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जम्मू-कश्मीर की राजनीति का हाल बड़ा बेढंगा है। अलगाववादी मुस्लिम वोट बैंक के एकजुट वोट पाने के लिए कुछ राजनीतिक दल के नेता तो अलगाववादियों और आतंकवादियो से भी ज्यादा जहरीले वक्तव्य जारी कर देते हैं। इसमें आजकल सबसे आगे हैं जम्मू-कश्मीर में सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस और उसके मुख्यमंत्री। गौर करने वाली बात यह है कि अब तक कांफ्रेस के नेताओं के गैरजिम्मेदाराना वक्तव्यों को चुप होकर सुनते रहने वाले कांग्रेस के नेता कसमसा तो रहे हैं, पर बोल अब भी कुछ नहीं पा रहे हैं, क्योंकि लोकसभा चुनाव नजदीक देख वे संप्रग टूटने नहीं देना चाहते, पर दूसरी ओर उन्हें यह भय भी सता रहा है कि कहीं कांफ्रेंस के अलगाववादी सुर का शोर देश भर में न फैल जाये और दुष्परिणाम कांग्रेस को भुगतना पड़े।
नाम की नेशनल असल में मुस्लिम कांफ्रेस के नेता, विशेषकर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अब तक सैनिकों के विशेषाधिकारों को हटाने और स्वायत्तता की बात ही करते रहे थे। पर अब एक कदम आगे बढ़कर बोल गए कि, 'है किसी माई के लाल में दम जो धारा 370 हटा सके।' भाजपा, विशेषकर उसके शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी का नाम लेकर भी चुनौती दी कि, 'अगर किसी ने भी जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने की कोशिश की तो उसे लाशों के ढेर पर से होकर गुजरना पड़ेगा।' और यह सारी बात उन्होंने किसी और के सामने नहीं, देश के प्रधानमन्त्री के सामने कही और उनके साथ थीं देश की सत्ता को रिमोट से संचालित करने वाली संप्रग की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया। अवसर था जम्मू क्षेत्र के बनिहाल से कश्मीर घाटी के काजीगुंड तक की महत्वपूर्ण रेल परियोजना के लोकार्पण का। भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विकास के लिए हजारों करोड़ रुपए की लागत से यह परियोजना तैयार की, पर छोटे अब्दुल्ला ने छोटी सोच के साथ दूरगामी चोट करते हुए कहा कि, 'पैकेज और विकास के कार्यों से कुछ नहीं होगा। जम्मू-कश्मीर के लोगों को चाहिए स्वायत्तता। इसके अलावा बाकी सब बातों का कोई मतलब नहीं। वैसे भी जम्मू-कश्मीर एक राजनीतिक मुद्दा है और इसका समाधान भारत या पाकिस्तान की सत्ता नहीं, यहाँ की जनता के इच्छानुसार ही होना चाहिए। कश्मीर के लोगों को हलके में न लिया जाये, वर्ना इसके गंभीर परिणाम होंगे। एक बात और, जब कभी भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव उत्पन्न होता है तो उसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव कश्मीर की जनता पर पड़ता है । इसलिए जरूरी है कि भारत और पकिस्तान मतभेद भुलाकर जल्दी से जल्दी बातचीत शुरू करें ताकि जम्मू-कश्मीर की समस्या का स्थायी समाधान निकल सके।'
राजनीतिक विश्लेषक अब अनुमान लगा रहे हैं कि अब्दुल्ला कि जुबान अचानक इतनी जहरीली कैसे हो गयी । कुछ का मानना है कि जब वे राज्य की जनता को संतुष्ट नहीं कर सके और शासन ठीक से नहीं चला सके तो भावनात्मक मुद्दे उठा रहे हैं। कुछ का मानना है कि पकिस्तान के साथ बातचीत के मुद्दे को उन्होंने इसलिए उठाया गया है ताकि उसकी आड़ में स्वायत्तता की मांग पर जोर दिया जा सके। मकसद चाहे जो हो, पर सोनिया और प्रधानमन्त्री के सामने इस तरह के भाषण के बाद राज्य के कांग्रेसी बगलें झांक रहे हैं। वे न तो अपने गठबंधन के सहयोगी का समर्थन कर पा रहे हैं और न ही खुलेआम विरोध। भले वे इस पर चुप्पी साध लें, पर बात तो दूर तलक गयी है, और परिणाम भी भुगतने ही पड़ेंगे। जम्मू-कश्मीर से विशेष प्रतिनिधि
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