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.तुफैल चतुर्वेदी
मुझे 1970 से भारत की राजनैतिक फिजा का धुंधला-धुंधला सा ध्यान है। भारत-पाक युद्घ की तो ठीक-ठाक सी यादें हैं। यानी जेहन 40-42 बरस की यादें तो ठीक से संजोये हुए है। उससे पहले की भी बड़ी सभाओं की फिल्में देखी हैं। मुझे ध्यान नहीं पड़ता कि नरेंद्र मोदी जैसी लोकप्रियता अभी तक किसी भी राजनेता को प्राप्त हुई हो। 1971 के संग्राम में भारत की विजय के उपरांत इंदिरा गांधी लोकप्रिय तो थीं मगर जैसा ज्वार नरेंद्र मोदी के प्रशंसकों का उनकी सभाओं में उमड़ता है वो अभी तक किसी भी राजनेता के लिये कल्पनातीत था। हर जगह लोग नरेंद्र मोदी का पक्ष रखने, उनकी तारीफ करने के लिये व्याकुल रहते हैं। मेरे कई मित्र कांग्रेस, बसपा, सपा में हैं, वो भी नरेन्द मोदी के पक्ष में दलीलें देते हैं। ये उफान अनायास भी नहीं है और सायास तो बिलकुल भी नहीं हैं। नरेंद्र मोदी के पक्ष में लोग उतावले होने की हद तक क्यों जा रहे हैं इस पर विचार करना हो तो दिल-दिमाग को खुला रखते हुए ईमानदारी से विश्लेषण करना उचित होगा।
नरेंद्र मोदी के ज्वार का श्रेय आग्रही हिन्दुत्व (ये शब्द ही गलत हैं किन्तु बात स्पष्ट करने के लिये इसका प्रयोग विवशता है) को नहीं दिया जा सकता। 1947 में देश का विभाजन हुआ। लाखों लोग मारे गये, करोड़ों लोगों को अपना घर छोड़ कर आना पड़ा। आधे से अधिक भारत खून से भीग गया। भयानक वातावरण था। लोग इस बुरी तरह बर्बाद हुए थे कि उनके पास खाने, पहनने तक को कुछ नहीं रहा था। लाखों बलात्कार हुए। अपने परिवार की औरतों को छिनवा कर अपने घर के लोगों को अपनी आँखों के सामने मरता देख कर केवल और केवल धर्म के कारण हिंदुस्तान आना जिन लोगों ने मंजूर किया हो। जाहिर है उनके मन में इस्लाम और मुसलमानों के लिये जबरदस्त नफरत होनी चाहिये थी। उनकी इस हालत को देखने वाले लोगों में भी इस कड़वाहट के अंश होने चाहिये थे। अगर होते तो इसे अधिक से अधिक प्रतिक्रिया कहा ही जा सकता था। ऐसा होना बिलकुल सामान्य बात होती।
ऐसे वातावरण में 1952 में पहले आम चुनाव हुए। नयी पीढ़ी के मित्रों को सम्भवत: ये जान कर आश्चर्य होगा कि अपनी राजनीति के केंद्र में हिन्दुत्व को रखने वाली पार्टी जनसंघ को केवल दो सीटों पर संतोष करना पड़ा था। जम्मू से स्वर्गीय प्रेमनाथ डोगरा और कलकत्ता से स्वर्गीय श्यामा प्रसाद मुखर्जी जनसंघ के टिकट पर जीते थे। ये दोनों उस काल की राजनीति के बड़े नाम थे। स्वर्गीय प्रेमनाथ डोगरा लगातार कश्मीर के महाराज हरि सिंह के विरोध में आवाज उठाते थे और स्वर्गीय श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो विभाजन से पहले नेहरू के अंतरिम मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री रह चुके थे। यानी इन दोनों के चुने जाने का कारण जनसंघ या सांप्रदायिक हिन्दू राजनीति नहीं थी।आप इस कड़वाहट को जिस भी प्रदेश से जोड़ना चाहें आप पायेंगे कि यही परिणाम हाथ लगते हैं। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि नरेंद्र मोदी के पक्ष में हिलोर सी है ?
