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इरादा कर लिया चुप बैठने का, ये कोई हल नहीं है मसले का
केन्या में इस्लामी उग्रवादी संगठन अल-शबाब का हमला विश्व भर में दैनंदिन घटना की तरह लिया जा रहा है। कुछ समय के लिये समाचार चैनलों पर दिखाया गया, कुछ चर्चा हुई और अब अगले समाचारों ने उस घटना का स्थान ले लिया है। यही हो भी सकता है, संभवत: यही होना भी चाहिये। मगर इस घटना को सामान्य आकस्मिक दुर्घटना की तरह नहीं लिया जा सकता, न ही लिया जाना चाहिये। इस घटना के दो पक्ष हैं। पहला वह पक्ष जिसने आक्रमण किया और दूसरा वह पक्ष जिस पर आक्रमण हुआ।
घटना ये है कि केन्या के एक बड़े मॉल में मुस्लिम चरमपंथी समूह अल-शबाब के सदस्य स्वचालित शस्त्र लेकर घुस गये, और उन्होंने वहां मौजूद लोगों में से मुसलमानों को तो बाहर निकाल दिया और बाकी सभी लोगों पर गोलियां बरसायीं। बरखा दत्त और उन जैसे सेकुलर लोगों के नियंत्रित मीडिया में वक्ताओं ने हमेशा की तरह आतंकवादियों का कोई मजहब नहीं होता, ये कायराना हमला है, कुछ विक्षिप्त लोगों ने ये किया है जैसी हमेशा कही जाने वाली बातें मंगलाचरण की तरह कहीं और अपने-अपने चेक ले कर घर गये।
ये हमला इतना स्पष्ट और साफ है कि इसके बारे में इस तरह की लगी-लिपटी बात करने के लिये विकट धूर्तता चाहिये। आइये इसकी छान-फटक करते है। उस समूह की क्या मनोस्थिति होगी जो स्वचालित शस्त्र ले कर मरने-मारने पर आमादा है। इनके हमले को कायराना तो हरगिज नहीं कहा जा सकता। आखिर मरने-मारने पर तुले लोग कायर तो नहीं कहे जा सकते। ये लोग विक्षिप्त हो सकते हैं किन्तु निरुद्देश्य तो नहीं ही हैं।
इस तरह के शुरुआती हमले अरब की भूमि मक्का पर ही आज से लगभग 1400 साल पहले शुरू हुए थे। इस्लाम के प्रवर्तक मुहम्मद ने मक्का के तत्कालीन मंदिर, जिसे आज खाना-ए-काबा कहा जाता है, में पूजी जाने वालीं सैकड़ों मूर्तियां तोड़ी थीं और उस मंदिर को मस्जिद में बदला था। इसी तरह के कार्य विभिन्न काल-खंड में संसार भर में हुए हैं। राम-जन्मभूमि, कृष्ण-जन्म भूमि, काशी-विश्वनाथ का मंदिर, अनगित पारसी अग्नि मंदिर, सिनेगोग, चर्च यानी ऐसे अनगिनत विध्वंस भारत ही नहीं उन सारे देशों में हुए हैं जहां-जहां इस्लाम गया है। चूंकि ये सारी घटनायें, सारे आक्रमण, सभी हमले स्वयं मुस्लिम साहित्य में लिखे हुए हैं, स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों, लेखकों ने लिखे हैं, इस लिये इनसे तब तक नहीं मुकरा जा सकता जब तक आप रोमिला थापर जितने ढीठ और झूठे न हों। सैकड़ों वषोंर् से चलने वाले इन आक्रमणों की अगर जांच-पड़ताल नहीं की जायेगी तो इनसे बचा कैसे जा सकता है? इनसे लड़ने की रणनीति कैसे बनायी जा सकती है ?
इन आक्रमणों का शिकार भारत ही नहीं अपितु अमरीका, रूस, चीन, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, इजराइल जैसे सबल देश भी हैं तो इटली, तुर्की, इंडोनेशिया, अल्जीरिया, नाइजीरिया, स्पेन, सूडान जैसे मंझोले दर्जे के देश भी। पाकिस्तान, ईरान, सऊदी अरब, बंगला देश, अफगानिस्तान का नाम इनमें नहीं लिया जा सकता चूंकि ये देश तो आतंकवाद के उत्पादक हैं। इतने सारे लोग किस बात से उत्प्रेरित हैं ? उनके प्रेरणा स्रोत क्या हैं ? आखिर पागल से पागल व्यक्ति भी बच्चों, बेकसूर लोगों की हत्या करने में हिचकिचायेगा। इन बातों के उत्तर स्वयं कुरआन और हदीसों में हैं। इस्लाम अपनी समझ से मनुष्य के लिए पूरी तरह से उपयुक्त जीवन प्रणाली है और इस जीवन प्रणाली के अनुसार जीवन न जीने वाला वर्ग काफिर, मुशरिक मुल्हिद, मुर्तद इत्यादि है। इन वगोंर् के लिये मुसलमानों को दिये गये निर्देश ही इस खून-खराबे का कारण हैं। आइये करआन की कुछ आयतों को देखें
मूर्ति पूजक लोग नापाक होते हैं 9-28
ओ मुसलमानो ! तुम गैर-मुसलमानों से लड़ो। तुममें उन्हें सख्ती मिलनी चाहिये 9-123
जो लोग अल्लाह के रसूल मुहम्मद के साथ हैं वे काफिरों प्रति कठोर और आपस में दयालु हैं 48-29
और तुम उनको जहां कहीं पाओ, कत्ल करो 2-191
