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यह एक सुखद संयोग है कि स्वाधीन भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती 14 नवम्बर, 2014 को अर्थात् लगभग दो महीने बाद पड़ रही है। नेहरू स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधी के सिपहसालार के रूप में भारतीय राजनीतिक गगन पर छाये रहे। उनका नाम गांधी के साथ नत्थी कर दिया गया। 1942 में गांधी ने उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकार घोषित कर दिया और 1946 में 15 में से 12 प्रदेश कांग्रेस कमेटियों की पसंद सरदार पटेल को किनारे करके नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दिया जिसके कारण वे स्वाधीन भारत के 17 वर्ष तक प्रधानमंत्री बने रहकर भारत के भविष्य के शिल्पकार बन गए। जैसे-जैसे समय गुजर रहा है, यह स्पष्ट होता जा रहा है कि नेहरू के नेतृत्व में भारत की यात्रा भटकाव की यात्रा रही है। नेहरू को न सही इतिहास दृष्टि प्राप्त थी, न वर्तमान की यथार्थवादी समझ। व्यक्तियों की परख तो उन्हें थी ही नहीं। उन्होंने आर्थिक, प्रशासनिक, शैक्षणिक, सामाजिक आदि किसी भी क्षेत्र में राष्ट्रीय एकता, समृद्धि और सैनिक शक्ति को बढ़ाने वाली कोई नयी रचना खड़ी नहीं की। आज भारत जिन अनेक विध समस्याओं से जूझ रहा है उन सबके बीज नेहरू जी की नीतियों में पाये जा रहे हैं।
नेहरू की विकृत इतिहास दृष्टि का ही परिणाम है कि भारत में राष्ट्रीयता का जो प्रवाह सहस्रों वर्षों से बहता आ रहा है, उसे साम्प्रदायिकता घोषित कर दिया गया और जिस असहिष्णु, विस्तारवादी व पृथकतावादी विचारधारा से यह देश साढ़े बारह सौ वर्षों से जूझता आ रहा था उस पृथकतावादी विचारधारा के मुख्य राष्ट्रीय धारा में घुल मिल जाने का वातावरण पैदा करने के बजाए नेहरू ने उसे अल्पसंख्यकवाद की श्रेणी में रखकर 'सेकुलरिज्म' की कसौटी बना दिया । पिछले 67 वर्षों से भारत की राजनीति इसी पृथकतावादी अल्पसंख्यकवाद और झूठे सेकुलरिज्म की बंदी बनी हुई है। इस पारिभाषिक विकृति के पीछे नेहरू की हिन्दू विरोधी और मुस्लिम प्रेम की मानसिकता की मुख्य भूमिका बहुत स्पष्ट है।
अपनी इस विकृत इतिहास दृष्टि के कारण 1947 में देश विभाजन की त्रासदी की सही कारण-मीमांसा नहीं हो पा रही और यही विषय निष्काम देशभक्त सरदार पटेल और सत्ताकामी नेहरू के बीच मतभेद का मुख्य कारण बना। सरदार पटेल यथार्थ की कठोर भूमि पर खड़े होकर एक सशक्त, समृद्ध स्वाभिमानी भारत का निर्माण करना चाहते थे, जबकि नेहरू मुस्लिम वोट बैंक और रूस-भक्त कम्युनिस्टों के कंधों पर सवार होकर विश्व राजनीति में चमकने का सपना देखते थे। अपनी इसी महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर उन्होंने महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध शेख अब्दुल्ला का साथ दिया, सरदार की इच्छा के विरुद्ध कश्मीर समस्या को राष्ट्र संघ में ले जाकर अन्तरराष्ट्रीय हस्तक्षेप आमंत्रित किया।
