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डॉ. सलिला तिवारी
स्वास्थ्य शब्द 'स्व+स्थ' से बना है। अपने स्व में स्थित होना यानी अपने मूल स्वरूप में बने रहना ही स्वास्थ्य है।
जो मनुष्य इस प्रकृति और उसके अधिष्ठाता परमात्मा की इस विशाल योजना एवं उसके शाश्वत, अपरिवर्तनीय, अनुलंघनीय नियमों एवं सिद्धांतों का अपने जीवन में यथासंभव और यथाशक्ति पालन करता है, वह इस त्रिवेणी में सौ साल तक स्नान करता है। वह सारा जीवन दिव्य एवं उच्चकोटि का स्वास्थ्य प्राप्त कर अनिर्वचनीय आनंद का उपभोग करता है। 'पहला सुख निरोगी काया', इसीलिए निरोगी काया को ही पहला आनंद और सुख कहा गया है। प्रकृति के नियमों के अनुसार सही एवं संयमित रहन-सहन का वरदान है-स्वास्थ्य। उसके विपरीत उन नियमों के उल्लंघन का श्राप ही रोग है। प्रकृति ने तो रोग बनाए ही नहीं हैं। प्रकृति में रहने वाले प्राणी कभी बीमार नहीं पड़ते। आपने कभी सुना है कि जंगल में रहने वाले हाथी को उच्च रक्तचाप हो गया हो, या शेर को हृदय रोग हो गया हो।
एक तरह यह मानव देह उस महान सृष्टिकर्ता की एक सुंदर, श्रेष्ठतम एवं संपूर्ण कलाकृति है। यह उसी की देह, उसी के प्राण और उसी की आत्मा है और वही हमारे रोम-रोम में व्याप्त है। उसकी सांस, हमारी सांस, उसके प्राण हमारे प्राण, उसकी धड़कन हमारे हृदय की धड़कन है। सृष्टिकर्ता ने इस मनुष्य देह को बनाया और इस देह-मंदिर में आत्मा के रूप में वह स्वयं विराजमान है। हम जितना उसके शाश्वत नियमों के अनुसार जीवन बिताएंगे, हमारे शरीर, मन, बुद्धि, चित्त, अंत:करण आदि उतने ही पवित्र, निर्मल और दीप्तवान होंगे। वह हमारे अंदर उतना ही अधिकाधिक प्रकाशित होगा। प्राण-ऊर्जा, शक्ति एवं ज्ञान के रूप में उसी परमविभु का प्रकाश हमारे अंदर अधिक से अधिक प्रकाशित होगा और हम अपने मूल स्वरूप और मूल गुणों से तादात्म्य बनाए रखेंगे। अपने स्व में स्थित होकर अधिक से अधिक स्वस्थ रहेंगे और यह देह उसी परमात्मा को प्रकाशित करने का एक सुंदर माध्यम बनी रहेगी।
मानव देह एक अद्भुत त्रिवेणी संगम है। परमात्मा के दिव्य अंश पंचतत्वों से रचित स्थूल देह, मन, बुद्धि, चित्तमय, विलक्षण सूक्ष्म देह और परमात्मा के परमत्व का अंश आत्मा-इन तीनों का समुच्चय है मानव देह। परमात्मा इस अद्भुत त्रिवेणी में अपने आपको प्राणों के रूप में संचारित कर समुचित संचालन करता है।
उत्तम स्वास्थ्य… यानी क्या?
स्वास्थ्य प्राणयुक्त शरीर की उस दिव्य अवस्था का नाम है जिसमें प्राणी अपने मूल स्वरूप में रहता है और शब्दावली आनंद का अनुभव करता है। स्वास्थ्य का अभिप्राय केवल यह नहीं है कि हम किसी शारीरिक एवं मानसिक रोग, पीड़ा या कष्ट से पीडि़त न रहें, स्वास्थ्य शरीर, मन एवं आत्मा की पूर्ण क्रियाशीलता, संतुलन एवं सामंजस्य की अवस्था है।
ऐसा स्वास्थ्य प्राप्त होने पर व्यक्ति में सदा दिव्य यौवन और चिर आनंद व्याप्त रहता है। हमारे शास्त्रों में वर्णित पूर्णायु प्राप्त कर वह बिना किसी कष्ट के मृत्यु को प्राप्त होता है, जैसे खरबूजे आदि फल पकने के बाद स्वत: ही डाली को छोड़कर गिर जाते हैं, उसी तरह पूर्णायु को प्राप्त कर वह बिना किसी रोग, कष्ट के सहज रूप में संसार से प्रस्थान कर जाता है। जब शरीर, मन और आत्मा तीनों संतुलित अवस्था में होते हैं, एक ही लय, सुर एवं ताल में होते हैं तो जीवन में स्वास्थ्य रूपी संगीत बजने लगता है। ऐसी अवस्था में कोई भी आंतरिक या बाह्य रोगोत्पादक तत्व प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाल सकता है। यही बात चरक ऋषि ने भी कही है-
आत्म: इन्द्रिय मन: स्वस्थ:।
स्वास्थ्य इति अवधीयते।। (चरक संहिता)
अर्थात् जिसकी आत्मा, मन एवं इंद्रियां स्वस्थ हों, वही वास्तव में स्वस्थ है।
स्वस्थ तन के लक्षण
दोनों समय अच्छी और सच्ची भूख लगना।
गहरी नींद आना। प्रात:काल सूर्योदय से पहले ही उठ जाना।
प्रात: उठने पर तन और मन में स्फूर्ति एवं उत्साह का अनुभव होना।
मल-मूत्र खुलकर आता हो। पसीने से विषाक्त द्रव्य नियमित निकलते रहते हों और गहरी, पूरी सांस आती हो। मल बंधा हुआ और नियमित हो।
