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-मुजफ्फर हुसैन-
पाठकों के हाथ में यदि कोई समाचार पत्र आए जिसमें समाचार अथवा विज्ञापन के स्थान पर कुछ भी नहीं छपा हो तो इस खाली-खाली कागज के टुकड़े को देखकर आप के मन में क्या विचार उठेंगे? पाठकों को तो आपातकाल याद आ जाएगा जब इंदिरा गांधी द्वारा संकटकाल की घोषणा करते ही सम्पादकों अ।र प्रकाशकों ने अपने सम्पादकीय स्थान पर एक अक्षर भी प्रकाशित नहीं किया। उसे एक दम रिक्त छोड़ दिया, कुछ न लिखा गया, लेकिन वह लिखे जाने से भी अधिक अर्थ पूर्ण था। उसमें यह पीड़ा छिपी हुई थी कि जब अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी जाए तो छापने जैसा क्या रहेगा? घटित घटनाओं का उल्लेख हो जाए तब भी यह सवाल तो मन में उठेगा कि अब लिखने जैसा क्या रह गया है? क्योंकि वैचारिक स्वतंत्रता का ही हनन हो गया है, समाचार पत्र मृतप्राय: हो गए हैं। गुलदस्ता तो है किन्तु फूलों में सुगंध नहीं है। समाचार मिलने का जहां तक सवाल है वह तो पाठक किसी भी स्रोत से ले सकता था।
1971 में ताजा अ।र विश्वसनीय समाचार का स्रोत केवल समाचार पत्र ही थे। रेडियो अवश्य था लेकिन वह भी सरकारी नियंत्रण में था अ।र फिर उसमें एक निश्चित समय ही होता था। रेडियो पर न कोई टिप्पणी हो सकती थी अ।र न ही पाठक एवं सम्पादक सरकार से कोई सवाल पूछ सकता था। इसलिए एकमात्र विश्वसनीय माध्यम केवल अ।र केवल समाचार पत्र थे। जब उनका ही गला घोंट दिया जाए तो फिर समाचार अ।र विचार का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। सम्पादकीय न छपना इस बात का द्योतक था कि वैचारिक स्वतंत्रता का गला घोंट दिया गया है। आज भी अनेक समाचार पत्र सरकार समर्थक समाचार छापते हैं लेकिन उनके पीछे कानून का डंडा या बंदूक की गोली नहीं है। लोकतंत्र की तो पहली शर्त ही वैचारिक स्वतंत्रता है। भारत के म।लिक अधिकारों में वाणी, विचार अ।र प्रचार की आजादी दी गई है इसलिए भारतीय इस दूषण को कभी हजम नहीं कर सकते हैं। भारत में घटी आपातकाल जैसी घटना पिछले दिनों पाकिस्तान में भी घटी। यद्यपि पाकिस्तान के संविधान में वहां कोई ऐसी गारंटी नहीं है। पाकिस्तान निर्माण के पश्चात सैनिक सरकारों में यह ध।ंस हमेशा बनी रही। मुल्लाओं के प्रभाव से आज भी वहां एक शब्द इस्लाम के विरुद्ध नहीं लिखा जा सकता। 1971 में जब पाकिस्तान टूटा उस समय भी अखबारों ने दबी आवाज में ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। क।न सैनिक तानाशाही का सामना कर सकता था। लेकिन वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है, फिर भी नवाज शरीफ की सरकार ने न्यूयार्क टाइम्स जैसे अखबार से छेड़खानी की जिसकी प्रतिक्रिया बड़े पैमाने पर देखने को मिली। अभी 21 मार्च को पाकिस्तान के लोगों ने भूतकाल में भारत में आपातकाल के द।रान घटी घटनाओं जैसा महसूस किया। वे यह देखकर भ।ंचक्के रह गए कि इंटरनेशनल न्यूयार्क टाइम्स का जो अंक उनके सामने आया था, उसमें मुखपृष्ठ अधूरा था। कुछ कॉलम कोरे ही रह गए। ऐसा क्यों हुआ? इसका स्पष्टीकरण भी अखबार में कहीं नहीं दिया गया। बाद में पता चला कि न्यूयार्क टाइम्स के ये खाली पृष्ठों वाले अंक केवल पाकिस्तान में ही वितरित हुए हैं। विश्व के अन्य देशों में जहां यह अखबार उपलब्ध होता है उक्त अंक हमेशा की तरह ज्यों का त्यों गया है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि पत्र ने इन रिक्त स्थानों पर पाकिस्तान से संबंधित कोई समाचार प्रकाशित किया था। जो पाकिस्तान के प्रकाशक को कहकर अखबार ने अपने इस पृष्ठ पर से हटा दिया। हो सकता है अखबार छपने के लिए मशीन पर जा चुका हो तब यह कार्रवाई हुई होगी वरना उस रिक्त स्थान को अन्य समाचारों से भरना कोई कठिन काम नहीं था। समाचार नहीं छपने से असली घटना तो सामने नहीं आई लेकिन इस संबंध में भिन्न-भिन्न प्रकार की अटकलें लगाई जा रही हैं। ऐसा महत्वपूर्ण समाचार क्या था? यह कह पाना कठिन हो गया है। क्या उस समाचार से सरकार के किसी बड़े नेता अथवा सेना के तीनों अंगों के मुख्य कमांडर प्रभावित हो रहे थे? या फिर परवेज मुशर्रफ के विरुद्ध चल रहे मामले की ओर होने वाली सजा की अटकलें लगाई गई थीं?
