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कभी पंजाब तक सीमित बैसाखी पर्व अब अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाने लगा है। पंजाब के लोग दुनियाभर में बस चुके हैं। वे जहां भी हैं वहीं बैसाखी मनाते हैं। भारत के अन्य भागों में भी बैसाखी मनाई जाती है, पर अलग-अलग नामों से। कहीं ह्यपैला बैसाखह्ण, कहीं ह्यबिशुह्ण तो कहीं ह्यबिहूह्ण के नाम से मनाया जाता है। हमारे यहां बैसाखी का बहुत बड़ा महत्व है। मुगल शासक औरंगजेब ने हिन्दुओं पर अत्याचार की सारी हदें पार कर दी थीं। 16 नवम्बर, 1675 को उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर का सिर कलम करवा दिया था। इसके बाद मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से हिन्दुओं की रक्षा करने के लिए वीरों की तलाश शुरू हुई। इसी क्रम में बैसाखी के दिन 1699 में गुरु गोविन्द सिंह जी ने श्री आनंदपुर साहिब में एक विशेष सभा की। इसमें देश भर के लोग आए थे। इस अवसर पर उन्होंने लोगों को ललकारते हुए कहा कि ह्यदेश को पराधीनता से मुक्त करने के लिए मुझे एक शीश चाहिए।ह्ण उनकी ललकार को सुनकर दया सिंह खत्री, धर्म सिंह जट, मोहकम सिंह छीवां, साहिब सिंह और हिम्मत सिंह ने अपने-अपने शीश गुरु गोविंद सिंह जी को भेंट किए। ये पांचों वीर गुरु साहिब के ह्यपंच प्यारेह्ण कहलाए। गुरु साहिब ने सबसे पहले उन्हें अमृतपान करवाया और फिर उनसे स्वयं अमृतपान किया। इस तरह बैसाखी के दिन गुरु गोविन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा पंथ के वीरों ने ही उत्तर भारत से मुगलों की जड़ें उखाड़ दी थीं। प्रतिवर्ष बैसाखी के उत्सव पर 'खालसा पंथ' की जयन्ती मनाई जाती है।
बैसाखी पर किसान का घर फसल से भर जाता है। इस खुशी में ढोल बजाए जाते हैं। भांगड़ा करते बूढ़े, बच्चे और जवान थिरकने लगते हैं।
मुगलों के समय आक्रमणकारियों से होशियार करने के लिए ढोल बजाया जाता था। गुरु गोविंद सिंह जी ने दुश्मनों से लोगों को होशियार कराने के लिए नगाड़ा बनवाया था। नगाड़े की आवाज सुनकर देश की परतंत्रता की परिस्थितियों में लोग जूझने के लिए अपने आपको तैयार रखते थे। बैसाखी का त्योहार यह भी सन्देश देता है कि अपनी माटी की रक्षा के लिए हमें कभी भी अपना बलिदान देने के लिए तैयार रहना चाहिए। बैसाखी के दिन ही 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग में जनरल डायर ने सैकड़ों लोगों को गोलियों से भुनवा दिया था। इसलिए हर वर्ष बैसाखी के त्योहार पर जालियांवाला बाग के शहीदों को श्रद्धाञ्जलि दी जाती है। प्रतिनिधि
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