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कहा जाता है स्वस्थ जीवन सबसे बड़ा सुख है। इसलिए हर व्यक्ति की दिनचर्या ऐसी हो कि उसे कोई रोग ही न हो। ऋतुचर्या, दिनचर्या तथा रात्रिचर्या के पालन से स्वस्थ रहा जा सकता है।
ऋतुओं के लक्षणों से पूर्णरूप से अवगत हो जाने के पश्चात् उसके अनुकुल आहार विहार का सेवन करना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार वर्ष भर में छह ऋतुएं होती हैं- शिशिर, बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद एवं हेमंत। आजकल ग्रीष्म ऋतु चल रही है। इस ऋतु में ज्येष्ठ एवं आषाढ़ दो मास आते हैं। आजकल ग्रीष्म ऋतु का आषाढ़ मास चल रहा है।
ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणें बहुत तीक्ष्ण होती हैं। इनसे प्राणियों (मनुष्य-पशु-पक्षी) का बल क्षीण होता है तथा वायुमण्डल की आर्द्रता कम होती है। इसके परिणामस्वरूप कफ क्षीण होता है एवं शरीर में वायु संचित होती है एवं वायु संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं। इसके लक्षण हैं शरीर में अत्यधिक कमजोरी महसूस होना, अत्यधिक दर्द होना, जोड़ों में दर्द होना, भूख न लगना, पेट वायु से भरा रहना आदि। कभी-कभी वमन या दस्त भी होता है। त्वचा में रूखापन एवं खारिश-खुजली भी पसीना अधिक आने से इस ऋतु में होती है।
रोगों से बचाव
इस ऋतु में सीधी धूप स बचना चाहिए। घर से बाहर निकलते समय सिर को कपड़े से ढक कर रखना चाहिए। पर्याप्त जल पीकर घर से निकलना चाहिए।
खान–पान
ग्रीष्म ऋतु में जौ, गेहूं पानी से धोकर पीसवाना चाहिए। चावल, मटर, अरहर, कच्चाखीरी (सलाद के रूप में) तरबूज, खरबूजा, ककड़ी, पेठा, करेला, धनीया, चौलाई, परवल आदि साग-सब्जियों का सेवन अच्छा है। यदि मधुमेह (शुगर) नहीं हो तो मधुर रसयुक्त, शीतल सुपाच्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए। मिश्रीयुक्त गाय का ठंडा दूध, देसी खांडयुक्त दही या मट्ठा का सेवन करना चाहिए। चंदन एवं खसखस का शीतल शरबत का सेवन भी अच्छा है। प्रात- सायं शीतल जल से स्नान एवं दोपहर को यदि संभव हो तो भोजन के बाद थोड़ी देर विश्राम इस ऋतु की उग्रता को शांत करता है। रात को सोते समय देसी गुड़ के साथ हरीतमी (हरड़) का सेवन करना अच्छा रहता है।
परहेज
अधिक लवण युक्त, कटु, अम्ल (चाट-पकोड़े) पदार्थो का सेवन नहीं करना चाहिए। अधिक व्यायाम एवं परिश्रम से इस ऋतु में बचना चाहिए। उपवास, गर्म जल से स्नान, धूप में पदयात्रा नहीं करनी चाहिए। तिल तैल, बैगन, उड़द, सरसों, राई का शाक, गरिष्ठ भोजन, घी इत्यादि के सेवन से बचना चाहिए। भोजन भी भर पेट न करके अल्प मात्रा में करना चाहिए।डा. योगेन्द्र
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