इसी प्रकार नेहरू ने 1949 में विश्व जनमत के विरुद्ध जाकर कम्युनिस्ट चीन की सरकार को कूटनीतिक मान्यता देकर निरीह तिब्बत को भारत व चीन के मध्य एक मध्यवर्ती राज्य की भूमिका से वंचित करके उसे चीन के मुंह में झोंक दिया। कम्युनिस्ट चीन द्वारा हजारों वर्ग मील भारतीय भूमि पर कब्जा जमाने के विरुद्ध चुप्पी साध ली, भारतीय संसद को भी अंधेरे में रखा। सरदार ने अपनी मृत्यु के पूर्व एक लम्बा पत्र लिखकर प्रधानमंत्री नेहरू को चीन के विस्तारवादी इरादों के प्रति आगाह किया था किंतु नेहरू ने उस चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसी का परिणाम है कि एक ओर कश्मीर के प्रश्न पर भारत को अपना खून और पैसा पानी की तरह बहाना पड़ रहा है, दूसरी ओर चीन हमारी विदेश नीति पर राहू बन गया है। हमारी हजारों मील लम्बी उत्तरी सीमा पर चीन के सैनिक आक्रमण का खतरा मंडरा रहा है।
देश के आर्थिक विकास के लिए नेहरू ने गांधी की हिंद स्वराज में प्रस्तुत विकास की स्वदेशी अवधारणा को पूरी तरह ठुकरा दिया और पश्चिम के मशीनी औद्योगिकीकरण की नीति को अपनाया, कम्युनिस्ट सोवियत संघ के अनुकरण पर पंचवर्षीय योजनाओं का कार्यक्रम अपनाया और इन योजनाओं की कागजी रूपरेखा तैयार करने के लिए दिल्ली में योजना आयोग नामक एक सफेद हाथी खड़ा किया। विकास के इस मॉडल का ही परिणाम है कि आज देश में गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले वर्ग की संख्या बढ़ती जा रही है और यह वर्ग स्वावलम्बन के रास्ते पर बढ़ने के बजाए राज्य द्वारा वितरित भिक्षा वृत्ति पर जीने के लिए मजबूर है।
नेहरूवाद को राजधर्म के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया और उसके बारे में प्रश्न उठाने वालों को अल्पसंख्यक विरोधी साम्प्रदायिक घोषित कर दिया गया। आसेतु हिमाचल भारतीय राष्ट्रवाद की उपासना करने वाले, राष्ट्र की एकता और अखंडता की बात करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर गांधी जी की हत्या का झूठा आरोप मढ़कर संघ को फासिस्ट और राजनीति में अछूत बनाने का प्रयास किया गया।
2014 की भारी पराजय से झूठ के इस महल की नींव हिल गयी है। और नेहरू द्वारा प्रवर्तित वंशवादी राजनीति को अपना अस्तित्व खतरे में दिखायी देने लगा है। 1950 में सरदार पटेल की असामयिक मृत्यु का लाभ उठाकर नेहरू ने कांग्रेस को वंशवाद के रास्ते पर तेजी से बढ़ाकर पहले वे स्वयं 'एक व्यक्ति एक पद' के गांधी सिद्धांत को ठुकराकर प्रधानमंत्री होते हुए कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन बैठे। धीरे-धीरे उन्होंने अध्यक्ष पद अपनी पुत्री इंदिरा की गोद में डाल दिया। इंदिरा ने अपने छोटे पुत्र संजय को अपने उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित करने की कोशिश की, किंतु एक दुर्भाग्यपूर्ण विमान दुर्घटना में संजय की आकस्मिक मृत्यु से आहत इंदिरा ने अपने विमान चालक बड़े बेटे राजीव गांधी को उत्तराधिकार सौंपने की प्रक्रिया आरंभ की। पर राजीव गांधी अपनी अदूरदर्शी व परस्पर विरोधी नीतियों के कारण हत्यारों के षड्यंत्र का शिकार बन गये तब कांग्रेस की डूबती नैया को एक सामान्य परिवार में जन्मे पी.वी.नरसिंह राव ने बचाया और पूर्ण बहुमत न होते हुए भी पांच साल तक सत्ता सुख का भोग कराया। किंतु राजीव की इटालियन विधवा सोनिया ने 2004 में सत्ता पाते ही नरसिंह राव को विस्मृति की कोठरी में फेंक दिया। सोनिया के नेतृत्व में यूपीए के दस साल लम्बे शासनकाल में कभी न् ारसिंह राव के 'कटआउट' नहीं लगाये गये। केवल राजीव के बड़े-बड़े आदमकद 'कटआउट' छाये रहे। यहां तक कि नरसिंह राव का अंतिम संस्कार भी दिल्ली में नहीं होने दिया गया। लगभग सब सरकारी योजनाओं, पुरस्कारों, सार्वजनिक भवनों का नामकरण राजीव के नाम पर किया गया। इससे भी हास्यास्पद बात यह हुई कि नेहरू के वंशवाद के साथ गांधी का नाम भी जोड़ लिया गया। नेहरू गांधी परिवार जैसी शब्दावली का प्रयोग किया जाने लगा।
