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मलयाली भाषा के प्रतिष्ठित लेखक तकषी शंकर पिल्लै ने ताशकंद में घटी एक घटना के बारे में लिखा है। आज से कोई 35 साल पहले सोवियत रूस में अफ्रीकी-एशियाई लेखक सम्मेलन किया गया था। पिल्लै ने पाकिस्तान और बंगलादेश के लेखकों से कहा कि हम तीनों देशों के साहित्यकारों को एक संयुक्त बयान जारी करना चाहिए, क्योंकि हमारा इतिहास, संस्कृति, परंपरा एक हैं। इस पर पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के नेता फैज अहमद फैज अड़ गए कि हमारा इतिहास, संस्कृति, परंपरा अलग हैं। उनके अनुसार पाकिस्तान का इतिहास हजारों साल पुराना था। फैज साम्यवादियों के बहुत प्रिय और प्रमुख शायर रहे हैं। उनके महान शायर होने-बनाने के लिए तथाकथित प्रगतिशील लेखकों, शायरों ने बहुत जोर लगा रखा है। यह अलग बात है कि मैं ही नहीं पाकिस्तान के भी उर्दू के बहुत से लोग निजी बातचीत में उन्हें तीसरे दर्जे का, निम्न कोटि का शायर मानते हैं, मगर उनके साम्यवादी होने से किसी को इनकार नहीं है। साम्यवादी होने की सब से बड़ी पहचाऩ.़ वे बढि़या स्कॉच पीते-पिलाते थे। यह भी उनको 'महान' शायर बनाये जाने का एक बड़ा कारण था।
वे इस्लाम को प्रगतिशील, बल्कि समाजवादी मजहबी बताते थे इस्लामी उपद्रव की चर्चा होने पर चुप्पी साध लेते थे और ऐसी हर बात, जिसकी जड़ें 1947 से पूर्व के भारत यानी हिन्दू परंपरा में हैं, का विरोध करते थे। सैयद अहमद खान, अल्लामा इकबाल, अल्ताफ हुसैन हाली जैसे पक्के मुल्लाओं के बारे में अच्छी राय रखते थे। ऐसा नहीं है कि फैज दाढ़ीदार, टोपी पहनने वाले मुल्ला थे मगर उन पर पाकिस्तान के हिन्दू-विरोधी वर्ग का दबाव था जो पाकिस्तान में एक सामान्य बात है। पाकिस्तान अपने हिन्दू अतीत से उसी तरह पीछा छुड़ाना चाहता है जैसे किसी भी अन्य देश का मतान्तरित मुसलमान अपने को सीधे अरब से जोड़ने पर बाध्य होता है।
इस्लाम एक ऐसी मजहबी प्रणाली है जो राजनैतिक भी है और अपने लोगों का 'रेजीमेंटेशन' भी करती है। जैसे किसी भी सैन्य बल के लिए उसकी सामान्य समाज से अलग छावनी, वर्दी, शारीरिक अभ्यास, आदेशों का पालन करने की प्रणाली बहुत विचार करके बनाई गयी है, उसी तरह इस्लाम अपने अनुयायियों का 'रेजीमेंटेशन' करता है। सामान्य समाज से अलग एक साथ रहने के मोहल्ले, 5 बार नमाज के नाम पर एक जगह इकट्ठे होना, खान-पान एक रखना-करना, यानी जीवन के प्रत्येक अंग पर इस्लामी दृष्टि हस्तक्षेप करती है। परिणाम वही होता है जो सैन्य अभ्यासों का होता है। एक अलग सिक्केबंद-मुट्ठीबंद समूह इस्लाम की चिंतनधारा मूलत: सारे संसार के मुसलमान बन जाने की कल्पना करती है और अपने से इतर मनुष्यों को मुन्किर, मुल्हिद, मुशरिक, मुर्तद, काफिर आदि मानती है। इन शब्दों की परिभाषाएं थोड़े-थोड़े अंतर से गैरमुस्लिम लोगों पर इस्लामी दृष्टिपात हैं। मोटे तौर पर इस्लाम की जकड़बन्दियों के सामने समर्पण न करने वाले लोग काफिर कहलाते हैं। इनको इस्लामी व्यवस्था वाजिबुल-कत्ल यानी मार डालने के योग्य मानती है और जहां-जहां उसका बस चला है, ऐसा करती रही है।
