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भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र जिसमें आज असम, अरुणाचल, मिजोरम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा तथा नागालैण्ड आता है, समूचे शेष भारत भूमि के समान हिन्दू संस्कृति के अभिन्न, अटूट तथा अपरिहार्य अंग रहा है। इस क्षेत्र में जहां भी उत्खनन हुए, हिन्दू संस्कृति के अनेक अवशेष प्राप्त हुए हैं। उदाहरण के लिए अरुणाचल प्रदेश के भीष्मनगर, मालिनीधान, किरथनगर, रुक्मिणी नगर नामक पर्वत इसके प्रमाण हैं। यह समूचा क्षेत्र रामायण तथा महाभारत के अनेक प्रसंगों से जुड़ा है। इस पूरे क्षेत्र में रामकथा का प्रचार रहा। मिजोरम का वर्णन करते हुए 1997 में एक अंग्रेज अधिकारी मेजर शेक्सपीयर ने कुल 31 पृष्ठों की अपनी पुस्तक में 13 पृष्ठ राम-लक्ष्मण के जीवन पर दिये हैं। मणिपुर में रामायण, हनुमान चालीसा आज भी प्रसिद्ध है। नागालैण्ड के कौडिन्य और काम्बो संतों ने, न केवल उक्त क्षेत्र में बल्कि मलेशिया, कम्पूचिया, थाइलैण्ड तथा इण्डोनेशिया में रामकथा का प्रचार किया। इसी भांति यह सम्पूर्ण क्षेत्र महाभारतकालीन भारत से पूरी तरह से अभिन्न अंग के रूप में रहा। महाभारतकालीन अनेक प्रसिद्ध विवाह संबंधों जैसे भगवान कृष्ण का रुक्मिणी से विवाह, अर्जुन का मणिपुर के महाराजा की कन्या चित्रांगदा या भीम का हिडिम्बा से विवाह इससे जुड़े हैं। यहां की अनेक जातियां अपना रक्त संबंध महाभारतकालीन महत्वपूर्ण पात्रों से बतलाती हैं। उदाहरणत: असम की बोडो तथा डिमासा जाति स्वयं को हिडिम्बा तथा भीमपुत्र घटोत्कच की संतान मानते हैं। इसी भांति असम की कार्बी जनजाति अपने को बालि और सुग्रीव की वंशज मानती है। त्रिपुरा की त्रिपुरी जनजाति ययाति के पुत्र की संतान बतलाते हैं। कालान्तर में भारत के समस्त विदेशियों के साथ संघर्षों में यहां के लोगों ने साहस तथा निर्भीकता का अद्भुत परिचय दिया है। वस्तुत: भौगोलिक स्थिति, सामाजिक तथा संचार साधनों की कमी ने इस क्षेत्र से परस्पर दूरी को बढ़ाया।
नागाभूमि अथवा नागालैण्ड की जनजातियां भारत की वीर, लड़ाकू तथा पराक्रमी जनजातियां रहीं। यहां लगभग एक दर्जन जातियां विशिष्ट समूह में बंटी हैं जैसे गारो, खासी, जयन्ती, मिजो, कूकी, कछारी, मिसिर एवं दाफला आदि। सामान्यत: पूर्वोत्तर की समस्त जातियों को तीन भागों में बांटा गया है। ऐसे क्षेत्र जो ब्रिटिश शासन से अछूते रहे, दूसरे जो कालान्तर में शीघ्र ही ब्रिटिश नियंत्रण में आ गये और तीसरे नागा क्षेत्र के लोग जो ब्रिटिश शासन से संघर्ष करते रहे। किन्तु 1914 के पश्चात् ब्रिटिश सरकार तथा ईसाई मिशनरियों के कुचक्रों से यह ईसाई बाहुल्य तथा इस स्वतंत्र भारत का विरोधी क्षेत्र बन गया।
उपरोक्त कथन अर्ध सत्य है। एक प्रसिद्ध नागा विद्वान तासीले-एन जोलियांग ने अपने एक लेख में लिखा है कि यदि नागा समाज के पूर्व इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो यह अत्यन्त प्रेरणादायी, भावात्मक तथा वीरत्वपूर्ण इतिहास की गौरवगाथा है। सामान्यत: अमरीकी, ब्रिटिश तथा अन्य विदेशी ईसाई पादरियों ने नागाओं का वीभत्स वर्णन किया है। उन्हें अशिष्ट मूर्तिपूजक, बर्बर तथा हृदयविहीन बताया है। उन्हें शैतान के पुजारी तथा अत्यन्त गंदा बताया है। ब्रिटिश इतिहासकारों ने उन्हें भारत से अलग करके दिखलाया है। ब्रिटिश सरकार ने समय-समय पर उनको फुसलाने का भी प्रयत्न किया है। (विस्तार के लिए देखें विमर्श, अक्तूबर-दिसम्बर, 2010, पृ. 64) भारत के कुछ लोग आज भी नागाओं को नग्न रहने वाले, अत्यंत खूंखार मानते हैं, जो पूर्णत: भ्रामक तथा असत्य है।
हरक्का पंथ की मान्यताएं