गांधी जी वंशवाद के इस खेल में पूरी तरह ठगे गये। नेहरू ने गांधी जी की विचारधारा एवं आदर्शों को पूरी तरह अस्वीकार किया, किंतु गांधी की छत्रछाया में बने रहकर भारतीय समाज पर गांधी जी के व्यापक प्रभाव का लाभ उठाकर लोकप्रियता अर्जित की। हम पहले लिख चुके हैं कि नेहरू बौद्धिक धरातल पर गांधीवादी न होकर मार्क्सवादी थे, किंतु कम्युनिस्टों व सोशलिस्टों के बार-बार उकसाने पर भी वे गांधी जी से खुला टकराव लेने को तैयार नहीं थे, क्योंकि वे जानते थे कि उस टकराव में उनकी पराजय सुनिश्चित है और तब गांधी के कंधों पर बैठकर सत्ता के गलियारों में प्रवेश करने का उनका स्वप्न धूल धूसरित हो जाएगा। गांधी जी इसी भ्रम में जीते रहे कि आज नेहरू भले ही मुझसे भिन्न भाषा बोलते हों पर एक दिन वे मेरी भाषा ही बोलेंगे। हुआ इसका उलटा। प्रधानमंत्री बनने और सरदार पटेल की मृत्यु के बाद नेहरू ने समाजवाद की भाषा बोलना शुरू कर दिया। पर वे सच्चे समाजवादी भी नहीं थे। 1939 के अपने गोपनीय पत्राचार में सुभाष बोस ने नेहरू से दो टूक सवाल पूछा था कि तुम स्वयं को समाजवादी कहते हो पर जब आचरण का मौका आता है तो तुम व्यक्तिवादी बन जाते हो। आखिर, तुम हो क्या? इस प्रश्न का उत्तर नेहरू ने दिया कि बुद्धि से मैं समाजवादी हूं पर स्वभाव से व्यक्तिवादी। वस्तुत: नेहरू के लिए गांधी व समाजवाद दोनों ही सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाने वाली सीढि़यां थीं। वे अपने साथियों के लिए दो -ाुंही भाषा बोलते थे। जेल में लिखीं उनकी डायरियां अब प्रकाशित हो चुकी हैं। उनको पढ़ने से इसका प्रमाण मिल जाता है।
67 वर्षों तक भारत का सार्वजनिक जीवन नेहरूवाद के जंगल में भटकता रहा। नेहरू दृष्टि से दौड़ते हुए राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय घटनाचक्र को देखता रहा। अब समय आया है कि नेहरूवाद के भ्रमजाल से मुक्ति पायी जाए। संयोग से आगामी 14 नवम्बर को नेहरू की एक सौ पच्चीसवीं जयंती पड़ रही है। सोनिया के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने इस वर्ष पर एक वर्ष लम्बे कार्यक्रमों की योजना तैयार की थी। उसके लिए तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रियों की एक भारी भरकम कमेटी बनायी गई थी। ये मंत्री थे- ए.के.एंटोनी, पी.चिदम्बरम, सलमान खुर्शीद, कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी। इन मंत्रियों के अलावा सोनिया ने यूपीए अध्यक्ष के नाते अपना नाम भी रखा था, किंतु 2014 के चुनाव परिणामों ने इस भारी भरकम सरकारी योजना का महल पूरी तरह ढहा दिया। इसलिए पराजय का सामना होते ही सोनिया ने चुपचाप अपना त्यागपत्र भेज कर स्वयं को उस कमेटी से अलग कर लिया। यह सोनिया की राजनीतिक शैली के अनुरूप ही है। इस समय भारतीय राजनीति में वह सबसे चालाक राजनीतिज्ञ के रूप में उभरी हैं। उनकी राजनीति का अस्सी प्रतिशत भाग परदे के पीछे या मेज के नीचे छिपा रहता है और केवल 20 प्रतिशत जनदृष्टि में आता है। सत्ता के केन्द्रों को वह अच्छी तरह पहचानती हैं। इसीलिए चुनाव परिणाम आते ही उन्होंने चुपके से नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय के अध्यक्ष पद से अपने को मुक्त कर लिया पर साथ ही डॉ.