हिन्दू और ईसाई
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भारत के उत्तर–पूर्वी राज्यों और वनवासी इलाकों में पैसे के लालच या जोर–जबरदस्ती से ईसाई मिशनरियां लम्बे अरसे से मतान्तरण का दुष्चक्र चला रही हैं। पादरियों और बिशपों का मानना है कि ईसाई पंथ से बड़ा कोई दूसरा पंथ नहीं है। अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन बताने की ईसाई पादरियों की इसी सोच पर स्वामी जी ने उस वक्त भी तीखा प्रहार किया था। यहां हम स्वामी जी के एक भाषण का अंश प्रकाशित कर रहे हैं, जो आज भी उतना ही सामयिक है।
हिन्दू की प्रवृत्ति विभिन्न दर्शनों को नष्ट करने की नहीं होती, अपितु सभी का समन्वय करने की होती है। यदि भारत में कोई नया विचार आता है, तो हम उसका विरोध नहीं करते, केवल उसे ग्रहण करने, उसका समन्वय करने की चेष्टा करते है, क्योंकि यह विधि सर्वप्रथम हमारे पैगम्बर, पृथ्वी पर भगवान के अवतार भी कृष्ण ने सिखायी थी। ईश्वर के इस अवतार ने स्वयं ही पहले यह उपदेश दिया, 'मैं ईश्वर का अवतार हूं, मैं सभी ग्रंथों का प्रेरक हूं, मैं सभी पंथों का प्रेरक हूं।' अत: हम किसी पंथ को अस्वीकार नहीं करते।
हममें और ईसाइयों में एक बात बहुत ही भिन्न है, ऐसी बात, जो हमने कभी नहीं सिखायी। यह बात है, ईसा मसीह के रक्त द्वारा मोक्ष अथवा किसी मनुष्य के रक्त द्वारा आत्म-प्रक्षालन। यहूदियों की भांति हमारे यहां भी बलिदान था। हमारे बलिदान का सीधा अर्थ यह है, जैसे हम कुछ खाने जा रहे हैं, और जब तक उसका कुछ भाग भगवान को समर्पित नहीं करते, उस पदार्थ को खाना बुरा है। इसलिए मैं खाद्य पदार्थ का समर्पण करता हूं। यही शुद्ध और सरल भाव है। किन्तु यहूदियों में भाव यह होता है कि उसका पाप मेमने पर चला जाए और मेमने का बलिदान कर दिया जाए, तथा स्वयं उसे सुरक्षित निकल जाने दिया जाए। हमने इस सुन्दर भाव का विकास भारत में कभी नहीं किया और मुझे प्रशन्नता है कि हमने ऐसा नहीं किया। ऐसे किसी सिद्धान्त से अपना उद्धार कराने के लिए कम से कम मैं तो कभी न आऊं। यदि कोई आए और कहे कि मेरे रक्त से अपनी रक्षा करो, तो मैं उससे कहूंगा, 'मेरे भाई, तुम जाओ, मैं नरक में जाऊंगा। मैं ऐसा भीरू नहीं हूं कि स्वर्ग जाने के लिए निर्दोष रक्त लूं। मैं नरक में जाऊंगा। मैं ऐसा भीरू नहीं हूं कि स्वर्ग जाने के लिए निर्दोष रक्त लूं। मैं नरक के लिए प्रस्तुत हूं।' इस प्रकार यह सिद्धान्त हमारे बीच कभी नहीं पनपा और हमारे पैगम्बर कहते है कि जब कभी पृथ्वी पर अधर्म और अनैतिकता फैलेगी, वह (ईश्वर) पृथ्वी पर अवतरित होगा और अपनी संतानों की सहायता करेगा और वह (ईश्वर) समय-समय पर और स्थान-स्थान पर यही करता रहा है, और जहां कहीं भी तुम किसी असाधारण पवित्र व्यक्ति को देखो, तो जान लो कि वह (ईश्वर) उसमें है।
इस प्रकार तुम समझ लो कि यही कारण है, जो हम किसी पंथ से नहीं लड़ते। हम नहीं कहते कि केवल हमारा ही मार्ग मुक्ति का मार्ग है। पूर्णता हर कोई प्राप्त कर सकता है, और इसका प्रमाण क्या है? क्योंकि हम हर देश में पवित्रतम मनुष्य, भले पुरुष और स्त्रियां देखते हैं। चाहे वे हमारे धर्म में उत्पन्न हुए हो या नहीं। इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि केवल हमारा ही मार्ग मुक्ति का मार्ग है।
