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सर्दी में अलाव ऐसी चीज है जिससे दूर होने का मन नहीं करता। सिर्फ हाथ सेकना अलग बात, इसका मजा उनसे पूछिए जिन्हें इसकी लत है। पांव अकड़ जाएं, काम अटक जाएं, उनकी बला से। घंटों निकल जाते हैं बैठे-बैठे। ठंड बढ़ी या आंच हल्की पड़ी तो एक और लकड़ी सरका दी…बेकार लकडि़यां खत्म तो घास-फूस, कागज-पत्तर, और जो भी मिला…आग नहीं बुझनी चाहिए। अगर भूले से किसी ने अलाव पर मिट्टी डाल काम-धाम में जुटने की नसीहत दी तो वह सबकी आंखों का कांटा। हटाओ, अलाव सुलगता रहेगा!! दिसंबर का महीना है, शीत सत्र चल रहा है और खुद पक्षकार ने अयोध्या के अलाव पर मिट्टी डाल दी! हाशिम अंसारी आजकल कइयों की आंख का कांटा हैं। उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक कल्याण व मुस्लिम वक्फ मंत्री का कहना है कि हाशिम के बयान का, उनके पैरवी से अलग होने का मामले पर कोई असर नहीं पड़ेगा। हटाओ, अलाव सुलगता रहेगा!!
हाशिम के बयान और आजम की प्रतिक्रिया को व्यक्तिगत आक्षेपों की बजाय व्यापक अर्थ में देखना जरूरी है। इसलिए पहले तो आरोप की सत्यता और मौके के चयन को देखना होगा। अरसे से मामले की लगातार पैरवी कर रहा सीधा-सादा व्यक्ति मौके के मुताबिक पलट जाए यह संभव ही नहीं। हां, यह योग्यता राजनीतिज्ञों के लिए आरक्षित हो सकती है। हाशिम का कथन समय के साथ उपजी समझ का उदाहरण है। उन्होंने इस मामले से जुड़े राजनीतिज्ञों को ध्यान से तोला है। एक पलड़े में प्रतिबद्धता और दूसरे में मुद्दे से जुड़ा मुनाफा। अगर इस कसौटी पर आजम जैसे लोग खारिज हो जाते हैं तो यह हाशिम की निष्ठा की बजाय सेकुलर वोटों के सौदागरों की संदिग्धता का सवाल है।
दूसरी बात है हाशिम की बातों में छलका रामलला का भावनात्मक उल्लेख। यही सबसे महत्वपूर्ण बात है। आज लंबी मुकदमेबाजी से थके हाशिम के मन में उच्च न्यायालय के तथ्यात्मक निर्णय के बाद यदि परिवर्तन की तरंग उठी है तो यह उनके अंतस का, नितांत निजी मामला है। उम्र के इस पड़ाव पर व्यक्ति किसी का दिल दुखाने के लांछन मात्र से भी मुक्त हो जाना चाहता है।
1992 में विवादित ढांचे के ढहने के बाद आज 2014 में यह समय उस गुरूर के ढहने का है जिसने भारतीय समाज को कभी एक होने, मिलकर सोचने का मौका ही नहीं दिया। सेकुलर ब्रिगेड के कथित इतिहासकार जो न्यायालय में झूठे पड़ गए, ऐसे कथ्य जिन्हें जिद के चलते तथ्य की तरह पेश किया जाता रहा, ऐसे नेता जिनका मुद्दे से ज्यादा माल बनाने पर ध्यान था, सबकी कलई समय और समाज की कचहरी में उतर चुकी है। हाशिम के बयान के बाद भारतीय जनता पार्टी पर जन भावनाएं भड़काने और राम के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगाने वालों की बोलती बंद है। कौन सियासत कर रहा था, कौन समाज की भावनाओं का प्रतिनिधित्व, अब सब साफ है।
अयोध्या के अलाव पर सेकुलर सियासत की रोटियां बहुत सिक चुकीं। समाज की आस्था पर सवाल उठाने वालों को, मुसलमानों को इस देश और संस्कृति के विरोध में खड़ा करने वालों को यह पता ही नहीं कि उनकी विषैली राजनीति कितना वक्त खा चुकी है। लेकिन, जनता सब जानती है। 1992 के बाद पैदा हुई एक पूरी पीढ़ी है जो आज मतदान की कतार में खड़ी होती है। 'युवाओं को राम से, हिन्दू धर्म से क्या लेना-देना,' इस सेकुलर तर्क को इन युवाओं ने खारिज किया है। इस तेजतर्रार पीढ़ी ने विवाद की कहानी नेताओं की जुबानी नहीं सुनी। तथ्य किताबों और इंटरनेट से खुद खंगाले हैं। सेकुलर बिरादरी का पूरा तमाशा बारीकी से देखा है और जिसने मतदान के जरिए उस पार्टी को बहुमत दिया है जिसके घोषणापत्र में समाज की भावनाओं का उद्घोष है।
बहरहाल, विवाद को दफनाना हो तो हाशिम के बयान की मुट्ठी भर मिट्टी काफी है। अलाव जलाए रखने, आंच का मजा लेते रहने की जिद कुछ लोगों को भारी पड़ सकती है। तथ्यों से साक्षात्कार के बाद भारतीय समाज सेकुलर सत्ता के आनंद के लिए अब कुछ भी नहीं फूंकने वाला, यह उसका निश्चय है।
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