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-डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल-
रानी मां गाइदिन्ल्यू का जीवन दर्शन भारतीय इतिहास की एक वीर पुत्री की अमर गाथा है। उनका जीवन न केवल मणिपुर तथा नागा प्रदेश अपितु सम्पूर्ण भारत के स्वाभिमान, यश तथा गौरव की प्रेरणादायी कहानी है। वे पूर्वोत्तर की पहली महिला थीं जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह, ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध संघर्ष अपने पंथ व संस्कृति की रक्षा के लिए भरसक प्रयत्न तथा स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्रद्रोहियों के विरुद्ध मोर्चा लिया। वे एक ऐसी नागा महिला थीं जिन्होंने 14 वर्षों तक भारत की विभिन्न जेलों-गौहारी, शिलांग, आइजो (मिजो महाडि़यों में) तथा ट्ररा (गोरा पहाडि़यों) में यातनाएं सहीं तथा अनेक वर्षों तक भूमिगत रहकर संघर्ष किया। वे एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने छोटी आयु में अंग्रेजों के विरुद्ध आध्यात्मिक तथा राजनीतिक नेतृत्व प्रदान किया था। (देखें, एस. एस. शशि, एन्साइक्लोपीडिया इंडिया : इंडिया, पाकिस्तान एंड बंगलादेश, 1996 पृ.3 1270)
रानी गाइदिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 को मणिपुर के एक ग्राम में रांगमियी जनजाति में हुआ था। इनकी छ: बहनें और एक भाई था। इनके पिता मणिपुर राज्य के पश्चिमी जनपद में अपने गांव के प्रभावी शासक वर्ग से संबंध रखते थे। गाइदिन्ल्यू की औपचारिक स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी, परन्तु इनके माता-पिता बचपन से उनके स्वतंत्र चिंतन, दृढ़ इच्छाशक्ति तथा अद्भुत प्रतिभा से आश्चर्यचकित थे।
13 वर्ष की आयु में वह अपने चेचेरे भाई क्रांतिकारी जदोनाग से पहली बार मिलीं। यह उनके जीवन का क्रांतिकारी, परिवर्तनकारी मोड़ था। जदोनाग ने 'हराका' नाम से एक आध्यात्मिक-राजनीतिक पंथ की स्थापना कर नागा समुदाय में धार्मिक सुधार तथा अंग्रेजों को भारत से निकालने का बीड़ा उठाया था।
हराका आन्दोलन
हराका का शाब्दिक अर्थ है पवित्र अथवा शुद्ध। गाइदिन्ल्यू ने जदोनाग से मिलकर नागाओं के तीन कबीलों जेमी, ल्यांगमेयी तथा रांगमयी में इसे जेलियांगरांग नाम से स्थापित कर हराका आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन का उद्देश्य नागा पंथ के पूर्वजों की संस्कृति, प्राचीन श्रेष्ठ परम्पराओं का पालन, अन्धविश्वासों से मुक्ति तथा सदियों से चली आ रही ग्रामीण संस्थाओं को बनाये रखना था। वे इन सबको विदेशी प्रभाव से मुक्त रखना चाहते थे। गाइदिन्ल्यू ने स्वयं कहा था कि विदेशी पंथ एवं संस्कृति के आक्रमण से नागा पहचान को खतरा होगा। इन खतरों से सावधान रहो। शीघ्र ही वह अपने सात्विक तथा आध्यात्मिक विचारों से नागा समुदाय में लोकप्रिय तथा श्रद्धा की पात्र बन गईं। नागा लोग उन्हंे चेराचामंदीन्ल्यू देवी का अवतार मानने लगे। (विस्तार के लिए देखें, अरकोरोंग लोंग कुसेर, रिफॉर्म, आइडेन्टिटी एंड नेरेटिव्ज ऑफ बिलोंगिंग : द हरकारा मूवमेंट इन नार्थ-ईस्ट इंडिया, 2010) इस आध्यात्मिक आन्दोलन ने शीघ्र ही अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता के आंदोलन का स्वरूप ले लिया। 1927 में ही जादोनाग तथा गाइदिन्ल्यू ने पूरी तरह स्वतंत्रता का आन्दोलन प्रारंभ किया। यह आन्दोलन मणिपुर के पश्चिम जनपद, दक्षिणी नागालैंड और असम के उत्तरी कछार में फैला। यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस ने सम्पूर्ण देश में 1929 में पूर्ण स्वराज की मांग की थी। अर्थात यह उससे दो वर्ष पहले था।
ब्रिटिश सरकार से टकराव