कोई व्यक्ति पाश्चात्य अर्थ में अदभूत विद्वान हो सकता है, पर यह संभव है कि वह धर्म का कखग भी न जानता हो। मैं उससे करूंगा, उससे प्रश्न करुंगा, 'क्या तुम, जैसी वह है, उस रूप में आत्मा का ध्यान कर सकते हो? क्या तुम आत्मा के विज्ञान में आगे बढ़े हो?' क्या तुमने अपनी आत्मा को भौतिक तत्व से परे व्यक्त किया है?' यदि उसने नहीं किया है, तो मैं उससे कहूंगा, 'धर्म तुम्हारे हाथ नहीं लगा है, यह सब केवल बकवास, पुस्तकीय दर्प और मिथ्याभिमान है। पर यह बेचारा हिन्दू, मूर्ति के समक्ष बैठता है और सोचने की चेष्टा करता है कि वह ईश्वर है और तब कहता है, 'हे प्रमु, मैं तुम्हारी आत्मा के रूप में कल्पना नहीं कर सकता। अतएव मुझे इस रूप में अपनी कल्पना करने दो।' और तब वह अपनी आंखें खोल देता है और इस रूप को देखता है और दण्डवत् प्रणाम करते हुए वह अपनी प्रार्थना दोहराता है, और जब उसकी प्रार्थना समाप्त हो जाती है, तो वह कहता है, 'है प्रभु, अपनी इस अपूर्ण अर्चना के लिए मुझे क्षमा करो।'
तुमसे सदैव यह कहा जाता है कि हिन्दू पत्थर की पूजा करता है। अब इन लोगों की आत्माओं के आतुर स्वभाव के सम्बन्ध में तुम क्या समझते हो? इन पाश्चात्य देशों को आने वाला मैं पहला संन्यासी हूं। संसार के इतिहास में यह प्रथम अवसर है, जब एक हिन्दू संन्यासी ने समुद्र पार किया है। किन्तु हम ऐसी आलोचनाएं सुनते रहते हैं और इन बातों के विषय में सुनते भी हैं, और मेरे राष्ट्र वालों का तुम्हारे प्रति साधारण दृष्टिकोण क्या है? वे हंसते है और कहते हैं, 'वे भौतिक विज्ञान में महान हो सकते हैं, वे बड़ी-बड़ी चीजें बना सकते हैं, पर धर्म में वे केवल शिशु हैं।' मेरे देशवालों का यही दृष्टिकोण है।
एक बात मैं तुमसे कहूंगा और मेरा आशय अप्रिय आलोचना नहीं है। तुम क्या करने के लिए मनुष्य को सिखाते, शिक्षा देते, वस्त्र देते और द्रव्य देते हो? इसी के लिए न, कि वे मेरे देश में जाकर मेरे सभी पूर्वजों को, मेरे धर्म को और सभी बातों को कोसे और गालियां दें। वे एक मन्दिर के निकट जाते हैं और कहते हैं, 'हे मूर्तिपूजकों, तुम नरक में गिरोगे।' पर वे भारत के मुसलमानों के प्रति ऐसा करने का साहस नहीं करते, क्योंकि वहां तलवार निकल पड़ेगी। किन्तु हिन्दू बहुत नम्र होता है। वह मुस्कराकर चल देता है और कहता है, 'मुर्ख को बकने दो।'
तुम जो करो, सो करो, पर साथ ही मैं तुमसे बताने जा रहा हूं कि हम जैसे हैं, वैसे रहते हुए संतुष्ट है, और एक बात में हम अधिक अच्छे भी हैं, हम अपने बालकों को ऐसी भयावह चीजें निगलना नहीं सिखाते, जहां अन्य हर वस्तु तो प्रसन्नता देने वाली है, केवल मनुष्य ही नीच है। और जब कभी भी तुम्हारे पुरोहित हमारी अलोचना करे, वे यह याद रखें कि यदि सम्पूर्ण भारत उठ खड़ा हो और हिन्द महासागर के तल का सम्पूर्ण कीचड़ उठा ले और उसे पाश्चात्य देशों की ओर फेंके, तो भी यह उसका अति सूक्ष्मांश भी न होगा, जो तुम हमारे साथ कर रहे हो। और यह किसलिए? क्या हमने कभी एक भी धर्म-प्रचारक संसार में किसी का धर्म-परिवर्तन करने के लिए भेजा? हम तो तुमसे कहते हैं, 'तुमको तुम्हारा धर्म कल्याणकारी हो, पर मुझे अपना धर्म रखने दो।'
अपने दम्भ और आत्मश्लाघा के बावजूद, बिना तलवार के ईसाइयत कहां सफल हुई है? संपूर्ण विश्व में मुझे एक स्थान दिखाओ। केवल एक, मैं कहता हूं, ईसाई पंथ के संपूर्ण इतिहास में एक मुझे दिखलाओ, केवल एक, मैं दो नहीं चाहता। मैं जानता हूं, तम्हारे पूर्वजों का किस प्रकार पंथ-परिवर्तन किया गया। उनके सामने दो मार्ग थे, मत परिवर्तन करें या मारे जाएं, बस, यही। तुम अपने समस्त दंभ के बावजूद इस्लाम पंथ से क्या अच्छा कर सकते हो। 'बस' हमी हैं!' और क्यों? 'क्योंकि हम दूसरों को मार सकते हैं?' अरबों ने यह कहा और उन्होंने दंभ किया। पर आज अरब कहां हैं? वे गृहहीन हैं। रोमन ऐसा कहा करते थे और आज वे कहां हैं? शांति लाने वाले ही धन्य हैं, पृथ्वी उन्हीं की होगी!
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