सामान्यत: हरक्का पंथ जो नागा जनजाति का एक प्रमुख पंथ है, इसकी मान्यताएं, अपने वैशिष्ट्य के साथ हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के अनुरूप है। हरक्का का शाब्दिक अर्थ 'पवित्र' अथवा 'शुद्ध' है। यह नागा पंथ ईश्वर में पूर्ण आस्था रखता है तथा ईश्वरीय राज्य को आवश्यकता रहित तथा पूर्णत: दु:खों से अलग मानता है। मृत्यु के पश्चात भी वे व्यक्ति पुन: जन्म ले सकते हैं जिन्होंने पहले कोई पाप न किया हो।
हरक्का पंथ चार कालों का तथा सृष्टि की रचना में विश्वास रखता है। पहला काल अथवा युग 'सतयुग' तथा जब ईश्वर न था जिसे 'तिंगवांग' के नाम से पुकारा जाता है। उसने अपने एक दूत बंगलावांग को विश्व पर आधिपत्य के लिए भेजा जबकि सृष्टि जलमय थी तथा केवल एक औषधि वृक्ष था। उसने सात दिनों में विश्व की भौतिक रचना की, उसने क्रमश: प्रत्येक दिन सूर्य, चन्द्रमा, तारे, आकाश, पृथ्वी, सभी प्रकार के जीवों तथा सातवें दिन विश्व रचना पूरी कर दी। उसने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए पहला शब्द खोम बोला। अत: वह पृथ्वी पर पहला शासक था जो अपनी पत्नी तथा पुत्री के साथ रहता था। हरक्का पंथ में दूसरे काल को त्रेता माना गया है। इस काल में बंगलावांग, अपने दामाद से एक कुश्ती युद्ध में हार गया था तथा शासन छोड़ दिया। दूसरे काल में अमंग नामक शासक विश्व का सबसे धनी एवं प्रसिद्ध शासक था। इसी काल में विश्व के अनेक प्रसिद्ध रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं- जन्म, मृत्यु, जंगलों को काटना,चाय की खेती, त्योहार, विवाह आदि प्रथाएं बनीं। अमंग ने एक विशेष भोज में सभी जीवों को बुलाया। इस पंथ की मान्यता है कि इसी काल में ईश्वर प्रदत्त हरक्का पंथ का आविर्भाव हुआ। तीसरा युग द्वापर था। अभी तक मनुष्य और देवता एक ही भाषा बोलते थे। इस काल में दैवीय शक्ति से युक्त आध्यात्मिक पुरुष हीराकंडीगपेन विश्व का शासक बना। उसे द्वापर का मसीहा माना जाता है। वह अनेक मनुष्यों के दु:खों तथा कष्टों का त्राता था। अभी तक इस पंथ में किसी प्रकार की पशु बलि नहीं दी जाती थी।
चौथा युग कलिकाल आया। हीराकंडीगपेन की मृत्यु के पश्चात दैत्यों का आधिपत्य हो गया। विविध प्रकार की पशु बलि दी जाने लगी। प्राकृतिक देवताओं- सूर्य, चन्द्रमा, तारों, हवा, पानी, पृथ्वी, खेती, विशाल, वृक्ष, बड़े पत्थरों, सर्प, युद्ध आदि की बलि दी जाने लगी। पुरोहित व्यवस्था पूर्णत: दूषित हो गई, समाज में अनेक दोष आये।
हरक्का पंथ में सुधार आन्दोलन
वर्तमान काल में जादोनाग एवं रानी मां गाइदिन्ल्यू ने इस पंथ में अनेक सुधार किये। कबुआ जनजाति में अतीत काल से यह भविष्यवाणी प्रचलित थी कि उनके समुदाय में एक मसीहा का जन्म होगा जो उनके संकट दूर करेगा। कबुआ जनजाति में जन्मे हैफज जादोनांग (1905-1931) ऐसे ही देशभक्त, क्रांतिकारी तथा आध्यात्मिक पुरुष थे। बचपन में ही सोते-सोते समधिस्थ हो जाते, भगवान से बातें करते, उनकी भविष्यवाणी सच होती। उन्होंने अनेक लोगों को उपचार से रोग मुक्त किया। तत्कालीन समय में कबुआ या कच्चा नागा परस्पर लड़ते रहते थे। उन्होंने काबुल जनजातियों के तीन कबीलों में एकत्व स्थापित किया।
