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आस्था का सीधा जुड़ाव समाज से है। समाज आस्था के आधार पर वर्गीकृत भी है और काफी हद तक विभाजित भी। पिछले तीन-चार साल से दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आस्था की नई कोपलें खिलनी शुरू हुई हैं। देश के करोड़ों लोगों की आस्था जिस नवरात्रि के भक्ति-पर्व में बसती है उसी नवरात्रि के भक्ति-पर्व के समय कुछ मुट्ठीभर लोगों की आस्था महिषासुर के प्रति भी जागृत हो जाती है। खैर, आस्था के नाम पर वे मुट्ठीभर लोग किस किस्म का विमर्श चला रहे हैं अथवा उस विमर्श का करोड़ों लोगों की आस्था पर कितना प्रभाव पड़ सकता है, इस पर बहस जारी है। फारवर्ड प्रेस नाम की एक हिंदी-अंग्रेजी पत्रिका भी बेहद संदिग्ध ढंग से ऐसे विमशोंर् को समय-समय पर हवा देती रही है। फारवर्ड प्रेस इन्हीं मुट्ठी भर लोगों का मुखपत्र बनकर गाहे-बगाहे सक्रिय हो जाती है। इस पत्रिका के अक्तूबर, 2014 अंक में दुर्गा एवं महिषासुर के विमर्श को कुछ इस किस्म का मोड़ दिया गया है जो न सिर्फ आपत्तिजनक है बल्कि निहायत संदिग्ध भी है। इसमें जिन कहानियों की बुनियाद पर 'राजा महिषासुर की शहादत' कहानी का ताना-बाना बुना गया है, वे निहायत मनगढ़ंत एवं हास्यास्पद हंै। वैसे तो प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि यह पत्रिका वंचितों-पिछड़ों की पक्षधर है, लेकिन ठीक से पड़ताल करने पर पत्रिका एवं इससे जुड़े लोगों की भूमिका संदिग्ध नजर आती है। यह पत्रिका क्या छाप रही है, उसे मुख्यधारा के बहुसंख्यक समाज ने कभी भी न तो गंभीरता से लिया है और न ही इस पत्रिका के विमशोंर् को ही स्वीकार किया है, क्योंकि इसके सम्पादकीय लेखों एवं लेखकों की भूमिका ही संदिग्ध रही है।
इस पत्रिका की संदिग्ध भूमिका की पड़ताल करने के लिए इसके हर अंक का उद्धरण देना तो मुश्किल है लेकिन इस सन्दर्भ में पत्रिका के अगस्त, 2011 के अंक एवं अक्तूबर, 2014 के अंक को ही देख लिया जाय, तो काफी कुछ साफ हो जाता है। अगर बात अगस्त अंक की करें तो उसमें बाकायदा विलियम कैरी नाम के एक धुर ईसाई मिशनरी को बेबुनियाद तथ्यों का हवाला देकर 'आधुनिक भारत का पिता' लिख दिया गया था। गौरतलब है कि जिस विलियम कैरी को 'आधुनिक भारत का पिता' लिखा गया है, उसका योगदान भारत में महज बाइबिल का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने से ज्यादा कुछ भी नही है। विलियम कैरी एक चर्च के पादरी भी रहे हैं। सवाल है कि आखिर चर्च के पादरी एवं ईसाई मिशनरी को 'आधुनिक भारत का पिता' लिखने के पीछे कारण क्या हो सकते हैं? एक तरफ यह पत्रिका 2011 के अंक में एक ईसाई मिशनरी को 'आधुनिक भारत का पिता' लिखती है तो वहीं एक अन्य अंक में बाबासाहब भीमराव अम्बेदकर के बौद्ध मत को ईसाइयत से प्रेरित बताती है। वैसे भी विगत दिन चर्चा में आये एक वंचित चिन्तक, जो खुद से ही कांग्रेस में शामिल होने की घोषणा एवं खुद से ही कांग्रेस से बाहर होने की घोषणा कर चुके हैं, ने फारवर्ड प्रेस का बचाव करते हुए अपने फेसबुक पेज पर लिखा है, 'भाजपा की पिछली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार बनने के तुरंत बाद ईसाई चचोंर् और ईसाई मिशनरियों पर हमले हुए थे। मोदी सरकार ने भी फारवर्ड प्रेस पर छापा डलवाकर पहला हमला ईसाई संस्था पर ही किया है।' उक्त वंचित चिन्तक पत्रिका से सहानुभूति रखते हैं, लिहाजा उनके इस बयान का निहितार्थ साफ है कि पत्रिका एक ईसाई मिशनरी के तौर पर काम कर रही है। सवाल महज इतना ही नहीं है, बल्कि इस पत्रिका से जुड़े लोगों एवं इस पत्रिका की 'फंडिंग' आदि की बात करें तो मामला संदिग्ध नजर आता है। फारवर्ड प्रेस पत्रिका कांग्रेस-नीत सरकार के दौरान 2009 में शुरू होती है और इसको नेहरू प्लेस जैसे इलाके में सहजता से दफ्तर भी मिल जाता है। 