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प्रजा परिषद आंदोलन के 60 वर्ष
भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जिस जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिलाया था आज उसी राज्य के कश्मीर विश्वविद्यालय के श्रीनगर परिसर में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री अल्तमश कबीर की मौजूदगी में राष्ट्रगान का अपमान किया गया। वे जिस सम्मेलन में अध्यक्षीय उद्बोधन करने वाले थे उसके प्रारंभ में ही राष्ट्रगान के अवसर पर हॉल में मौजूद अनेक विद्यार्थी खड़े नहीं हुए।
कश्मीरी हैं, भारतीय नहीं
बहिष्कार करने वालों का तर्क था कि वे कश्मीरी हैं, भारतीय नहीं, इसलिये भारत के राष्ट्रगान को आदर देना उनके लिये आवश्यक नहीं है। किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि जम्मू-कश्मीर का एक संविधान भी है। यह संविधान जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग और उसके भारत में विलय को अंतिम बताता है। यदि जम्मू-कश्मीर संवैधानिक रूप से भारत का अभिन्न अंग है तो कोई यह कैसे कह सकता है कि वह कश्मीरी तो है पर भारतीय नहीं।
प्रश्न यह भी उठ सकता है कि यदि वे अपने-आपको भारत का नागरिक नहीं मानते तो वे कहां के नागरिक हैं। वर्तमान विश्व में क्या ऐसे भी जन-समूह संभव हैं जो किसी देश के नागरिक न हों। नागरिकता का अर्थ है कि वे किसी विशिष्ट भू-भाग पर रहने वाले जन-समुदाय के साथ स्वयं की पहचान को संबद्ध करते हैं तथा उस भूमि पर लागू होने वाले संवैधानिक नियम-कानूनों के प्रति प्रतिबद्ध हैं। साथ ही वहां के संविधान द्वारा निर्धारित कर्तव्यों और अधिकारों को अपने निजी जीवन और सामाजिक आचरण में स्थान देते हैं।
कश्मीर इस धरती से अलग-थलग कोई टापू नहीं है जहां पर वहां के निवासी मनमानी करने के लिये स्वतंत्र हों। किसी भी सभ्य समाज में इस प्रकार की मनमानी के लिये कोई स्थान नहीं है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और वहां के नागरिकों पर भी वे सारे नियम लागू होते हैं जो पूरे देश में लागू हैं।
शेख की विरासत
शेख अब्दुल्ला की यह फितरत थी कि अपने हित के लिये उन्हें कुछ भी करने में संकोच नहीं था और वक्त पड़ने पर अपनी बात से पलटने में भी जरा देर नहीं लगती थी। शेख ने कश्मीर घाटी में 'महाराजा कश्मीर छोड़ो' आन्दोलन चलाया था जिसके कारण वे राजद्रोह के आरोप में बंदी बनाये गये। पं. नेहरू के आग्रह पर महाराजा हरि सिंह ने शेख को जेल से रिहा कर प्रधानमंत्री नियुक्त किया। तब 29 सितम्बर 1947 को महाराजा को संबोधित अपने पत्र में शेख ने लिखा 'पूरी विनम्रता से मैं महाराजा बहादुर को अपनी अटल एकनिष्ठता का विश्वास दिलाता हूं और अल्लाह से प्रार्थना करता हूं कि ऐसी तौफीक अता फरमाये कि आपके संरक्षण में इस मुल्क के अमन, खुशहाली और अच्छी सरकार के बेहतरी के लिये कार्य कर सकूं'। लेकिन सत्ता हाथ में आते ही उसने महाराजा का राज्य में जीना दूभर कर दिया।
1 अक्तूबर, 1947 को श्रीनगर के हजूरी बाग में एक जन सभा को संबोधित करते हुए शेख ने कहा – अपने खून की आखिरी बूंद तक मैं द्विराष्ट्र के सिद्धांत में विश्वास नहीं करुंगा। लेकिन कुछ ही समय बीता था कि वह अलग शेखशाही के सपने देखने लगा।
भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सहायता से शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री बने और बाद में उन्हीं नेहरू को आंखें दिखाने लगे। शेख अब्दुल्ला एक ओर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के प्रतिनिधि के रूप में जाते थे और दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान को लागू करने से कतराते थे। यहां तक कि अपने ही मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और अपनी ही पार्टी के विधायकों का भी विश्वास बनाये रखने में शेख नाकाम रहे। परिणामस्वरूप, उनके अपने सहयोगी भी उनका साथ छोड़ने को मजबूर हुए।