इस्लाम की जकड़बन्दियों की स्थिति हम बाहर के लोग बिल्कुल भी नहीं समझ सकते, बल्कि इसका अनुमान तक नहीं लगा सकते। उसका कारण इस्लामी समाज का अन्य सभ्य समाज के लोगों से न के बराबर संपर्क, उठना-बैठना न होना है। मैं उर्दू का ठीक-ठाक जाना जाने वाला शायर हूं। मेरे दसों मुस्लिम दोस्त हैं। जब भी अपने मुस्लिम मित्रों को अपने घर बुलाता हूं, वे बड़ी खुशी से मेरा निमंत्रण स्वीकारते हैं, मेरे घर सदैव अकेले आते हैं। कभी अपनी पत्नी के साथ नहीं आते। खाते-पीते हैं मगर मुझे ध्यान नहीं पड़ता कि उनमें से एक-आध को छोड़कर किसी ने भी मुझे बुलाया हो। यह मेरी ही शिकायत नहीं है, ब्रिटेन, अमरीका जैसे अनेक देशों में रहने वाले भारतीय सामान्यत: यह शिकायत करते हैं कि मुस्लिम दोस्त हमारे यहां तो आ जाते हैं मगर हमें अपने घर नहीं बुलाते।
किसी सामान्य मुसलमान की उसी स्तर के किसी अन्य मतावलम्बी से तुलना कीजिये। आप पाएंगे कि शालीनता, सामाजिक बर्ताव में मुसलमान का पल्ला भारी रहता है। उसका कारण इस्लाम में अखलाक यानी सामाजिक भद्रता पर बहुत जोर देना है। सामान्य मुसलमान आप-आप करके बात करता है। वह अधिक शालीन होता है, यह चीज एक मुसलमान को दूसरे मुसलमान से जोड़ने के लिए गोंद का काम करती है। इस्लाम ने प्रारम्भ से ही अपने समूह को प्रबल बनाने के लिए संस्थान बनाये हंै। करणीय, अकरणीय तय किये हैं और उनका पालन करने-करवाने के लिए व्यवस्था बनाई है। फिर क्या कारण है कि सामान्य मुसलमान ऐसा अशिष्ट व्यवहार करता है? इसका कारण कुरआन का आदेश है कि 'ऐ मुसलमानो, तुम्हारे दोस्त मुसलमान ही हो सकते हैं'। (5/51-55-57) अत: सामाजिकता निभाने के लिए वह आपके घर चला आता है मगर आपको बुलाता नहीं। इस अखलाक को समझना भी आवश्यक है। यह एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान के साथ किया जाने वाला आवश्यक व्यवहार है, यह व्यवहार आपके मेरे लिए नहीं है।
इस्लामी शब्दावली के गैरमुस्लिम समाज ने बहुत से अपनी मनमर्जी के अर्थ निकाल लिए हैं और मान लिया है कि जैसा वे सोचते हैं वही अर्थ हैं। सामान्य गैरमुस्लिम सोच है कि ईमानदार होने का अर्थ है आर्थिक शुचिता। मगर ऐसा नहीं है। ईमानदार इस्लामी शब्द है। इसका अर्थ है कुरआनी बातों को मानने वाला, आर्थिक शुचिता से इसका कोई लेना-देना नहीं है। खुदा मानना, मुहम्मद को आखिरी पैगम्बर मानना, कुरआन को आसमानी किताब मानना है। मगर आप और मैं इसके भिन्न अर्थ समझते हैं। ये वे अर्थ हैं जो इस्लामी किताबों के राजनैतिक मगर बिल्कुल बेपढ़े-लिखे बांगड़ू लोगों ने चला दिए हैं और हम सब मानने लगे कि ऐसा ही है। इस्लाम सामान्य मानव जीवन पर इस बुरी तरह कब्जा चाहने वाली सोच है कि उसका बस चले तो व्यक्ति खुल कर सांस भी न ले सके। बिल्कुल निजी बातों यानी यौन संबंधों तक के बारे में इस्लामी ठूसम-ठांसी होती है। एक मुस्लिम के जीवन ही नहीं बल्कि सामान्य जीवन की हर बात इस्लाम के मार क्षेत्र में आती है और इस्लाम की दृष्टि में क्या सही या गलत है, यह बताने वाले पूरे संस्थान हैं। मुफ्तियों के फतवे यही व्यवस्था हैं। इन्हीं व्यवस्थाओं को सदियों तक चलने देने और चलते जाने का परिणाम भारत से पाकिस्तान और बंगलादेश के अलग हो जाने में हुआ था। देश का बड़ा भू-भाग, हमारी करोड़ों की संख्या का समाज अभी सत्तर साल पहले इस्लाम की भट्ठी में जिस क्षेत्र में भस्म हुआ उसी पाकिस्तान में यह नया गाना बहुत चर्चा में है। आप शायद विश्वास न कर पाएं कि इस गीत का इस समय पाकिस्तान में डंका बज रहा है-