शुद्ध रक्त का संचरण सामान्य अवस्था में हो। उच्च रक्तचाप या निम्न रक्तचाप न हो।
सारा दिन काम में उत्साह रखता हो। बिना थके कई घंटे काम करने की क्षमता हो।
सारे शरीर का एक-सा तापमान हो।
जीभ साफ हो और आंखों का रंग भी
साफ हो।
पसीने, मल-मूत्र एवं अपान वायु का दुर्गंधरहित होना।
रीढ़ की हड्डी सीधी एवं सीने व पेट का उठाव एक समान होना।
त्वचा मुलायम एवं चिकनी रहना।
आंखें एवं चेहरा कांतिमान और चमकता हुआ हो। आंखों या चेहरे पर दाग-धब्बे, दाग और फोड़े-फुंसी न हों।
पैर गर्म, पेट नरम और सिर थोड़ा ठंडा हो।
शरीर इतना सशक्त हो कि सभी कार्य करने की क्षमता और शारीरिक कष्ट सहन करने की भी शक्ति हो।
रचनात्मक कार्यों में लगे रहने की प्रवृत्ति हो।
शरीर में सभी रोगों का प्रतिकार करने की पर्याप्त क्षमता हो।
प्रकृति द्वारा बनाए हर मौसम, सर्दी-
गर्मी आदि ऋतुओं को सहने की शरीर में क्षमता हो।
मादक एवं उत्तेजक पदार्थों की चाह न हो।
स्वस्थ मन, बुद्धि, चित्त-ये भी उतने ही स्वस्थ हों ताकि आलस, निराशा
और निरुत्साह जैसे नकारात्मक भाव प्रवेश न कर पाएं।
क्रोध, शोक, भय, चिंता, भ्रम आदि मानसिक तनाव एवं उद्वेग न हों।
जीवन में दिन-प्रतिदिन होने वाले तनावों, मानसिक उत्तेजनाओं और आवेगों को सहने की पर्याप्त मानसिक शक्ति हो। सकारात्मक सोच हो।
बुद्धि प्रखर हो। उसकी निर्णायक शक्ति, विवेचना शक्ति और धारणा शक्ति अक्षुण्ण बनी रहे।
चित्त शांत हो। सुख-दु:ख में विचलित न हो। गीता के द्वितीय अध्याय में वर्णित स्थितप्रज्ञ के अधिकांश लक्षण उसमें हों।
अंत:करण शुद्ध और पवित्र हो। सबके लिए दया, प्रेम और सहानुभूति हो। ल्ल
रोगी शरीर की पहचान
गहरी नींद न आना या नींद आते रहना।
भूख न लगना या हर समय भूख लगना।
मल पतला या गांठ के रूप में आना।
शरीर से दुर्गंध आना। मल-मूत्र, पसीने एवं सांस में दुर्गंध होना।
नमक, मिर्च, मसाले, खटाई या उत्तेजक पदार्थों को खाने की इच्छा होना।
त्वचा खुरदुरी हो जाना या उसका रंग असामान्य हो जाना। शरीर का तापमान असामान्य रहना।
पेट छाती से बड़ा होना।
खाने के बाद भारीपन और तरह-तरह की तकलीफ होना।
सिर में दर्द रहना।
शरीर केकिसी भी अंग में दर्द रहना या किसी भी अंग के होने का भान होना।
किसी भी शारीरिक क्रिया का असामान्य होना।
सिर के बाल गिरना और गंजापन होना।
किसी भी नशीले पदार्थ का सेवन।
किसी भी कार्य में मन नहीं लगना।
सकारात्मक विचारों का न होना। हिंसा, क्रोध, नफरत, उदासी, डर, शक, निराशा, बदले की भावना इत्यादि नकारात्मक भावनाओं से उद्विग्न, बेचैन बने रहना।
विध्वंसात्मक कार्यों में प्रवृत्त होना।
चिड़चिड़ापन।
शीघ्र क्रोध आना। जल्दी ही उदास हो जाना। हमेशा मानसिक तनाव में रहना।
आलस आना या शिथिल रहना।
जल्दी थकान होना।
आंखों के चारों ओर कालापन या सूजन रहना।
चेहरे पर चकत्ते, फोड़े-फुंसी या कोई दाग होना।
जीभ पर पीली, सफेद या मटमैली मोटी परत होना।
चेहरे एवं त्वचा का रंग पीला या लाल रहना या मुरझाया हुआ रहना।
असमय आंखें कमजोर हो जाना और बाल सफेद हो जाना।
प्राण देवा अनुप्रणन्ति, मनुष्या: पशवश्चये-प्राणीहि भूतानामायु:।
तस्तार्स्तीयुषमुच्यते सर्वेमेवत आयुर्दयन्ति, ये प्राण ब्रह्मोपासते।।
(तैत्तिरीयोपनिषद्)
प्राण के अधिराज में ही देवता, मनुष्य एवं पशु सांस लेते हैं और जीवित हैं। प्राण ही सब प्राणियों का जीवन है। अत: उसे आयुष्य कहते हैं। जो प्राण की ब्रह्म रूप में उपासना करते हैं, वे पूर्ण आयु प्राप्त करते हैं।
'पृथव्यप्तेजोनिलखे समुस्थिते पंचात्मके योगगुणे प्रवृते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु:, प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्।।'
(श्वेताश्वरोपनिषद्)
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश की अभिव्यक्ति होने पर या इन पंचमहाभूतों के योग गुणों का अनुभव होने पर जिस योगी को पांचों के योग से तेजस्वी शरीर प्राप्त हुआ हो, उस योगी को न रोग होता है, न वृद्धावस्था प्राप्त होती है और न ही उसकी अकाल मृत्यु होती है।
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