कश्मीर घाटी में मौजूद एक कुलीन वर्ग इस प्रकार के आचरण करने वाले लोगों को बढ़ावा देता है और निजी स्वार्थों को पूरा करने के लिये अलगाववाद को हवा देता है। गिने-चुने परिवारों ने सत्ता के सारे अधिकार अपनी मुट्टी में ले लिये हैं और आपस में ही सारे संसाधनों की बंदरबांट कर लेते हैं। जम्मू तथा लद्दाख के साथ राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भेदभाव यह जमीनी हकीकत है। यह क्रम शेख अब्दुल्ला के समय से जारी है और उनके उत्तराधिकारी अन्याय और अलगाव की इस विरासत को लगातार आगे बढ़ा रहे हैं।
संदेह के बादल
अगस्त-सितम्बर 1951 में संविधान सभा के चुनाव निर्धारित हुए। शेख इन चुनावों को भारत के निर्वाचन आयोग की देख-रेख में कराने को सहमत नहीं हुए अत: शेख प्रशासन स्वयं ही इनका प्रबंधन कर रहा था। नेशनल कांफ्रेंस के अतिरिक्त प्रजा परिषद तथा निर्दलीय उम्मीदवारों ने अपने नामांकन दाखिल किये किन्तु बिना किसी ठोस आधार के उनमें से अधिकांश के नामांकन रद्द कर दिये गये। कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी खड़े नहीं किये थे क्योंकि कांग्रेस नेशनल कांफ्रेंस को ही अपना प्रतिनिधि मानती थी। परिणाम यह हुआ कि नेशनल कांफ्रेंस के 75 में से 73 प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिये गये। दो स्थानों पर हुए चुनाव में भी नेशनल कांफ्रेंस विजयी रही। यह लोकतंत्र का खुला उपहास था। यहीं से जम्मू और लद्दाख के लोगों के मन में अपने भविष्य को लेकर आशंकाएं बलवती होने लगीं।
अगस्त, 1952 में प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार पं. नेहरू ने यह भी स्वीकार किया कि राज्य का अपना अलग झंडा होगा। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति नहीं, बल्कि वह विधानसभा द्वारा चुना जायेगा। भारतीय संविधान के अंतर्गत मौलिक अधिकार एवं कर्तव्य संबंधी प्रावधान पूरी तौर पर लागू नहीं होंगे। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का अधिक्षेत्र नहीं होगा, केवल अपीलीय मामले उसके समक्ष प्रस्तुत होंगे। युद्ध अथवा बाहरी आक्रमण को छोड़ कर किसी भी स्थिति में केन्द्र द्वारा बिना राज्य की सहमति के आपात स्थिति लागू नहीं की जा सकेगी। इन तमाम बातों से राज्य की जनता के मन में संदेह के बादल उत्पन्न हुए और पूरे देश में भ्रम की स्थिति निर्माण हुई।
प्रजा परिषद का आंदोलन
शेख अब्दुल्ला के राष्ट्रविरोधी मंसूबे और केन्द्र सरकार की समझौतापरस्त नीतियां जहां देशभर में राष्ट्रीय जनमानस को उद्वेलित कर रही थीं, वहीं राज्य के अधिकांश नागरिकों को भयाक्रांत कर रही थीं। विशेष रूप से राज्य की हिन्दू-सिख जनता को अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा था। शेख की मनमानी का विरोध करने वाले हर व्यक्ति का उत्पीड़न किया जा रहा था।
शेख अब्दुल्ला के दबाव में हुए दिल्ली समझौते, राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत राजप्रमुख को असंवैधानिक ढंग से बदल कर सदरे रियासत की घोषणा आदि घटनाक्रम ने राज्य में अनिश्चितता और आशंका का वातावरण उत्पन्न कर दिया। परिणामस्वरूप प्रजा परिषद को निर्णायक आन्दोलन की ओर बढ़ने को बाध्य होना पड़ा। 23 नवंबर 1952 को जम्मू में एक जनसभा को संबोधित करते हुए पं. प्रेमनाथ डोगरा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इसके साथ ही पूरे जम्मू संभाग में प्रत्यक्ष आंदोलन प्रारंभ हो गया। हर दिन हजारों की संख्या में अहिंसक आंदोलनकारी सड़कों पर निकल पड़ते। पुलिस के अमानवीय अत्याचार भी उन्हें रोक न पाते। शेखशाही के खिलाफ 5 मार्च, 1953 तक यह आंदोलन निरंतर चलता रहा। आशुतोष
दिल्ली में आंदोलन की आग