2009 से अब तक इस पत्रिका की छपाई एवं कागज आदि की गुणवत्ता में कोई कमी नहीं आई है, जबकि सही मायनों में इस पत्रिका के पास विज्ञापन न के बराबर हैं। नाममात्र के विज्ञापनों को छोड़ दें तो यह पूरी पत्रिका बिना विज्ञापन के चल रही है। सवाल है कि आखिर बिना विज्ञापन के इस पत्रिका को चलाने वालों की इसमें रुचि क्या है एवं वे कौन लोग हैं? पत्रिका की प्रिंटलाइन देखें तो इसके अध्यक्ष से लेकर प्रधान सम्पादक एवं सम्पादकीय सलाहकार तक, कमोबेश सभी का सीधा ताल्लुक ईसाइयत से रहा है। सबसे पहले पत्रिका के प्रधान सम्पादक आयावन कोस्टका की बात करें तो कोस्टका की पढ़ाई-लिखाई, रहन-सहन सब कुछ ईसाई वातावरण में हुआ है। वे ईसाई हैं एवं बताया जाता है कि ईसाइयत के लिए सक्रिय भी हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि एक ईसाई मिशनरी की रुचि भला 'बहुजन विमर्श' अथवा महिषासुर एवं दुर्गा आदि में क्यों हुई? इस बात को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है कि यह एक खास वर्ग के भीतर विभेद पैदाकर उस वर्ग को अपने एजेंडे के हिसाब से मोड़ने की साजिश के तहत किया जा रहा काम हो, और इसी काम के लिए फारवर्ड प्रेस का इस्तेमाल भी यह समूह कर रहा हो। चूंकि, पहले भी फारवर्ड प्रेस के एक अंक में लिखा जा चुका है कि 'भीमराव अम्बेदकर का बुद्धत्व ईसाइयत से प्रेरित था।' अर्थात बाबासाहब में आस्था रखने वालों को इस पत्रिका के पीछे लगी ताकतों द्वारा यह बताकर बरगलाने की कोशिश की गयी है कि जिन बाबासाहब में देश के करोंड़ो हिन्दुओं की आस्था है, वे ईसाइयत से प्रेरित थे। जबकि सचाई यह है कि डॉ. अंबेदकर ने ईसाई मत को सिरे से खारिज कर दिया था। इस सन्दर्भ में दूसरी बात यह है कि जिस आस्था का हवाला देकर दस-बीस की संख्या में ये कुछ लोग दुर्गा का अपमान कर रहे हैं, उसी दुर्गा के प्रति देश के करोड़ों वंचितों-पिछड़ों की आस्था है। चूंकि कोस्टका जैसे लोगों का ईसाइयत से जुड़ा अपना एजेंडा है लिहाजा उस एजेंडे को साधने के लिए ये लोग बहुजन की खाल ओढ़कर हिन्दू आस्था को निशाना बना रहे हैं। हालांकि इस काम को करने के लिए पैसा कहां से मिल रहा है, इसकी पुख्ता जांच होनी चाहिए। इस कड़ी में पत्रिका से ही जुड़े एक और नाम की पड़ताल जरूरी है। वह नाम है, विशाल मंगलवादी। विशाल मंगलवादी का पूरा नाम विशाल कुशवाहा मंगलवादी है। विशाल मंगलवादी आज से लगभग तीन दशक पहले मध्यप्रदेश में किसान सेवा समिति से सरोकार रखते थे एवं उसके अध्यक्ष थे। उसी दौरान मंगलवादी यानी किसान सेवा समिति को भारत सरकार में गृह मंत्रालय के उप सचिव टी़ आर. सोंधी द्वारा एक पत्र लिखा गया जिसमें यह बताया गया कि 'आपके संगठन का किसी भी तरह का विदेशी फंड बिना सरकारी इजाजत के इकट्ठा करना वैध नहीं है।' अब यह पत्र किस अंदेशे अथवा कारण से लिखना पड़ा था, यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन इससे इतना तो स्पष्ट है कि विशाल कुशवाहा मंगलवादी उसी दौरान 'फंडिंग' आदि के खेल से जुड़ चुके थे। किसान सेवा समिति का तत्कालीन(सन् 1988) दफ्तर एक ईसाई अस्पताल के सामने ही था। आज उस संगठन की स्थिति क्या है, इसकी जानकारी नहीं मिल सकी है। हां, विशाल कुशवाहा मंगलवादी को जानने वाले कुछ लोग ये जरूर बताते हैं कि वर्तमान में विशाल मंगलवादी के पास मसूरी आदि शहरों में अकूत सम्पति है। फारवर्ड प्रेस के साथ इनका जुड़ाव भी संदिग्ध ही है। चूंकि इनका भी ईसाइयत से जुड़ा सरोकार है। बड़ा सवाल यह है कि ईसाइयत के सरोकारों से जुड़े ये लोग आखिर बहुजन-विमर्श में इतनी दिलचस्पी और इतना पैसा क्यों लगा रहे हैं? इनका छिपा हुआ एजेंडा क्या है?