ऐ नबी ! काफिरों के साथ जिहाद करो और उन पर सख्ती करो। उनका ठिकाना जहन्नुम है 9-73, 66-9
इस और इन हमलों के पीछे यही मानसिकता है। आश्चर्यजनक बात है कि प्रोटेस्टेंट ईसाइयों ने 300 वर्ष तक मुसलमानों से लड़ाई लड़ी जिसे क्रुसेड के नाम से जाना जाता है मगर इस सोच को कभी चुनौती नहीं दी जो दूसरे सम्प्रदायों को नष्ट करने के तर्क तलाशती है। इस मानसिकता को तार्किक आधार पर चुनौती दिये बिना, विचार के धरातल पर पराजित किये बिना ये आक्रमण कैसे बंद हो सकते हैं ? आखिर आक्रमण तो आक्रामक को ही बंद करना होता है। चाहे उसके हाथ से शस्त्र छीन लिये जायें या उसकी समझ में आक्रमण न करने का तर्क बैठ जाये अथवा उसकी आक्रमण करने की क्षमता नष्ट कर दी जाये। आतंकवादियों का कोई मजहब नहीं होता, ये कायराना हमला है, कुछ विक्षिप्त लोगों ने ये किया है ़.. जैसी बातें रटने से तो ये 1400 वषोंर् में नहीं रुके तो अब भी रुकने से रहे।
हममें से अनेक लोग ये सोचते हैं कि ऐतिहासिक ग्रन्थों पर कैसे चर्चा की जा सकती है ? मित्रो ! ऐसा नहीं है। पुराणों में इस तरह की बातें आज भी हैं कि पृथ्वी कछुए की पीठ पर रखी है और जब वो पलक झपकाता है तो भूकंप आता है। वो देवता इन्हीं पुराणों से आते हैं जिन पर आज भी हिन्दू समाज का बड़ा भाग विश्वास करता है, पूजा करता है। बाइबिल में आज भी लिखित है कि सूरज पृथ्वी के चक्कर लगाता है। न तो सूरज ने बाइबिल पढ़ी न उसने पृथ्वी के चक्कर लगाये। ईसाई आज भी बाइबिल पढ़ते हैं। चर्च जाते हैं। विवाह तथा अन्य संस्कार चर्च में करते हैं मगर इस तरह की अवैज्ञानिक बातों को किनारे छोड़ कर आगे बढ़ गये। इसका बड़ा कारण ये भी है कि विज्ञान की लगभग सभी खोजें और आविष्कार हिन्दू समाज और ईसाई जगत में हुए और इस तरह की बातें काल-बाह्य हो गयीं।
इस्लाम की समस्या ये है कि मुसलमानों तक विकसित जीवन के लाभ तो पहुंचे हैं मगर उस खुली सोच का पदार्पण उन तक नहीं हुआ जिसके कारण इस श्रेष्ठ जीवन का विकास हुआ। प्रत्येक मनुष्य की समानता ़.़. इसकी स्पष्ट व्याख्या यानी मानवाधिकार ़.़इससे उपजा प्रजातंत्र, उसकी रक्षा के लिये सृजी गयी पंथनिरपेक्ष न्याय-प्रणाली, स्त्रियों के अधिकार आदि कोई भी बराबरी की व्यवस्था मुस्लिम समाज और मुस्लिम देशों में पहुंची ही नहीं है। यदि कहीं पहुंची भी है तो बिलकुल शैशव अवस्था में है। ये सारी बातें मुस्लिम मानस तक गहरे रूप से पहुंचनी और पहुंचायी जानी आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हैं।
प्रजातान्त्रिक देशों में मुसलमान खुले समाज का आनंद तो उठाते हैं मगर वहीं तक जहां तो अमुस्लिम वर्ग उन्हें अपने सुखों में साझा करता है। वो आधुनिक जीवन में जीते भी हैं मगर उनकी मूल सोच अभी भी पुरातन है और उसके लिये अमुस्लिम समाज भी जिम्मेदार है कि वो मुस्लिम समाज के ऐसे कुढ़ब लोगों को प्रमुखता देता है।
हिन्दुस्थान के ही सन्दर्भ में देखिये। मुस्लिम समाज से बात करनी हो तो हमें इमाम बुखारी, आजम खान जैसे नाम सूझते हैं। अगर हम ही आरिफ मुहम्मद खान जैसी साफ-सुथरी सोच वाले लोगों को मुस्लिम समाज का नेता नहीं समझेंगे तो ऐसे उद्दंड और मनमानी सोच वालों का प्रभाव बढ़ेगा। अगर मुहम्मद अली जिन्ना को गांधी जी ही कायदे-आजम बनायेंगे तो खान अब्दुल गफ्फार खान तो पिछड़ ही जायेंगे। और अंत में जिन्ना से निबटना तो पड़ेगा। तो शुरू में ही अच्छे दोस्त और बुरे दुश्मन तय कीजिये और फिर द्वन्द्व कीजिये। वैचारिक लड़ाइयां ही मैदान में विजय दिलाती हैं।
ये हमले तब तक नहीं बंद हो सकते जब तक मुसलमान इसके बारे में न सोचें और तद्नुसार आचरण न करने लगें। मगर वो ऐसा सोचें इसके लिये समाज को पहल करनी होगी। ये पहले भी हो चुका है जब आर्य समाज ने महर्षि दयानंद जी की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें समुल्लास में यही चुनौती दी थी और बड़े पैमाने पर होने वाला मतान्तरण रुका था, बंद हुआ था।
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