समाचार अवश्य ही किसी महत्वपूर्ण घटना के संबंध में अथवा महत्व के व्यक्ति से जुड़ा होगा? इस घटना को लेकर पिछले एक सप्ताह से पाकिस्तान में उक्त अटकलें लगाई जा रही हैं। एक वर्ग यह विश्वास करने लगा है कि मुशर्रफ के भविष्य को लेकर ही यह समाचार छपा होगा। क्योंकि इस मामले पर विशेष अदालत एक सप्ताह के भीतर कोई न कोई निर्णय देने वाली है। समाचार कुछ भी हो लेकिन न्यूयार्क टाइम्स में यह रिक्त स्थान पाकिस्तान में चर्चा का विषय बन गया, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। सेंसरशिप जैसा अनुभव पाकस्तान के अखबारों ने कई बार झेला है। भुट्टो की फांसी हो या फिर पाकिस्तान में बार-बार होने वाले सत्ता परिवर्तन की घटनाएं, पाकिस्तान के अखबारों को यह अनुभव होता रहा है। बंगलादेश बनने की घटना भी पाकिस्तान के मीडिया में तब छपी जब विश्व में यह समाचार फैल चुका था। पहले पहल तो इसे अफवाह कहा गया, लेकिन बाद में सेना के सूत्रों के हवाले से यह खबर छापी गई।
70 के दशक की बात कुछ भी हो लेकिन आज तो सोशल मीडिया का युग है, जिसमें समाचार हवा की तरह सारी दुनिया में फैल जाते हैं। आश्चर्य पाकिस्तान के रवैये पर नहीं है बल्कि न्यूयार्क टाइम्स जैसे विश्वविख्यात अखबार पर है जो पाकिस्तान की ध।ंस में आ गया। इस तुलना में तो हमारे गांव खेड़े से निकलने वाले उन अखबारों की प्रशंसा होती है जो अपनी लेखनी अ।र वाणी की स्वतंत्रता की खातिर खुशी-खुशी जेल चले गए। मीसा बंदियों को तो आने वाली सरकारों ने लाभान्वित किया लेकिन बेचारे अखबार नवीस कितने बर्बाद हुए इसकी बड़ी दु:खद कहानी है।
पाकिस्तान सरकार की इस सेंसरशिप के कारण जो हल्ला मचा उसे तो दुनिया ने देख लिया लेकिन वहां के कट्टरवादी म।लानाओं के जो अत्याचार हैं उसकी भी एक दर्दनाक कहानी है। इन कट्टरवादी म।लानाओं के हमले अब भी जारी हैं। लेकिन समझदार पाठक भली मुल्लाओं की तानाशाही, जबसे पाकिस्तान बना है तबसे चल रही है। उनके कारण जो दंगे होते हैं अ।र विभाजनकारी शक्तियां जिस प्रकार की गुंडागर्दी करती हैं उसकी भी एक खूनी दास्तान है, लेकिन इन समाचारों को छापने वाला कोई दैनिक नहीं है। जो पत्र छापते हैं उन्हें न तो सरकार का अ।र न ही मीडिया की आजादी के अलम्बरदारों का साथ मिलता है।
मुस्लिम राष्ट्रों में म।लानाओं के अपने कानून अ।र नियम हैं। वे मजहब के नाम पर चाहे जिस व्यक्ति की जान खतरे में डाल सकते हैं। उनके समर्थक मिस्र से लगाकर सऊदी अरब तक अपना कट्टर रवैया प्रमाणित कर रहे हैं। किसी भी देश के मीडिया ने आज तक ईमानदारी से उनका समर्थन नहीं किया है। वहां की कट्टरवादी सरकार चाहे तो व्यक्ति के नाम पर भी आपत्ति उठा सकती है अ।