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गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरूवार।
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार–विचार।।
गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश।
ब्रह्मा–विष्णु–महेश सम, काटे भव का पाश।।
गुरु–चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान।
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान।।
गुरुता जिसमें वह गुरु, शत–शत नम्र प्रणाम।
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम।।
गुरु पल में ले शिष्य के, गुण–अवगुण पहचान।
दोष मिटाकर बना दे, आदम से इंसान।।
शिष्यों के गुरु एक हैं, गुरु के शिष्य अनेक।
भक्तों के हरि एक ज्यों, हरि के भक्त अनेक।।
ज्ञान–ज्योति गुरु दीप ही, तम् का करे विनाश।
लगन–परिश्रम दीप–घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश।।
गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु–घंटाल।
पाठ–पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उडाते माल।।
गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य।
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य।।
मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष।
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष।।
गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग।
लोभ–मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य।।
गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर।
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आंखें रहते सूर।।
–संजीव सलिल
(दिव्यनर्मदा, ब्लागस्पाट.कॉम से साभार)
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