जम्मू में आंदोलन अपने चरम पर था। हर दिन आंदोलनकारियों पर लाठी और गोली चल रही थी। 30 दिसम्बर, 1952 को सुन्दरवनी में शेख की मिलीशिया ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां चलायीं जिसमें 25 वर्षीय कृष्णलाल और 20 वर्षीय रामजी दास नामक सत्याग्रहियों की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गयी। 3 महिलाओं सहित 25 लोग घायल हुए। बेलीराम नामक एक युवक, जो गोली लगने से घायल हो गया था, का सिर एक भारी पत्थर से कुचल कर उसकी हत्या कर दी गयी।
जब यह समाचार दिल्ली पहुंचा तो अगले ही दिन पूरी दिल्ली में जुलूस और विरोध प्रदर्शनों का क्रम शुरू हो गया। हौजकाजी में पुलिस ने कठोरतापूर्वक लाठियां बरसाईं जिसमें 60 लोग घायल हुए। आंसू गैस के गोले भी दागे गये। इसने विरोध को और अधिक गति दे दी। इस समय कानपुर में भारतीय जनसंघ का वार्षिक अधिवेशन जारी था। जनसंघ ने एक आठ सदस्यीय तथ्यान्वेषी शिष्टमण्डल जम्मू भेजने की घोषणा की किन्तु भारत सरकार ने उसे वहां जाने की अनुमति नहीं दी।
जनसंघ, हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद ने संयुक्त रूप से 5 मार्च, 1953 को जम्मू दिवस मनाये जाने की घोषणा की। पंजाब व उत्तर प्रदेश के सभी बड़े स्थानों पर धारा 144 लागू कर दी गयी थी। प्रख्यात संत स्वामी करपात्री जी महाराज की अध्यक्षता में दिल्ली स्टेशन के सामने के मैदान में एक विशाल सभा का आयोजन हुआ जिसे जनसंघ के अध्यक्ष डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने संबोधित किया। इसी सभा में अगले दिन जम्मू के शहीदों के अस्थिकलश आने की सूचना दी गयी।
6 मार्च की दोपहर से ही लोग दिल्ली स्टेशन पर जुटने शुरू हो गये। 5 बजते-बजते पूरा स्टेशन खचा-खच भर गया। भारी मात्रा में पुलिस भी तैनात थी और उसने अस्थिकलश अपने कब्जे में लेने की पूरी तैयारी कर रखी थी। इसका संकेत मिलते ही आयोजकों ने अस्थिकलशों को कुछ पहले ही ट्रेन से उतार लिया तथा उन्हें लेकर सुरक्षित चांदनी चौक पहुंच गये। जनता को समाचार मिला तो हुजूम चांदनी चौक की ओर बढ़ चला।
अस्थि कलश को श्रद्धाञ्जलि अर्पित करने चांदनी चौक पहुंचे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, बैरिस्टर निर्मलचन्द्र चटर्जी, नन्दलाल शर्मा तथा वैद्य गुरुदत्त को पुलिस ने भीड़ के बीच गिरफ्तार कर लिया। शेष जनता को आंसूगैस के गोले छोड़ कर तथा लाठी चला कर तितर-बितर करने की कोशिश की। जनता वहां से हट गयी किन्तु कुछ देर बाद ही टाउन हॉल को घेर लिया। यहां पुन: आंसूगैस तथा लाठीचार्ज हुआ किन्तु जनता टस से मस न हुई। आधी रात तक दिल्ली के विभिन्न क्षेत्रों में सरकार विरोधी नारे गूंजते रहे।
डा. मुखर्जी की गिरफ्तारी तथा पुलिसिया अत्याचार के विरुद्ध दिल्ली व पठानकोट में सत्याग्रह की घोषणा की गयी। देश भर से जत्थे आने लगे। पुलिस उनसे निरंतर मार-पीट तथा असभ्य व्यवहार करती थी। उत्तर प्रदेश जनसंघ की उपाध्यक्ष माता हीराबाई अय्यर तथा उनके साथ की अन्य महिला सत्याग्रहियों को आधी रात में पुलिस ने दिल्ली से 20 किलोमीटर दूर घने जंगल में ले जाकर छोड़ दिया। यहां तक कि महिलाओं के सुहाग के चिह्न चूड़ियों को भी जेल के अधिकारियों ने तोड़ दिया।
एक ओर जहां सत्याग्रहियों को पुलिस भीड़ के सामने अपमानित करती थी वहीं जेल के अंदर भी दमनचक्र चालू था। जम्मू में गिरफ्तार सत्याग्रहियों को श्रीनगर की भीषण ठंड में बिना गर्म कपड़ों के भेज दिया गया। निरंतर मारपीट और हथकड़ी-बेड़ी पहनाने जैसी घटनाएं तो आम थीं। इसके विरोध में 20 अप्रैल को 'दमन विरोधी दिवस' की घोषणा की गयी।
प्रजा परिषद को इस बात का श्रेय है कि उसने जम्मू-कश्मीर में भारत के साथ अपनी पहचान जोड़ने वाले नागरिकों को एकजुट होने के लिये एक मंच प्रदान किया, उसके नेतृत्व में राज्य में चले राष्ट्रवादी शक्तियों के आन्दोलन ने जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने के अंग्रेजी षड्यंत्र तथा कश्मीर का सुल्तान बनने के शेख अब्दुल्ला के मंसूबों का जनान्दोलन द्वारा सफल प्रतिकार किया तथा इस मुद्दे पर देश का ध्यान आकृष्ट करने तथा प्रबल जनमत निर्माण करने में सफल रहा।
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