मैं भी काफिर तू भी काफिर
फूलों की खुशबू भी काफिर
लफ्जों का जादू भी काफिर
यह भी काफिर वह भी काफिर
फैज और मंटो भी काफिर
नूरजहां का गाना काफिर
मैक्डोनल्ड का खाना काफिर
बर्गर काफिर कोक भी काफिर
हसना बिदअत जोक भी काफिर
तबला काफिर ढोल भी काफिर
प्यार भरे दो बोल भी काफिर
सुर भी काफिर ताल भी काफिर
भंगड़ा, नाच, धमाल भी काफिर
दादरा, ठुमरी भैरवी काफिर
काफी और खयाल भी काफिर
वारिसशाह की हीर भी काफिर
चाहत की जंजीर भी काफिर
जिंदा मुर्दा पीर भी काफिर
नजर नियाज की खीर भी काफिर
बेटे का बस्ता भी काफिर
बेटी की गुडि़या भी काफिर
हंसना रोना कुफ्र का सौदा
गम काफिर खुशियां भी काफिर
जींस भी और गिटार भी काफिर
कला और कलाकार भी काफिर
टखने के नीचे बांधो तो
अपनी यह शलवार भी काफिर
जो मेरी धमकी ना छापें
वो सारे अखबार भी काफिर
यूनिवर्सिटी के अंदर काफिर
डार्विन भाई का बंदर काफिर
फ्रायड पढ़ाने वाले काफिर
मार्क्स के सबसे मतवाले काफिर
मेले ठेले कुफ्र का धंधा, गाने बाजे सारे फंदा
मंदिर में तो बुत होता है मस्जिद का भी हाल बुरा है
कुछ मस्जिद के बाहर काफिर
कुछ मस्जिद के अंदर काफिर
काफिर काफिर मैं भी काफिर
काफिर काफिर तू भी काफिर
मुस्लिम देश में अक्सर काफिर
इसे सलमान हैदर ने लिखा है। यह गीत इस्लाम को समझने के लिए बहुत अच्छा आधार उपलब्ध करा रहा है। काफिर शब्द इस गीत का केंद्रीय शब्द है। काफिर इस्लामिक शब्दावली का प्रमुख शब्द है और इसका अर्थ 'न मानने वाला' है। जैसे मुझे मधुमेह है और मैं शक्कर से इनकार करता हूं तो मैं शक्कर का काफिर हुआ, मगर इसका प्रचलित, व्यवहार का अर्थ इस्लाम से इनकार करने वाला, कुरआन को खुदाई किताब न मानने वाला, मुहम्मद को अल्लाह का अंतिम पैगम्बर न मानने वाला माना जाता है। इस तरह के ढेरों शब्द मुन्किर, मुल्हिद, मुशरिक, मुर्तद, काफिर इस्लामी दर्शन में प्रयोग होते हैं।
मगर इन सारी जकड़बन्दियों के बावजूद इस तरह के गाने का आना और लोकप्रिय होना बताता है कि पढ़ा-लिखा पाकिस्तानी समाज ऐसी कुढब बातों के विरोध में है। वह ऐसी जकड़बन्दियां स्वीकार नहीं करना चाहता जो उसे मुल्ला पार्टी की दास बनाती हैं। यह गीत और इसके पीछे की सोच हमारे लिए भी प्रेरणा का स्रोत है। यही भारत में भी आवश्यक है। हमें भी सलमान हैदर जैसी सोच वाले मुसलमानों को सार्वजनिक जीवन में प्रमुखता देनी चाहिए। ऐसे व्यक्तियों, समूहों को प्रभावशाली बनाया जाना इस अराष्ट्रीय और देश-विरोधी विचारधारा को परास्त करने के लिए आवश्यक है। जब तक राष्ट्रीयता का विरोध करने वाले समूह ध्वस्त नहीं किये जायेंगे और राष्ट्रवादी लोग प्रबल, प्रखर और प्रमुख नहीं बनाये जायेंगे, समस्या का हल नहीं निकलेगा। जब मुसलमानों में से ही लोग सवाल उठाने लगेंगे तो मुस्लिम समाज पर दबाव बनाने के उपकरण मुल्ला समूह के शिकंजे से मुसलमान समाज आजाद हो जायेगा। राष्ट्र-विरोधी सोच को किनारे लगाना और राष्ट्रवादी मुस्लिम नेतृत्व को शक्तिमन्त बनाना ही एकमेव रास्ता है। यही इस समस्या का इलाज है।
