|
-अरुणेन्द्र नाथ वर्मा-
कभी-कभी मुझे बड़े अजीब से सपने आते हैं। कुछ तो इतने विचित्र होते हैं कि उन्हें भूलना कठिन होता है। सुबह से ही उस सपने को समझने की कोशिश कर रहा हूं जिसे आज भोर में देखने के बाद फिर आंख नहीं लगी। आप भी सुनिए, शायद आप उसे समझ पायें।
मैंने देखा कि अमरीका की गगनचुम्बी् अट्टालिकाएं देखता हुआ मैं पूरब की ओर जा रहा हूं कि उधर से एक सज्जन, जिनकी काली दाढ़ी थी बदहवास लहूलुहान से चले आ रहे हैं। मैंने सहानुभूतिपूर्वक पूछा आप देखने में तो अब्राहम लिंकन जैसे लग रहे हैं,ये चोट कैसे लग गयी। बोले ठीक पहचाना। मैं यहां लोगकेबिन (पर्णकुटी) से राष्ट्रपति निवास (व्हाइट हाउस) तक की यात्रा समाप्त करके बैठा था, तभी पता चला कि सुदूर भारत में कोई और भी मेरी तरह ही चाय की दुकान से प्रधानमंत्री निवास तक की यात्रा पूरी कर चुका है। सोचा जरा चल कर देखूं कौन है वो। पर जैसे ही उस धरती पर पैर रखा, देखा कि वहां बड़े-बड़े पत्थर उन लोगों को निशाने पर लेकर फेंके जा रहे हैं, जिनके पास किसी विश्वविद्यालय की डिग्री नहीं है। उसी में मैं भी लहूलुहान हो गया। मैंने पूछा ऐसी खतरनाक जगह आप अकेले गए ही क्यूं? वे बोले नहीं भाई, अकेले कहां था। मेरे साथ व्हाइट हाउस में दो-दो कार्यकाल बिताने वाले हैरी. एस. ट्रूमन भी थे। हमारे पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन और मित्र देश इंग्लैण्ड के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल आदि तमाम लोग थे। वे सभी बेचारे पत्थरों से घायल होकर आ रहे हैं। मैंने कहा लगता है किसी पागल की बिना कालेज डिग्री वाले राजनयिकों से दुश्मनी थी' वे बोले हां शायद बात राजनायिकों तक ही सीमित थी अन्यथा हेनरी फोर्ड, लियो टॉलस्टाय, चार्ल्स डिकेंस और मार्क ट्वेन वगैरह सबकी पिटाई होती। मैंने कहा आप सब बुजुर्ग थे तभी पिट गए, कोई नौजवान होता तो यूं पिट कर नहीं आता।
उन्होंने जोर-जोर से अपनी कली दाढ़ी वाली नुकीली ठोढ़ी प्रतिवाद में हिलाई। बोले अरे भाई, वहां सिर्फ बुड्ढे ही नहीं थे- यहां से बेचारा नयी फसल का युवा मार्क जुकरबर्ग भी गया था, जो स्कूल छोड़-छाड़कर फेसबुक की ईजाद से धनकुबेर बन गया। इन्टरनेट वाला बिल गेट्स भी था और ऐपल कम्प्यूटर वाला स्टीव जाब्स भी। सभी के सिर वहां चलते पत्थरों से फूट गये। मेरे पीछे-पीछे वे सब आ रहे हैं, बहुत से ऐसे भी हैं, जिन्हें मैं पहचानता नहीं। शक्ल सूरत से आपके देश वाले लग रहे थे।
मेरे कौतूहल का ठिकाना न था,स्वयं को रोक न सका। जैसा केवल सपनों में संभव है, मैं क्षण भर मे ही सात समंदर पार अपने देश पहुंच गया। पलक झपकते ही एक बुजुर्गवार सामने आकर खड़े हो गए। दाढ़ी और सिर पर लगी टोपी देखकर याद आ गया कि उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में कूदकर अपने नाम अबुलकलाम के आगे 'आजाद' जोड़ लिया था। वे शिक्षामंत्री भी रहे थे। उनके भी माथे से खून बह रहा था। मैंने पूछा क्या हो गया आपको? बोले किसी विश्वविद्यालय की डिग्री नहीं ली थी, उसी की सजा भुगत रहा हूं। उनसे बात पूरी भी नहीं हुई कि उनके पीछे लंगड़ाते घिसटते लहूलुहान के. कामराज दिखे, जो मैट्रिक पास भी नहीं थे। साथ में करुणानिधि भी माथे पर कालेज डिग्रीहीनता का कलंक लगाए दिखे। किस-किस का नाम लूं, यहां तो भीड़ लगी हुई थी बड़े-बड़े दिग्गजों की, जो बिना डिग्री के कुशल प्रशासक रह चुके थे और अब अपराधियों की तरह रक्तरंजित सिर झुकाए खड़े थे।
वहीं दो महिलायें भी दिखीं जो सास-बहू लग रही थीं। सास जी की तुलना कभी दुर्गा से की गयी थी पर अभी वे आक्सफोर्ड और विश्वभारती की तस्वीरें लिए हुई रो रही थीं कि वहां से डिग्री लिए बिना क्यूं आ गयी। बहू जी अपने बंगले के बाहर लगी नेमप्लेट में नाम के आगे लिखी डिग्री के आगे 'कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय' शब्द को काटकर
जल्दी-जल्दी 'कैम्ब्रिज शहर' लिख रही थीं। सास बहू लहूलुहान नहीं थीं, पर उनका
भव्य बंगला नेस्तनाबूत था।
मेरी प्रश्न भरी निगाहों को देखकर बिफर पड़ीं। सिसकते हुए बोलीं हजार बार समझाया था कि, जिनके अपने घर शीशे के हों
वे दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंकते, पर मकान की सुरक्षा वह क्या समझता, जिसे मकान के सही हिज्जे भी न मालूम हों। जो हार कर भी अपने को अजय कहता हो तभी मेरी आंख खुल गयी। काश उनकी भी खुल जाएं, जो जागते हुए भी आंखें बंद किये हुए हैं। ल्ल
टिप्पणियाँ