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पड़ोस में शांति है तो घर में शांति है। घर में शांति है तो दिल में शांति है। कथन तो ठीक है, परंतु पाकिस्तान जैसे पड़ोसी के साथ घर और दिल की शांति जैसी बातें दुर्लभ और अप्राप्य लगने लगती हैं। बात में कोई उलाहना नहीं, बल्कि ठोस सचाई है। सेना प्रतिष्ठानों और कराची हवाई अड्डे पर हुए ताजा हमले की तीव्रता को देखते हुए आज यह जरूरी हो गया है कि पाकिस्तान के राज-समाज की खदबदाती अंतर्धाराओं को समझा जाए। यहां मजहबी उन्माद का आतंकी लावा है और इस ज्वालामुखी को दीए की लौ की तरह बचाते सैन्य सत्ता के हाथ भी। जनरलों के पट्टे पर चलती लोकतांत्रिक व्यवस्था है और हाशिए पर पड़े मुहाजिरों और अन्य मतावलंबियों की कराहें भी। धमाके की गूंज कैसी थी, इसके जिक्र की आज जरूरत नहीं। जरूरत गड़बड़ी के पोस्टमार्टम की है।
पहली बात, इस धमाके में इस्लामी कट्टरवाद के विस्तार की आहट है। पाकिस्तान के सीमांत इलाकों में और कुछ हो न हो सेना और आतंकी कमांडरों के गठजोड़ के लिए दुनिया की नजरों से दूर का यह बदहाल कबीलाई जीवन इस्लामी कट्टरवाद की फसल उगाने की उर्वर भूमि है। इस जनजातीय इलाके में लोगों को जिहादी घुट्टी पिलाते हुए अत्याधुनिक हथियार थमाने का खेल पुराना है। यही नहीं 'शरिया राज की खातिर मुस्लिम बिरादरान में एका' करने की इस बड़ी मुहिम में अफगानिस्तानी तालिबान से लेकर चीन के मुस्लिम उइगर विद्रोहियों को भी इस इलाके में शरण, संरक्षण मिलता रहा है। हाल की घटना तो और भी चौंकाने वाली है। पाकिस्तान पैरामिलिट्री सेना के अनुसार भले ही तहरीक-ए-तालिबान ने कराची हमले की जिम्मेदारी ली हो, लेकिन खूनी अभियान को उज्बेक हमलावरों ने अंजाम दिया। पाकिस्तानी तालिबान के शीर्ष कमांडर अब्दुल्ला बहर महसूद ने भी कहा है कि हमला तालिबान और उज्बेक लड़ाकों का साझा अभियान था। अति सक्रिय उज्बेक भूमिका को इस संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए कि 90 के दशक में स्थापित जिहादी समूह, इस्लामिक मूवमेंट का उद्देश्य उज्बेक राष्ट्रपति इस्लाम करीमोव को हटाने से लेकर पूर्व सोवियत मध्य एशियाई देशों में शरीयत का राज्य स्थापित करना था। फिलहाल खबरें ऐसी हैं कि तालिबानी दबदबे की छतरी तले उज्बेक और उइगुर आतंकी वजीरिस्तान के पहाड़ों में एकजुट हो रहे हैं।
दूसरी बात, इस धमाके में मुहाजिर विरोध का पंजाबी बारूद भी है। पृथक बंगलादेश बन जाने के बाद भी भाषाई वर्चस्व और देश पर असली दावा ठोकने की लड़ाई पाकिस्तान में बहुत तेज है। ऐसा सिर्फ पाकिस्तान में ही हो सकता है। लंदन में निर्वासित जीवन बिता रहे मुहाजिर कौमी मूवमेंट के नेता अल्ताफ हुसैन का दृष्टिकोण ध्यान देने लायक है। वह अरसे से कह रहे हैं कि मुहाजिरों को सबक सिखाने के सोचे-समझे षड्यंत्र के अंतर्गत ही कराची में आतंकवाद को पैर पसारने की छूट दी गई है। उनकी बात खारिज नहीं की जा सकती, क्योंकि यहां सत्ता में सौतेले व्यवहार के शिकार मुहाजिर आज भी उस पंजाबी समुदाय को खटकते हैं, जिसका सत्ता,शासन और विशेषकर सैन्य अधिष्ठान में बोलबाला है।
तीसरी और अत्यंत महत्वपूर्ण बात, यह वर्दी की वजीर से लड़ाई है। कभी नवाज शरीफ की जान हलक में अटका देने वाले जनरल परवेज मुशर्रफ आज भी यदि आलीशान फॉर्म हाउस में कैद काट रहे हैं तो यह बेदम सरकार और सेना के दबदबे का ही एक उदाहरण है। पाकिस्तान में सेना एक ऐसी छलिया भूमिका में है जिसने पूरे देश के साथ और लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ लगातार धोखा किया है। तीन बार तख्तापलट देने वाली सेना ने मुल्क के प्रति वफादारी की ऐसी हवा बनाई है कि लोग सेना को ही स्थाई सरकार मानने लगे हैं। यह भी सच है कि यहां शासन की हर तह के नीचे सेना के वफादार सूत्र हैं। भारत के न्यौते पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का गर्मजोशी भरा रवैया सेना और उसके पोसे आतंकी विषधरों को बौखलाहट से भरने वाली बात थी। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के हमलों का विश्लेषण करने वाले सुरक्षा विशेषज्ञ यह मानते हैं कि ऐसा सटीक, योजनाबद्ध और घातक हमला अंदर की खबर रखने वालों और हवाई अड्डे पर तैनात सैन्यकर्मियों की मदद के बिना संभव ही नहीं था। वैसे भी सत्ता की फजीहत और सामाजिक जीवन में उथल-पुथल का कोई मौका पाकिस्तानी सेना नहीं छोड़ती। उठापटक से कमाई इस धमक के बूते आज व्यापार और सामाजिक जीवन से लेकर नीति-निर्धारण तक कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां सेना शासकीय सत्ता के सामने ताल नहीं ठोक रही।
बहरहाल, गड़बड़ बड़ी है। अलग-अलग स्तर पर है और पाकिस्तान का आंतरिक मसला है। लेकिन, पड़ोस में उठती यह चिंगारी भारत और बाकी दुनिया के लिए भी चिंता की वजह है, क्योंकि परमाणु शक्ति संपन्न देश में जिहादी बारूद का जखीरा पूरी दुनिया में शांति ध्वंस का विनाशकारी सपना देख रहा है।
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