पत्रिका बिना विज्ञापन के चला लेना, पत्रिका से जुड़े लोगों का ईसाई मिशनरी के साथ सरोकार होना, इन लोगों के पास अकूत दौलत, बिना परेशानी नेहरू प्लेस में दफ्तर ले लेना और चला लेना, विमर्श को कभी बहुजन तो कभी वनवासियों से जोड़ना, ये तमाम वे सवाल हैं जो कहीं न कहीं इस पूरे मामले को संदिग्ध बनाते हैं। आज जब फारवर्ड प्रेस पर कार्यवाही की गयी है तो इसे महज एक अंक पर की गयी कार्यवाही की बजाय इस नजरिये से भी देखने की जरूरत है कि इस पत्रिका का मूल तार कहां से जुड़ रहा है। हमें समझना होगा कि इस पत्रिका द्वारा समय-समय पर खड़ा किया जाता रहा विमर्श जितना संदिग्ध है, बिल्कुल उतना ही संदिग्ध मामला इस पत्रिका से जुड़े लोगों का भी है।
फारवर्ड प्रेस के झूठे दावे
महिषासुर को 'बहुजन, पिछड़ों अथवा वनवासियों का राजा' बताने वाली इस पत्रिका को कम से कम एक कोई गांव अथवा समुदाय तो उदाहरण के तौर पर रखना चाहिए जहां महिषासुर को आदर-आस्था से देखा जाता हो। पौराणिक कथाओं का गलत प्रस्तुतिकरण करके फारवर्ड प्रेस ने न सिर्फ हिन्दुओं की आस्था का अपमान किया है बल्कि देश में दुर्गा की पूजा करने वाले करोड़ों वंचितों, पिछड़ों का भी अपमान किया है। करोड़ों लोगों की आस्था में दुर्गा को नारी शक्ति का प्रतीक माना गया है। लेकिन इस पत्रिका में नारी शक्ति दुर्गा का प्रस्तुतिकरण जिस ढंग से किया गया है वह कहीं न कहीं भारत की आधी आबादी का भी अपमान है। लिहाजा फारवर्ड प्रेस करोड़ांे वंचितों, पिछड़ों के साथ-साथ महिलाओं का अपमान करती है।
भारतीय विचार परंपरा में मत-भिन्नता और मतांतर की जितनी संभावना है उतनी शायद किसी और परंपरा में नहीं। वेद, जिसे मानव सभ्यता के अखंड ज्ञान का सर्वप्राचीन साहित्य और विश्व पुस्तकालय का प्रथम ग्रंथ माना जाता है उसने सृष्टि-रहस्य के सभी गूढ़ और सूक्ष्म तत्वों का तार्किक विवेचन करने के बाद यह उद्घोष किया, नेति, नेति यानी संभव है यह भी नहीं, यह भी नहीं। विचारों की श्रेष्ठता और लचीलेपन का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि तमाम सूत्रों और श्लोकों के रहस्य को उद्घाटित करने वाले ऋषियों ने यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं किया कि हो सकता है ये सारी बातें निराधार हों और हो सकता है यही आखिरी सत्य न हो, नेति, नेति या न इति, न इति। यह भी नहीं, यह भी नहीं।
आइए, विपरीत और विरोधी विचारों के सम्मान के कुछ और उदाहरण देखते हैं। देहभाव या शरीरवाद या भौतिकवाद के प्रखर प्रवक्ता चार्वाक कहते थे-
यावद् जीवेत् सुखं जीवेत्
ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्,
भस्मिभूतस्य देहस्य पुनर्गमनं कुत:
जिस समय वैदिक पंरपरा और आत्मा-परमात्मा का विचार चरम पर था उस समय नास्तिकवादी दर्शन के प्रहरी बनकर वे अपने विचार रखते थे। कहते हैं जिस सभा में चार्वाक अपनी बात रखने आते थे बड़े-बड़े विद्वान बहुत धैर्य से उन्हें सुनते थे। यानी अलग-अलग विचारों को समाज में स्थान देना, उसे विचार परंपरा का हिस्सा बनाना भारतीय समाज का मौलिक गुणधर्म था।
यह गुणधर्म आज भी हमारी पहचान बना हुआ है। बीबीसी के प्रखर पत्रकार और भारतीय उपमहाद्वीप में लंबे समय तक बीबीसी का प्रतिनिधित्व करने वाले मार्क टली ने अपनी पुस्तक 'नो फुलस्टॉप इन इंडिया' में बड़ी खूबसूरती से लिखा है कि भारत की धरती इतनी उर्वरा है कि यहां आज भी मत-पंथ और परंपराएं पैदा होती हैं और पुष्पित-पल्लवित भी होती हैं। इस कथन के आलोक में समझा जा सकता है कि अलग-अलग विचारों का कितना सम्मान यहां का समाज और आमजन करता है।
लेकिन विचारों की इस भावभूमि के साथ ही स्पष्ट और कड़े रूप से यह भी समझने की जरूरत है कि मत-भिन्नता के नाम पर सभ्यता के मूल स्तंभों से खिलवाड़ की कोशिश भी कम नहीं हुई है। मैकाले से शुरू हुई यह परंपरा आज भी जारी है। विचार की अलग-अलग धाराओं के सम्मान के नाम पर हमारी संस्कृति को तोड़ने वाले तत्वों को करारा जवाब दिया जाना भी जरूरी है। यह तब और भी जरूरी हो जाता है जब तथ्यों को तोड़-मरोड़कर और भ्रामक बना कर पेश किया जाए। फिर इन सबके पीछे की मंशा साफ दिख जाए तो मर्यादित रूप से इन्हें रोकने की हर संभव कोशिश होनी चाहिए।
उदाहरण के तौर पर पत्रिका का सीधा मकसद भारतीय समाज को तोड़ना दिखता है। पत्रिका द्वारा बाबासाहब के बुद्धत्व को ईसाइयत से प्रेरित बताने की चर्चा करें तो, तथ्य यह है कि जब बाबासाहब ने भरे मन से सनातन परंपरा से अलग होने का निश्चय किया तो उनके सामने दुविधा थी कि किस मत को अपनाएं। उन्होंने बौद्घ मत अपनाया और स्पष्ट शब्दों में अपने मन की बात रखी कि, 'उन्हें हिन्दू परंपरा में आयी कमियों की चिंता है और वे उसे ठीक करने की कोशिश भी कर रहे हैं। उनका पंथ परिवर्तन कोई क्रांति नहीं, विरोध का प्रतीक है। इस विरोध के क्रम में वे किसी भी हाल में दूसरी धरती पर पैदा हुआ मत नहीं अपना सकते, लिहाजा अपने समर्थकों के साथ बौद्घ मत ग्रहण कर रहे हैं।' इस तथ्य को छिपा कर बाबासाहब को ईसाइयत का प्रेमी बना दिया जाए तो क्या कहेंगे? यह पत्रिका स्वयं को जिस वंचित समाज का तथाकथित पहरुआ मानती है क्या वह यह बताने का कष्ट कर सकती है कि भारतीय सभ्यता के आदिग्रंथ वेदों में बताया गया है कि जन्म के बाद अपने कर्म के हिसाब से सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बने। क्या यह पत्रिका बताने का कष्ट करती है कि भारतीय समाज का मूल चिंतन जाति नहीं चार पुरुषार्थ को महत्व देता है? क्या यह भी बताया जा सकता है कि वेदों का परम उद्घोष है 'मनुर्भव' यानी मनुष्य बनो?
