिन विस्थापितों के बच्चे उस समय छोटे थे अब वे बड़े हो गए हैं। कड़ी मेहनत करके उन लोगों ने रोजगार के साधन तो ढूंढ लिए हैं, पर वे कश्मीरियत से दूर हो गए हैं। हमारी एक अलग संस्कृति है। शरणार्थी जीवन में उसे हम लोग अपने बच्चों में नहीं रोप पाए। हमारे बच्चों को कश्मीरी भाषा और शारदा लिपि की जानकारी नहीं है। जो समाज अपनी संस्कृति से ही कट जाए उसकी पहचान मिट जाती है। यह चिन्ता कश्मीरियों को चुभ रही है।'
कुछ ऐसी ही चिन्ता जम्मू-कश्मीर धर्मार्थ ट्रस्ट के महाप्रबंधक रोशनलाल भान की भी है। वे कहते हैं,'कश्मीर घाटी में हमारे जो मन्दिर बचे हैं उन पर भी जिहादियों की नजर है। गांदरबल का प्रसिद्ध क्षीर भवानी मन्दिर उनको बहुत ही खटकता है। चाहे आतंकवादी किसी को मार दें, या सेना के साथ हुई मुठभेड़ में कोई आतंकवादी मारा जाए, क्रिकेट मैच में भारत से पाकिस्तान हार जाए या पाकिस्तान से भारत, हर हाल में मन्दिर पर पत्थर बरसाए जाते हैं। सुरक्षा के लिए मन्दिर परिसर के अन्दर हर वक्त केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (सी.आर.पी.एफ.) के 80 जवान तैनात रहते हैं। बाहर से पत्थर मारने के बावजूद इन जवानों को मन्दिर परिसर से बाहर जाने की अनुमति नहीं है। यह हिन्दुओं के मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं है तो क्या है?' श्रीनगर में सरकारी नौकरी करने वाले जीतराम रैना (परिवर्तित नाम) की पीड़ा और भी दु:खदायी है। वे कहते हैं, 'श्रीनगर और उसके आसपास बहुत मुश्किल से 1000 हिन्दू रहते होंगे। उनमें से ज्यादातर सरकारी नौकरी में हैं। इसलिए यहां रहना हमारी मजबूरी है। यदि नौकरी न करें तो परिवार कैसे पालेंगे। हमारे बच्चे जम्मू के शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं और हम लोग यहां सुरक्षा बलों के पहरे में। सुरक्षा घेरे में हम लोगों को दफ्तर ले जाया जाता है और वहां से लाकर सुरक्षा घेरे में रखा जाता है। यही हमारी जिन्दगी रह गई है। जो स्वतंत्र होता है उसी के मानावाधिकार होते हैं। हम तो स्वतंत्र हैं ही नहीं।'
67 वर्ष बाद भी घर नहीं
1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से शरणार्थी के रूप में आकर जम्मू-कश्मीर में बसने वाले हिन्दुओं के मानवाधिकार की चिन्ता शायद किसी को नहीं है। यदि होती तो वे लोग इतने वषोंर् के बाद भी बेघर नहीं होते। विधानसभा और निकाय चुनावों में मतदान करने से उन्हें रोका नहीं जाता। 'वेस्ट पाकिस्तानी रिफ्यूजी काउंसिल-1947' के अध्यक्ष लब्बाराम गांधी कहते हैं, 'भारत में आने वाले बंगलादेशी घुसपैठिए यहां मतदान कर सकते हैं, पर हमें वह अधिकार नहीं है। हमें नागरिकता भी नहीं दी जा रही है। सरकारी योजनाओं से भी हमें बाहर रखा जाता है। पिछले दिनों बाढ़ आई। स्थानीय प्रशासन ने हमारे लोगों की यह कहते हुए मदद नहीं की कि तुम लोग यहां के नागरिक नहीं हो। क्या भारत में भी हिन्दू के नाते रहना पाप है?'
काजल की आंखों में मानवता में विश्वास रखने वाले पूरी दुनिया के हिन्दुओं का दर्द है। जब तक पूरी मानव जाति इस दर्द को महसूस नहीं करेगी, मानवाधिकार की लड़ाई अधूरी रहेगी। -अरुण कुमार सिंह
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