उन्होंने जेमी से ज लेकर लिंगमयी से लिग लेकर तथा रंागमयी से रांग लेकर जलियांगरांग शब्द व क्षेत्र बनाया। कबुआ जनजाति में आत्मविश्वास पैदा किया तथा अंधविश्वासों, अनेक देवी-देवताओं की पूजा की अनेक रूढि़यों को दूर किया। लोगों में यह धारणा फैल गई कि जादोनांग ने सर्वशक्तिमान ईश्वर तिंगवांग के दर्शन किये हैं। मणिपुर के उत्तर में असम की सीमा पर कछार जिले की पवित्र भुवन पहाडि़यों में प्राचीन नागाओं के धर्म लेख मिले। पढ़े-लिखे न होने पर भी जादोनांग ने इन्हें उतारा तथा धर्म प्रचार किया। इन लेखों को पद्मश्री श्री हरिभाऊ वाकणकर ने गुप्त ब्राह्मणी, अशोक ब्राह्मणी तथा शंख लिपि का होना बतलाया। अनेक धर्मलेखों को ब्रिटिश सरकार ने नष्ट कर दिया परन्तु इसके तीन पृष्ठों की फोटो प्रतिलिपि आज भी प्रसिद्ध विद्वान श्रीकृष्ण दामोदर सप्रे के पास उपलब्ध है। जादोनांग ने हरक्का पंथ की सुरक्षा परम्परागत पहचान, अंग्रेजों से टकराव तथा ईसाई पादरियों के कुप्रचार को रोका। इस पंथ के द्वारा प्रचलित सामाजिक कुरीतियों का खंडन किया। भुवन गुफा तथा सरोवर को महत्व दिया। उन्होंने सरल सहज भाषा में पंथ के अनुयायियों का मार्ग प्रशस्त किया। उदाहरणत: जादोनांग ने उपदेश में कहा, हे भगवान अदृश्य दुष्ट शक्तियों से मेरी रक्षा करो तथा न्यायपूर्ण जीवन की ओर मुझे अग्रसर करो। मैं तुम्हारी दया पाने तुम्हारे चरणों में आया हूं। तुम जैसा चाहो, वैसा मैं इस जीवन में अथवा इसके बाद बनूं। जादोनांग ने नागाओं में अनेक सामाजिक तथा धार्मिक सुधार किये, पुरोहित पद्धति में सुधार, किसी भी प्रकार की बलि प्रथा का निषेध, विवाह प्रथा में सुधार तथा अनेक अंधविश्वासों को दूर किया। ग्राम-ग्राम में मंदिरों का निर्माण किया। अनेक बंगाली, असमी तथा मणिपुरी भी इस परम्परायुक्त शुद्ध धर्म की धारणाओं से प्रभावित हुए।
1931 में जादोनांग के बलिदान के पश्चात इस पंथ का नेतृत्व जादोनाग की चचेरी बहन, इतिहास प्रसिद्ध ब्रिटिश साम्राज्य तथा ईसाई पादरियों से टक्कर लेने वाली रानी मां गाईिदन्ल्यू (1915-1993) ने किया। एक विद्वान जगमल सिंह ने अपनी पुस्तक में उसके बहुमखी योगदान का वर्णन किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व वह ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता के लिए, जनजातीय धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए ईसाईकरण से और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र विरोधी भूमिगत नागाओं से राष्ट्रीय एकता अखण्डता की रक्षा के लिए संघर्ष करती रहीं। (देखें, पूर्वोत्तर के स्वतंत्रता सेनानी, (दिल्ली, 2009) पृ. 66)। वह हरक्का पंथ की आध्यात्मिक गुरु व संचालिका बनीं। जहां जादोनांग ने पुरुषों की हरक्का सेना बनाई थी, उन्होंने महिलाओं की सेना खड़ी की। रानी मां गाईिदन्ल्यू ने प्रारंभ में ही घोषित किया कि हम एक स्वतंत्र देश हैं और गोरों को हम पर राज करने का कोई अधिकार नहीं है। हम सरकार को कोई कर नहीं देंगे तथा बंधुआ मजदूरी व जबरन कुलीगिरी जैसे गलत कानून को नहीं मानेंगे। उनके नेतृत्व में मणिपुर के पश्चिमी जनपद, दक्षिणी नागालैण्ड और असम के उत्तरी कछार में स्वतंत्रता की मांग उठी।
इसके साथ गाईिदन्ल्यू सर्वाधिक लोकप्रिय हरक्का पंथ में देवी के अवतार के रूप में मानी जाने लगी थीं, यद्यपि गाईिदन्ल्यू ने स्वयं इसका विरोध किया था। उसने परम्परागत नागा प्रथाओं की रक्षा की। वह हजारों वर्षों से चले आ रहे धर्म से अलगाव नहीं, बल्कि उसका शुद्धीकरण चाहती थी। उन्होंने यह भी कहा कि दूसरों को धर्म के नाम पर धोखा या मतांतरण न करो। पंथ के लिए अनेक भजनों, गीतों नृत्य नाटिकाओं का भी उपयोग किया। संघर्षमय जीवन के पश्चात 14 वर्षों तक जेल में रहने के पश्चात जब 1956 में ईसाई पादरियों तथा विद्रोही नागाओं ने उत्पात मचाया। वे धर्म की रक्षार्थ पुन: भूमिगत रहकर सतत् संघर्ष करती रहीं।
सचमुच में जादोनांग तथा रानी मां गाईिदन्ल्यू के हरक्का पंथ में शुद्धि के प्रयास हिन्दू धर्म व संस्कृति के अक्षुण्ण प्रयास ही थे। – डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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