जादोनाग इस राजनीतिक आन्दोलन का संचालक था तथा उसकी बहन गाइदिन्ल्यू उसका दाहिना हाथ तथा आन्दोलन की मुख्य सेनापति थी। आन्दोलन को गति मिलने से पूर्व ही जादोनाग को झूठे हत्या के अपराध में सरकार ने पकड़ लिया तथा 29 अगस्त, 1931 की प्रात: इम्फाल में फांसी दे दी। अब स्वतंत्र आन्दोलन की बागडोर गाइदिन्ल्यू ने साहसपूर्ण ढंग से संभाली। नागा लोग ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों तथा अपमानजनक व्यवहार से बहुत दुखी थे। किसी भी अंग्रेज के सामने आने पर नागाआंे को अपनी छतरी बंद करनी पड़ती तथा उसके सम्मान में टोपी उतारनी पड़ती थी। बेगार के रूप में उसका समान ढोना पड़ता। उसके खाने-पीने की व्यवस्था करनी पड़ती। प्रत्येक घर से तीन रुपया गृहकर लिया जाता तथा उनसे बेगार कराई जाती। कहना न मानने पर पिटाई तथा महिलाओं की बेइज्जती की जाती। गाइदिन्ल्यू उसे उत्तर-पूर्व में ब्रिटिश सरकार का आतंक कहती थीं। गाइदिन्ल्यू ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने समर्थकों का आह्वान किया और कहा कि ह्यहम एक स्वतंत्र देश हैं और गोरों को हम पर राज करने का कोई अधिकार नहीं है। हम सरकार को कोई कर नहीं देंगे तथा बन्धुओं, मजदूर व जबरन कुलीगिरी जैसे गलत कानूनों को नहीं मानेंगे।ह्ण संयोग से 1930-34 में ही महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन के अन्तर्गत सरकार को कर न देने का कार्यक्रम भी था। शीघ्र ही गाइदिन्ल्यू के विचारों का चमत्कारिक प्रभाव हुआ। गजब का जन समर्थन मिला।
कछार से 100 बन्दूकों के प्राप्त हो जाने से सशस्त्र आन्दोलन को तीव्र गति से बढ़ावा मिला। नागा महिलाओं ने भी सैनिक प्रशिक्षण लिया। ब्रिटिश सरकार आशंकित तथा भयभीत हुई। तीनों प्रभावित जिलों में सेना भेजी गई, चौकियां स्थापित की गईं। नागा हिल्स कमिश्नर जे.पी. मिल्स ने स्वयं तीसरी व चौथी असम राइफल्स का नेतृत्व किया। गाइदिन्ल्यू को पकड़ने के प्रयत्न किये गये। उसके फोटो वितरित किये गए। जानकारी देने वालों को 500 रुपये का इनाम तथा सूचना देने वाले गांव को 10 वर्ष की कर छूट की घोषणा की गई। अंग्रेजों ने लंबुओं (नम्बरदारों) को उनके गांव भी भेजा। ऐसा माना जाता है कि एक लंबू ने उनसे विवाह का प्रस्ताव भी रखा तथा गाइदिन्ल्यू के विरुद्ध अंग्रेज सरकार से माफी की बात की, परन्तु वह चकमा देकर भाग गईं। (देखें, जगमल सिंह, पूर्वोत्तर में स्वतंत्रता सेनानी, नई दिल्ली, 2009, पृ. 54) गाइदिन्ल्यू भूमिगत होकर स्वतंत्रता आंदोलन चलाती रहीं। 16 फरवरी, 1932 को मणिपुर में सरकार ने गाइदिन्ल्यू के नहीं पकड़े जाने पर कई गांव जला दिये। उत्तरी कछार के पहाड़ी क्षेत्र में असम राइफल्स से संघर्ष हुआ।
टकराव बढ़ता गया। मार्च 1932 में नागाओं ने असम राइफल्स की हंग्रम चौकी पर धावा बोल दिया। गाइदिन्ल्यू के समर्थक राइफल्स के सम्मुख मुकाबला न कर सके। कई नागा मारे गये। नागा पहाड़ी के गांव बोपुंगवी को जलाकर नष्ट कर दिया। आन्दोलन नागा पहाडि़यों के मुख्यालय कोहिमा तक बढ़ गया। अक्तूबर, 1932 में गाइदिन्ल्यू के समर्थकों ने पोलोमी गांव में एक काष्ठ दुर्ग भी बनाया। इस दुर्ग में 40,000 तक योद्धा रह सकते थे। इसी निर्माणाधीन दुर्ग के बीच, 17 अक्तूबर 1932 को नागा योद्धाओं तथा असम राइफल्स के सैनिकों के बीच भयंकर संघर्ष हुआ।
नागाओं को आत्मसमर्पण करना पड़ा तथा गाइदिन्ल्यू को भी एक घर से गिरफ्तार कर लिया गया। बचाव के लिए गाइदिन्ल्यू ने कमाण्डर के हाथ को काट लिया। उसे हथकड़ी पहना दी गई। एक वृद्ध ने इतने सैनिकों के होते हुए एक महिला को हथकडि़यों में ले जाते हुए व्यंग्य किया। सैन्य अधिकारी ने गरज कर कहा चुप। उस बूढ़े ने सेना पर पत्थर फेंके तथा कई सैनिक घायल हो गए। पहले उसे भी पकड़ लिया गया तथा बाद में छोड़ दिया गया। गाइदिन्ल्यू पर मुकदमा, पहले कोहिमा तथा बाद में इम्फाल में चलाया गया।
