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बाबरी मामले की करीब 55 साल से पैरवी कर रहे हाशिम अंसारी ने सार्वजनिक रूप से जब यह कहा कि, बस बहुत हुआ और अब वह न्यायालय में बाबरी मस्जिद मामले की आगे पैरवी नहीं करेंगे क्योंकि वह रामलला को आजाद देखना चाहते हैं। इससे मुस्लिम सियासत में हड़कंप मच गया। कारण हाशिम अंसारी ने उन करोड़ों रामभक्तों की भावना और आस्था को ही प्रकट करने का काम कर दिया जो अयोध्या जाते हैं और लोहे की सलाखों से घिरे रामलला को तिरपाल में बैठा पाते हैं। अपनी जन्मभूमि पर रामलला लोहे की सलाखों के बीच घिरे बैठे हैं तो उसका एक कारण कानूनी है तो दूसरा सुरक्षा से संबंधित है। कुछ वर्ष पूर्व सीमापार से आए आतंकवादियों ने रामजन्मभूमि पर फिदायीन हमला किया था लेकिन आतंकवादी मारे गए। इस हमले के बाद से जन्मभूमि की घेराबंदी और कर दी गई। लेकिन अयोध्या में मन्दिर निर्माण का मुद्दा कानूनी पेच में लंबे समय से फंसा है।
वैसे इलाहाबाद हाई उच्च न्यायालय 2010 में यह निर्णय दे चुका है कि जहां रामलला विराजमान हैं वह जन्मभूमि है लेकिन इसके बाद भी यदि लोहे की सलाखों के बीच रामलला बंधक से प्रतीत होते हैं तो उसकी वजह है अयोध्या मामले का अब सर्वोच्च न्यायालय में होना। सर्वोच्च न्यायालय में मामला चलेगा समय लगेगा। लिहाजा यह सवाल है कि रामलला आखिर कब तक कपड़े और तिरपाल से बने इस मन्दिर में बिराजे रहेंगे? रामलला कब तक सलाखों के बीच बंधक जैसी स्थिति में रहेंगे?
अंसारी के वक्तव्य ने एक बार फिर इन सवालों को खड़ा कर दिया है। अयोध्या में रामलला की जन्मभूमि को लेकर जिस प्रकार की कानूनी कवायद चल रही है वह एक आश्चर्य की ही बात है कि जो विषय आस्था का है उसे कानूनी विवाद में उलझा दिया गया है। शायद दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं हुआ है। न इसरायल में न स्पेन में न जार्डन में जहां आस्थाओं के टकराव पहले भी हुए हैं और आज भी हो रहे हैं। इन देशों में आस्था अदालत और कचहरी का मुद्दा नहीं बनी, लेकिन भारत में उन रामलला को अदालत कचहरी का मुद्दा बना दिया गया है जो न केवल सदियों से आस्था का आधार हैं बल्कि भारत के संविधान का भी हिस्सा हैं।
भारतीय संविधान में चित्रों के द्वारा भारत की ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक पंरपरा दर्शायी गई है। संविधान के तीसरे अध्याय में जहां मौलिक अधिकारों का उल्लेख है वहां सबसे ऊपर श्रीराम,सीता और लक्ष्मणजी का रेखाचित्र अंकित है। महाकाव्य काल के प्रतीक के रूप में इसको लिया गया है। आस्था या संविधान में ही नहीं बल्कि अयोध्या में पुरातात्विक खुदाई से मिले साक्ष्य इस बात की गवाही देते हैं कि जहां रामलला विराजमान हैं वहां मन्दिर था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तीन न्यायधीशों-न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति एस यू खान की पीठ ने वर्ष 2010 में जो फैसला सुनाया था संभवत: देश के इतिहास में यह पहला अदालती फैसला था जिसका आधार सिर्फ आस्था या धर्मग्रंथ ही नहीं बल्कि पुरातात्विक सर्वेक्षण भी रहा। अदालत ने अपने फैसले में पुरातत्व विभाग के इस निष्कर्ष को सही माना कि जहां बाबरी मस्जिद होने का दावा किया जाता रहा है वहां असल में कभी मन्दिर रहा होगा।
पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने अदालत को दी अपनी रिपोर्ट में विवादित स्थल पर ढाई हजार साल पहले कोई ऐसा ढांचा मौजूद रहने का संकेत दिया था जो मन्दिर था। पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने 5 अगस्त 2003 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय को अयोध्या में रामजन्मभूमि -बाबरी ढांचा परिसर के नीचे की गई खुदाई से संबंधित अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें कहा गया था कि विवादित परिसर के नीचे ग्यारहवीं शताब्दी के हिन्दू धर्म स्थल के अवशेष मिले हैं। हिन्दू संगठनों और अयोध्यावासियों का मानना रहा है कि 16वीं शताब्दी में मुगल बादशाह बाबर ने राम मन्दिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई थी।
खुदाई में विवादित स्थल से देवी देवताओं की खंडित मूर्ति और वैसे ही खंभे मिले जिनके आधार पर मस्जिदनुमा ढांचा बनाया गया था। विवादित ढांचा 6 दिसंबर 1992 को टूट गया और उसके मलबे से भी उस समय मन्दिर होने के अवशेष मिले। कुछ लोगों की यह धारणा रही है कि अयोध्या का मसला कुछ वर्षों से ही उठा है असल मेें तो जन्मभूमि पर विवादित ढांचे के बनने के बाद से ही इस स्थान को प्राप्त करने के लिए सन 1528 से 1949 ई. तक 76 बार संघर्ष हुआ। बाद में कानूनी लड़ाई चली
