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भारत और चीन, सदियों पुराना संबंध। विश्व को दशमलव गणना और खगोलशास्त्र का बारीक ज्ञान देने वाले भारत ने चीन को 'धर्म' दिया। कागज, रेशम और बारूद यह सब दुनिया को चीन की देन हैं। परंतु औपनिवेशिक दासता से दोनों देशों की मुक्ति के बाद की यात्रा, रिश्तों में टकराहट की कहानी है। धर्म को अफीम मान बहकता, समाजवाद की अंधी गलियों में भटकता ड्रैगन परोक्ष रूप से वैयक्तिक पूंजीवाद की राह पर फिसल पड़ा है। आज अखबारी कागज ड्रैगन की लालसा में रंगे हैं, रिश्तों के रेशम में गांठ पड़ी है और सीमा पर बारूदी गंध है।
लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर बुनियादी ढांचा विकसित करते भारत को रोकना और सीमा रक्षा सहयोग समझौते (बीडीसीए) के तहत इसके लिए पासा फेंकना ड्रैगन की मंशा बताता है।
पुराने संबंधों को भुलाने और 18वीं सदी की चुशूल संधि को डेढ़ सदी तक मानने के बाद दरकिनार करने वाली चीनी विदेश नीति का विश्लेषण और उपचार आज आवश्यक है। संभवत: विदेश नीति की कुछ पहेलियां अर्थनीति से गुजरती हैं। अंतरराष्ट्रीय कारोबार में सबसे बड़ा साझीदार जब बांह मरोड़े तो भारत को अपार संभावनाओं से भरे अपने बड़े बाजार की ताकत पहचाननी चाहिए। जहर बुझे मोतियों (स्टिंग ऑफ पर्ल्स) का चक्रव्यूह भेदना भारत के लिए जरूरी चुनौती है मगर, दोस्ती का सच्चा मोती खोकर चीन को क्या हासिल होगा यह उसके लिए भी सोचने की बात है।
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