यहां एक बात पर आपका ध्यान दिलाता चलूं। जब से केंद्र में भाजपा की सरकार आई है, मुशायरों में 35-40 साल से शुद्घ साम्प्रदायिक सोच का झंडा उठा कर चलने वाले, मुहाजिरनामा जैसी किताब लिखने वाले शायर मुनव्वर राणा जैसे अनेक लोग पाला बदलने की फिराक में हैं। मुहाजिरनामा भारत का विभाजन करवाने वाले और पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों के मुल्ला-पक्ष की विलाप-गाथा है। यह सात सौ से अधिक शेरों पर आधारित एक लम्बी गजलनुमा नज्म है। इसकी भूमिका में पृष्ठ संख्या 15 पर मुनव्वर कहते हैं, 'मैं हिन्दुस्थान की तकसीम को जमीन का बंटवारा बिल्कुल नहीं समझता। मैं इसे दुनिया की एक जहीन कौम और हिन्दुस्थान से यहूदियों और ईसाइयों का इंतकाम समझता हूं। अगर हिन्दुस्थान की तकसीम न हुई होती तो इस्रायल फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जा नहीं कर सकता था, अगर हिन्दुस्थान की तकसीम नहीं हुई होती तो रूस और अमरीका इराक और अफगानिस्तान को तबाह नहीं कर सकते थे, अगर हिन्दुस्थान की तकसीम न हुई होती तो अरब के तेल ठिकानों पर अमरीका की इजारेदारी नहीं होती', यानी सारी दुनिया में वहाबी आतंकवाद को पनपने के लिए अकूत पैसा देने वाले सऊदीअरब और उसके दुष्ट साथियों की जूतियां सीधी करने से हिन्दुस्थान, मुनव्वर राणा के अनुसार, इस कारण बचा कि भारत का विभाजन हो गया। इन्होंने पचासों लम्बे-लम्बे लेख लिखे हैं और सारे के सारे लेखों की तान 'बाबरी' पर टूटती है। आइये मुहाजिरनामा के दो शेर देखें जाएं-
'बहुत रोई थी हमको याद करके बाबरी मस्जिद
उसे फिरकापरस्तों में अकेला छोड़ आये हैं
अकेले छोड़ आये अपने साथी को हरीफों (शत्रुओं) में
समंदर के भरोसे पर मछेरा छोड़ आये हैं'
इन्हीं लोगों की पंक्ति में जामिया के इस्लामी शास्त्रों के अध्येता अख्तर उल वासे, मुल्लाओं से भी अधिक प्रचंड तुष्टीकरण की नज्में लिखने वाले और परिणामस्वरूप उर्दू प्रमोशन काउंसिल का उपाध्यक्ष पद पाने वाले चन्द्रभान 'खयाल', कांग्रेस की तुरही बजाने वाले शायर 'वसीम' बरेलवी, हमीदुल्ला बट्ट (जिनकी कांग्रेसी संचार मंत्री सुखराम जैसी प्रसिद्घि रही है) जैसे लोग भाजपा के लोगों में अपने संपर्क साधने में लग गए हैं। ये लोग मुशायरों, संगोष्ठियों, सेमिनारों में बरसों 'बाबरी' के नाम पर जहर उगलते रहे हैं। इनकी पुस्तकें राष्ट्र-विरोधी विष से पटी पड़ी हैं। अब ये लोग पद्म-पुरस्कारों, उर्दू प्रमोशन काउंसिल के पदों, संस्कार भारती के कार्यक्रमों पर गिद्घ दृष्टि गड़ाए हुए हैं। कोई एकाएक चाल बदल रहा है तो कोई केंद्र के मंत्रियों पर डोरे डाल रहा है। सब यह मान कर चल रहे हैं कि भाजपा के लोग भुलक्कड़ और भोले हैं और वे इनमें से किसी के इतिहास की छान-फटक नहीं करेंगे। इनके करतबों को व्यवस्था का अंग माना जायेगा। समझा जायेगा कि इन लोगों ने जो कुछ किया वह आदेशों का पालन करने के लिए किया। ये वस्तुत: निष्पक्ष थे और अंतरात्मा के विरोध में जा कर अराष्ट्रीय कार्य कर रहे थे। यहां स्वर्गीय जोश मलीहाबादी साहब की 15 अगस्त 1947 से पहले की अंग्रेज सरकार और स्वतंत्रता के बाद की भारत सरकार की तुलना करती नज्म का उद्घरण उपयोगी होगा-
देते थे लाठियों से जो हुब्बे-वतन1 की दाद
एक एक चोट जिनकी है अब तक सरों को याद
वो आइ़ सी़ एस़ 3 अब भी हैं खुशबख्त-बामुराद2
शैतान एक रोज में इंसान बन गए
जितने नमकहराम थे कप्तान बन गए
….सावधान बंधुओ! सावधान, कहीं आपसे भी ऐसा न हो जाये
– तुफैल चतुर्वेदी
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