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राजनीति का अपराधीकरण जनतंत्र पर कलंक है। अपराधीकरण की निंदा सब करते हैं, लेकिन चुनाव में उन्हें प्रत्याशी भी बनाते हैं। माफिया होना उनका अतिरिक्त गुण होता है। वे जिताऊ होते हैं। अनेक प्रबुध्द जनता को दोष देते हैं कि जनता ही अपराधियों को चुनती है। आखिरकार जनता के राजनीतिक शिक्षण की जिम्मेदारी भी दलतंत्र की ही है। यह काम भी पहली दफा सर्वोच्च न्यायालय ने ही किया था। न्यायालय के निर्देश पर उम्मीदवारों को अपना आपराधिक विवरण देने की बाध्यता शुरू हुई। बावजूद इसके आपराधिक चरित्र वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या बढी। एडीआर के मुताबिक संसद में 30 व विधानमंडलों में 31 प्रतिशत सदस्यों पर आपराधिक मुकदमे हैं। पवित्र संसद और विधानमंडल की यह छवि आहतकारी है। अपराधियों की सही जगह जेल होती है, संसद या विधानमंडल नहीं, लेकिन यहां राजनीति के अपराधीकरण की सुनामी है। आपराधिक छवि के सदस्यों के प्रतिशत पर बहस हो सकती है, लेकिन कुल मिलाकर राजनीतिक अपराधीकरण की ही तस्वीर बनती है। वे जेल में होकर भी चुनाव लड़ते हैं, अधिवेशन के समय भारी सुरक्षा के साथ सदन आते हैं। एक समय उत्तार प्रदेश सरकार के एक मंत्री शपथ ग्रहण वाले दिन भी जेल में थे। राष्ट्र अपराधी जनप्रतिनिधि नहीं चाहता। न्यायालय ने राष्ट्र की इच्छा और संविधान की भावना को ही अभिव्यक्ति दी है।
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