जेल जीवन
मिस्टर हिंगिस ने गाइदिन्ल्यू को आजीवन कारावास की सजा सुनाई (देखें सर रॉबर्ट रीड, हिस्ट्री ऑफ द फ्रन्ट्रियर एरियाज बॉर्डरिंग ऑन असम (1883-1941, पृ. 86) इस प्रकार गाइदिन्ल्यू के अनेक समर्थकों तथा अनुयायियों को जेल की सजायें तथा अन्य को कठोर दण्ड दिये गये (विस्तार के लिए देखें प्रीतम सेन गुप्ता, द रानी आफ द नागाज, आउटलुक, 22 अगस्त 2005) गाइदिन्ल्यू ने 14 वर्षों में से एक वर्ष गोहाटी, छह वर्ष शिलांग, तीन वर्ष आइजोल तथा चार वर्ष तूरा कारागारों में बिताये।
वर्ष 1937 में पंडित नेहरू अपने असम दौरे में शिलांग जेल में गाइदिन्ल्यू से मिले। वे गाइदिन्ल्यू की गतिविधियों को सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुए। तत्कालीन हिन्दुस्तान टाइम्स में इस सन्दर्भ में उनका वक्तव्य भी छपा, जिसमें नेहरू ने इस पर्वत पुत्री को नागाओं की रानी नाम दिया। पं. नेहरू ने उन्हें जेल से छुड़वाने के लिए ब्रिटिश पार्लियामंेट की सदस्या लेडी एशियनो को पत्र लिखा, परन्तु भारत मंत्री ने प्रार्थना को स्वीकार न किया। आखिर 14 अक्तूबर, 1947 को उन्हें जेल से मुक्त किया गया, परन्तु उन्हें मणिपुर लौटने की अनुमति नहीं दी गई। 1952 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के मणिपुर आने पर उन्हें मणिपुर जाने की अनुमति मिली।
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राष्ट्रद्रोहियों से संघर्ष
1958 में अनेक नागाओं ने भारत से अलग होने के लिए विद्रोह कर दिया। अधिकतर ईसाई पंथ में मतांतरित नागाओं ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। इन विद्रोहियों ने रानी गाइदिन्ल्यू के हराका आन्दोलन की भी कटु आलोचना की। रानी पहले से ही अपने पूर्वजों के धर्म तथा संस्कृति की रक्षा, सुरक्षा तथा संवर्धन के लिए वचनबद्ध थीं। साथ ही वह मणिपुर, नागालैण्ड तथा असम के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर एक जैलियांगरांग प्रशासनिक इकाई बनवाना चाहती थीं। 1960 में रानी को पुन: भूमिगत होकर संघर्ष के लिए भाग लेना पड़ा। यह संघर्ष नागा नेशनल कौंसिल व ईसाई नागाओं द्वारा हिन्दू विरोधी तथा भारत विरोधी था। इसका जन्मदाता ए.जेडी. फीजो था जिसने बहुत पहले 1946 में उपरोक्त कौंसिल स्थापित की थी। ये भारत से अलग नागालैण्ड को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में देखना चाहते थे। 1966 में सरकार ने रानी गाइदिन्ल्यू को बुलाया तथा वे तब से कोहिमा रहने लगीं।
1972 में भारतीय स्वतंत्रता की रजत जयंती पर उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का ताम्रपत्र दिया गया। रानी गाइदिन्ल्यू एकमात्र नागालैण्ड की महिला थीं जिन्हें यह सम्मान मिला। वे कुछ वर्षों तक भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के सम्पर्क में रहीं। 1979 में उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के प्रयाग महासम्मेलन में भी भाग लिया।
उन्हें 1981 में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण, 1983 में विवेकानन्द सेवा पुरस्कार दिया गया। 17 फरवरी, 1993 में महान राष्ट्र पुत्री का महाप्रयाण अपने ही गांव में हो गया। मृत्योपरांत उन्हें बिरसा मुण्डा पुरस्कार दिया गया। भारत में नागा पंथ तथा संस्कृति की रक्षक, स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रहरी , राष्ट्र विद्रोहियों से लोहा लेने वाली तथा जीवन की अंतिम सांस तक संघर्ष करने वाली वीरांगना रानी मां गाइदिन्ल्यू को शत-शत नमन।
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