महेश रंगराजन की निदेशक पद पर नियुक्ति को स्थायी कर दिया। उन्होंने एक दिन पांच मिनट के लिए माईक पर आकर 2014 की पराजय के लिए अपने को और उपाध्यक्ष राहुल को जिम्मेदार घोषित करने का नाटक किया, किंतु कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद को छोड़ा नहीं है। त्यागपत्र देने का नाटक भी किया गया। किंतु मीडिया के अवलोकन से स्पष्ट है कि सोनिया की इच्छा के बिना वहां पत्ता भी नहीं हिलता। शायद इस गुप्त राजनीति का ही हिस्सा है कि सोनिया मेडिकल चेकअप के बहाने यूरोप और अमरीका की यात्रा पर निकल गयी हैं। यह यात्रा उन्होंने एक दिन आगे बढ़ायी क्योंकि पंजाब विश्वविद्यालय के चुनाव में एनएसयूआई की टीम की पीठ ठोंकना आवश्यक था।
जागरूक पाठकों को स्मरण होगा कि 1991 के चुनावों में पराजय और पी.वी.नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद सोनिया कोप भवन में चली गयी थीं। नरसिंह राव के साथ मंच पर शायद ही कभी आयी हों किंतु परदे के पीछे अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी जैसे वफादारों के माध्यम से राजनीति के तार हिलाती रहीं। इस दृष्टि से सोनिया की राजनीतिक चालों पर तेज नजर रखना बहुत जरूरी है। अब वह नेहरू जयंती के माध्यम से मीडिया और बौद्धिक जगत में बहस शुरू करने की रणनीति तैयार करने में जुटी हैं। उन्हें लग गया है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार इस जयंती को उस पैमाने पर नहीं मनाएगी जिस पैमाने पर वे यूपीए सरकार के माध्यम से मनवा सकती थीं। इसलिए अब उन्होंने उस दल के धरातल पर मनाने की योजना तैयार की है। इसके लिए 6 सितम्बर को एक कार्यान्वयन समिति का गठन किया गया, जिसका अध्यक्ष शीला दीक्षित को बनाया गया है। उनके साथ पूर्व मंत्री आनंद शर्मा, जयराम रमेश, मुकुल वासनिक और मोहन गोपाल को रखा गया है। मोहन गोपाल का नाम ध्यान देने योग्य है। मोहन गोपाल राजीव गांधी इंस्टीट्यूट फॅार कन्टम्पोरेरी स्टडीज के निदेशक हैं। समिति का संयोजक पद मुकुल वासनिक को दिया गया है। नेहरू जयंती के कार्यक्रमों का मुख्य लक्ष्य नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध जवाहरलाल नेहरू को खड़ा करना रहेगा। इसके लिए देशभर में कॉलेज स्तर पर कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। इस जयंती के माध्यम से नेहरूवाद का पुनर्मूल्यांकन भारत के आत्मबोध की आवश्यकता है। नेहरूवाद की यह बौद्धिक चुनौती राष्ट्र के लिए वरदान सिद्ध होगी पहली बार गांधी जी, सरदार पटेल और नेताजी सुभाष बोस के साथ नेहरू के संबंधों को उनके वास्तविक रूप में देखा जा सकेगा। हम पाञ्चजन्य के पाठकों तक यह बहस पहुंचाने का यथासंभव प्रयास करेंगे। -देवेन्द्र स्वरूप
(10 सितम्बर, 2014)
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