पिछले दिनों प्रख्यात विद्घान विजय सोनकर शास्त्री ने वंचित चिंतन को नया आयाम देते हुए और नितांत नई स्थापनाओं का द्वार खोलते हुए अपने अथक शोध से तीन पुस्तकें, 'हिन्दू खटीक जाति', 'हिन्दू चर्मकार जाति' और 'हिन्दू वाल्मीकि जाति' विचार जगत के सामने रखीं। उन्होंने साफ लिखा है कि जाति विभाजन का सारा कुचक्र मुस्लिम आक्रमण के बाद शुरू हुआ और अंग्रेजों ने इसे संस्थागत और स्थायी रूप दे दिया। पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि जिन्हें आज हम वंचित और अछूत जाति कह रहे हैं वे किसी समय 'मार्शल' जातियां थीं। इन्होंने मुगलिया आक्रमण का डटकर सामना किया और जब हार गये तो मुस्लिमों ने इनसे वे सारे काम कराए जो इनके मूल काम नहीं थे। भारतीय सभ्यता में गोत्र परंपरा से ये स्थापना स्पष्ट हो जाती है। जिसे आज हम वंचित और पिछड़ी जाति कहते हैं उनके गोत्र का पता करेंगे तो बात समझ में आ जाएगी कि वे भी उन्हीं ऋषियों की संतान हैं जिनकी संतान उच्च समझी जाने वाली जातियां हैं। पत्रिका के विवादित अक्तूबर, 2014 अंक, जिसमें देवी दुर्गा को हेय और महिषासुर को योद्घा के रूप में दिखाया गया है, की बात करें तो समस्या साफ समझ में आ जाती है। देवी दुर्गा भारतीय संस्कृति-परंपरा का अभिन्न हिस्सा हैं। हमारे ग्रंथ उन्हें जगत-जननी की उपाधि प्रदान करते हैं। सप्तशती में श्लोक है,
विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा:
स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति:।। (अ.11 श्लो.6)
अर्थात 'हे देवी! सम्पूर्ण विद्याएं तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत में जितनी स्त्रियां हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियां हैं। जगदम्बा! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है, तुम तो स्तवन करने योग्य पदाथार्ें से परे एवं परा वाणी हो।' आगे लिखा है.़.़
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तुते।।
अर्थात 'तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्तिभूता, सनातनी देवी, गुणों का
जिस सप्तशती में दुर्गा को सभी स्त्रियों में समान रूप से व्याप्त, सृष्टि का पालन और संहार करने वाली, गुण और अवगुण, सत्य और असत्य दोनों की जननी और दोनों की संरक्षक माना गया हो उस दुर्गा को महिषासुर के घर में 'अधम' के रूप में मदिरा का सेवन करते हुए दिखाना आखिर किस प्रयोजन का हिस्सा हो सकता है? महिषासुर, जिसे सप्तशती में आततायी के रूप में चित्रित किया गया है उसे समाज के वंचित तबके का दिखाकर आखिर किस उद्देश्य की पूर्ति हो रही है? साफ समझा जा सकता है कि यह विदेशी षड्यंत्र का हिस्सा है जो हमारी आस्था-परंपरा पर चोट कर हमारी लाखों-करोड़ों वर्ष प्राचीन संस्कृति-सभ्यता का स्तंभ हिलाना चाहता है।
बहरहाल किसी भी समाज और परंपरा में विदेशी आक्रमण, परतंत्रता और अन्यान्य, ऐसे कई कारणों से विचलन संभव है। संभव है इन कारणों से समाज का कोई तबका विकास के क्रम में पीछे छूट गया हो। बहुत संभव है समाज-व्यवस्था की निरंतर बदलती रचना में कमी रह गयी हो। लेकिन एक मजबूत समाज और एक संप्रभु राष्ट्र अपने अंदर आयी कमियों को मर्यादित तरीके से ठीक करने की कोशिश करेगा, न कि आधारहीन उदाहरण देकर उसका उपहास उड़ाएगा। स्पष्ट तौर पर ऐसी पत्रिकाओं का प्रयोजन समाज के अंदर आईं कमियों को उछालना है, संभालना नहीं। किसी घर में कोई विवाद और झगड़ा हो तो उसे देखने की उस घर के सदस्यों की दृष्टि और पड़ोसी की दृष्टि में मौलिक भेद होता है। घर के सदस्य विवाद होने के बाद भी अपनी समस्याओं और अपनों के प्रति सहानुभूति रखते हैं जबकि पड़ोसी उस समस्या में आनंद की अनूभूति करता है। अगर हम स्वयं को इस समाज और राष्ट्र का हिस्सा मानते हैं तो हमारी दृष्टि भी घर के सदस्य सरीखी होनी चाहिए न कि पड़ोसी जैसी। ऐसी पत्रिकाओं की दृष्टि पड़ोसी जैसी भी नहीं, दुश्मन जैसी है और इनका प्रतिकार बुद्घिमतापूर्वक करना एक मजबूत समाज और राष्ट्र का कर्तव्य हो जाता है।
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