संसार को सबसे पहले विचारधारा के आधार पर दो भागों में ईसाइयत ने बांटा था। बिलीवर्स बनाम मूर्तिपूजक, प्रतिपूजक, पेगान इत्यादि। अपने अलावा सभी विश्वासियों को मार डालना, दूसरे विश्वास के लोगों को शैतान बता कर कत्ल करना जैसे जघन्य काम ईसाई मजहब, चर्च सदियों से करता रहा है। वास्कोडिगामा और कोलम्बस भारत की खोज में केवल मसाले ढूंढने नहीं निकले थे अपितु चर्च के आदेश पर, ईसाई राज्य के धन से दुनिया को ईसाई बनाने के लिए निकले ईसाई धर्म-प्रचारक थे। इसी क्रम में इस्लाम भी आता है। उसकी भी मान्यता संसार के बारे में यही है। एक तरफ ईमान वाले यानी मुसलमान और दूसरी तरफ काफिर, मुशरिक, मुर्तद वगैरा। मिसाल के तौर पर अरब देशों में आप किसी भी गैर इस्लामी विश्वास का कोई चिन्ह यहां तक गले में क्रास या शिखा-सूत्र डाल कर नहीं जा सकते। बाइबिल या गीता नहीं ले जा सकते, मगर वही इस्लाम मतावलंबी विश्व के अन्य गैर-मुस्लिम देशों में मुस्लिम परसनल लॉ चाहता है, हिजाब की छूट मांगता है। स्थानीय विवाह के रजिस्ट्रेशन की जगह निकाह चाहता है। स्थानीय व्यवस्था की जगह हलाल मांस चाहता है। स्वयं सारी दुनिया को काफिर घोषित करके जिहाद की खुली घोषणा करता है मगर दुनिया से धर्मनिरपेक्षता चाहता है। इस्लाम की अपने मंसूबे छिपाने की चाल को अब दुनिया धीरे-धीरे समझने लगी है। विभाजन के बाद गांधी और नेहरू की जोड़ी ने देशवासियों के गले से अपनी एकपक्षीय धर्मनिरपेक्षता उतार दी थी।
अस्सी के दशक में मीनाक्षीपुरम का धर्मान्तरण वो बड़ी चोट थी जिसका हिंदुओं ने बहुत विरोध किया। मीडिया में बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार हुआ। दिल्ली में विराट हिन्दू समाज के बैनर तले कश्मीर के महाराज कर्ण सिंह के नेतृत्व में बोट क्लब पर लाखों लोगों की रैली हुई। उस घटना के बाद शाहबानो पर मुस्लिम पर्सनल लॉ का विषय, बांग्लादेश से घुसपैठ, बंगाल-असम के सीमांत से हिंदुओं का निष्क्रमण, कश्मीर से हिंदुओं का निष्क्रमण, मुस्लिम बस्तियों में दंगे, मुम्बई की ट्रेनों में बम विस्फोट, कभी रामजन्मभूमि आंदोलन का विरोध इत्यादि लगातार ऐसे कारण बनते रहे कि 1947 की दबी चिंगारी दावानल बन गयी। इस पर एक बड़ी घटना 9-11 हो गयी। भारत के हिंदुओं ने भी देखा इतनी बड़ी बात का भी उनके मुसलमान मित्र निजी बातचीत में भी कभी विरोध नहीं करते। उनके मुंह से कभी तालिबान की निंदा नहीं होती उस पर कोढ़ में खाज सोशल मीडिया पैदा हो गया। मुसलमान इस बात को कभी नहीं देखते कि हिन्दू सदियों से त्रस्त हैं और उस पर आप जख्म पर नमक छिड़क रहे हैं। हिंदुओं को लगता है इस देश में आज नहीं तो कल उनकी हालत अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश, कश्मीर के हिंदुओं जैसी हो जायेगी। मोदी में ये समाज अपना त्राता देख रहा है। उसे लग रहा है कि उसकी रक्षा और उसकी लड़ाई मोदी लड़ेंगे। यही कारण है कि मोदी के पक्ष में हिमालय से लेकर समुद्रपर्यन्त दिशाएं गूंज रही हैं। प्रचंड रूप से समाज का ध्रुवीकरण हो गया है। हिंदुओं के इस विचार में बदलाव मुसलमानों का नेतृत्व, उनके लोग ही ला सकते हैं
ये समय मुस्लिम नेतृत्व के लिये भी गम्भीर चिंतन का है। उन्हें भी अपने हृदयों में काफिरों की धरती पर दुबारा इस्लाम का झंडा फहराने की सोच त्यागनी होगी। मगर इसके लिये मुसलमानों का मनसा, वाचा, कर्मणा धर्मनिरपेक्ष आचरण न केवल अनिवार्य रूप से चाहिये बल्कि सदैव के लिये चाहिये। इस्लाम अपने लिये विशेषाधिकार मांगता रहेगा तो लोग विरोध करेंगे ही। समाज अब जागरूक हो गया है। वो कुछ समय तक त्राता का सहारा लेगा फिर स्वयं उग्र होने लगेगा। शांति आखिर कायरता का पर्याय तो नहीं हो सकती।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और लफ्ज पत्रिका के संपादक हैं।
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