सो अलग।
असल में कानून अपना फैसला केवल मौखिक दावों और आस्था पर नहीं देता बल्कि साक्ष्यों के आधार पर ही कोई निर्णय सुनाता है। लिहाजा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अयोध्या मामले में जब फैसला सुनाया तो उनके निष्कर्ष में यह बात एक सी थी कि विवादित ढांचे से पहले मन्दिर था। न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने कहा कि विवादित भवन बाबर द्वारा बनाया गया पर निर्माण का वर्ष निश्चित नहीं है परन्तु यह इस्लाम की मान्यताओं के खिलाफ बना इसलिए मस्जिद का स्वरूप नहीं ले सकता। पुरातत्व विभाग ने यह साबित कर दिया है कि वह पुराना भवन एक विशाल हिन्दू धार्मिक भवन था। वहीं दूसरी ओर न्यायमूर्ति एस यू खान ने कहा कि मस्जिद के निर्माण के लिए किसी मन्दिर को नहीं तोड़ा गया परन्तु मस्जिद किसी मन्दिर के खंडहर पर बनाई गई जो खंडहर धरती के नीचे मस्जिद के निर्माण के बहुत पहले से दबे पड़े थे और उसी खंडहर की कुछ सामग्री मस्जिद के निर्माण में उपयोग की गई। स्पष्ट है कि आस्था ही नहीं पुरातात्विक साक्ष्यों से लेकर कानूनी दांवपेंच में भी यही साबित होता आया है कि जहां रामलला विराजमान हैं वहां मन्दिर था। पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी कहते हैं कि, राम अयोध्या में नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में हिन्दू जनमानस की आस्था का प्रतीक माने जाते हैं। अयोध्या में मन्दिर बने यह राम भक्तों की चाहत है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद इस बात को और बल मिला है कि जहां रामलला विराजमान हैं वहां मन्दिर था।
वहीं श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष नृत्यगोपाल दास कहते हैं कि खुदाई से भी यह साबित हो चुका है कि मन्दिर था इसलिए मुस्लिम समाज को अपना दावा छोडना चाहिए और रामलला के लिए भव्य मन्दिर निर्माण के कार्य में अपना सहयोग देना चाहिए। न्याय के मन्दिर में भी हमारा हिन्दू समाज का पक्ष जीता है। इस मामले को अब कानूनी और अदालत में उलझाए रखने से कुछ नहीं होगा। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास दावा करते हैं कि वर्ष 2010 में उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद हाशिम अंसारी सहित सभी पक्षों के बीच मामले को लगभग सुलझा लिया गया था। वहीं समाजवादी पार्टी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का कहला है कि हमारा हमेशा से यही मानना रहा है कि या तो इस मामले को आपसी बातचीत के जरिए सुलझाया जाए या फिर सभी लोग न्यायालय का फैसला मानें। मामला सर्वोच्च न्यायालय में है इसलिए इंतजार करना चाहिए। लेकिन शिवसेना सांसद संजय राउत कहते हैं कि इस मामले को और नहीं लटकाना चाहिए। हर तरह से यह साबित हो चुका है कि मन्दिर था तो अब मन्दिर बनने देना चाहिए और इस कार्य में सभी दलों को अपना योगदान देना चाहिए। उच्च न्यायालय बाबरी मामले की पैरवी कर रहे हाश्मि अंसारी का भी कहना है कि उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार के मंत्री आजम खां ने बाबरी मस्जिद के नाम का इस्तेमाल अपने राजनीतिक फायदे के लिए किया। इस मामले पर इतनी राजनीति हुई कि मैं ऊब चुका हूं और अब रामलला को आजाद देखना चाहता हूं।
अयोध्या आंदोलन से लंबे समय से जुडे़ विश्व हिन्दू परिषद के प्रमुख अशोक सिंहल का कहना है कि अयोध्या का मामला हमारे लिए कभी राजनीति का नहीं रहा। अयोध्या आंदोलन का नेतृत्व हमेशा साधु संतों ने किया और संतों के निर्णय अनुसार कार्य किया। संतों का मत है कि अयोध्या में मन्दिर निर्माण सोमनाथ मन्दिर की तर्ज पर किया जाए। न्यायालय का फैसला आ चुका है साक्ष्य भी खुदाई में मिल चुके हैं अच्छा रहेगा संतों के आह्वान को मान कर देश की संसद मन्दिर निर्माण का फैसला ले। मन्दिर निर्माण के कार्य में सभी लोग अपना योगदान दें। क्योंकि यह राष्ट्रहित का काम है। देश की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान का सवाल है।
जाहिर है अयोध्या और देश की पहचान राम से है। धर्मग्रंथों से लेकर आस्था तक और खुदाई में साक्ष्यों से लेकर कानूनी दांवपेंच के बीच कई बार यह साबित हो चुका है कि रामलला जहां विराजमान हैं वह जन्मभूमि है। आस्था के सवाल अदालत या कचहरी में तय नहीं होते। –मनोज वर्मा
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