र उसे बदल देने पर मजबूर कर देती है। सऊदी अरब में पिछले दिनों वहां की सरकार ने 50 से अधिक नामों पर प्रतिबंध लगा दिया है। बालक के जन्म के पश्चात उसका नाम रखने की भी स्वतंत्रता वहां के नागरिकों को नहीं है। यदि आदेश का उल्लंघन किया गया तो शरीयत मंत्रालय उनके विरुद्ध कार्यवाही करेगा। गृह मंत्रालय ने उन नामों की सूची जारी की है जिन पर सरकार को आपत्ति है। सऊदी अरब में जितने राजा, प्रिंस अ।र शेख हैं वे कहने को तो अपने देश की लोकतांत्रिक सरकारों के प्रमुख हैं किन्तु असलियत उस समय खुल जाती है जब उनके ईद-गिर्द संकट के बादल मंडराने लगते हैं। सऊदी की मजहबी सत्ता ने शाह से इस बात के लिए आग्रह किया कि जब सऊदी अरब में इस्लामी श्।ली की सरकार है तो यहां ऐसे नाम क्यों अ।र कैसे रखे जा सकते हैं जो इस्लाम के सिद्धांत से मेल नहीं खाते। गृह मंत्रालय ने गजट सहित देश के सभी समाचार पत्रों में उक्त समाचार प्रकाशित करवा दिया। अब पासपोर्ट अ।र विद्यालय प्रवेश में इन नामों का उपयोग नहीं हो सकेगा। सऊदी नागरिक अब अपने बालकों के नाम लिंडा, एलिस, जेकब अ।र बिन अमीन नहीं रख सकेंगे। इन नामों से विदेशी संस्कृति का आभास होता है। सनद रहे कि पश्चिमी एशिया से निकले तीनों मतों में कुछ नाम समान हैं लेकिन उनके उच्चारण अलग-अलग होते हैं, जैसे जेकब को याकृब अ।र एडम को आदम कहा जाता है जो सर्वमान्य है। लेकिन अब इन नामों को सऊदी अरब ने नकार दिया है। महिलाओं में मलका, मालिकन अ।र रानी का नाम भी वर्जित कर दिया गया है। किसी अन्य मत का नागरिक यदि अपनी आस्था के अनुसार स्वयं के मत अ।र संस्कृति को इंगित करने वाला नाम रखता है तो वह भी नहीं चलेगा। संक्षेप में ऐसा नाम जो सऊदी सरकार की मजहबी नीति से मेल नहीं खाता है वह अब नहीं रखा जा सकता है।
माता-पिता का यह मूलभूत अधिकार है कि वे अपने नवजात शिशु का अपनी पसंद से कोई नाम रखें लेकिन सऊदी सरकार में ऐसा करना वहां के कानून के विरुद्ध होगा। यदि किसी नाम से ईश्वर का दास होना झलकता है तो वह स्वीकार किया जाएगा लेकिन उक्त नाम किसी व्यक्ति अथवा देवी के दास होने की ओर संकेत करता है तो उसे स्वीकारा नहीं जा सकता। पुस्तकों पर भी सरकार की गाज गिरी है प्रारंभ में ऐसी पुस्तकें स। से अधिक थीं लेकिन अब उसमें कुछ अन्य साहित्यिक पुस्तकों का भी समावेश कर लिया गया है। फिलिस्तीन के प्रसिद्ध कवि दरवेश को भी उसमें शामिल कर लिया गया है। सऊदी सूत्रों का कहना है कि 2011 से सऊदी सरकार के विरुद्ध बुद्धिजीवियों अ।र मजहबी म।लानाओं के अभियान चल रहे हैं। इसलिए अब वे कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं। लेकिन क्या ऐसे थोथे अ।र समय के प्रवाह के विरुद्ध निर्णय देने वाली एक कट्टरवादी सरकार को 21वीं शताब्दी में जनता सहन
कर सकेगी?
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