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इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अखिलेश यादव सरकार द्वारा आतंकी हमलों में आरोपित लोगों के खिलाफ दायर मुकदमें को वापस लेने की पहल पर रोक लगाकर सपा की सांप्रदायिक राजनीति को करारा झटका दिया है। अपने पूर्व मुख्यमंत्रित्व काल में इसी सांप्रदायिक नीति के चलते मुलायम सिंह सत्ता से बेदखल रह चुके हैं, लेकिन एक बार फिर उस लीक से हटने की बजाय उस पर और तेजी से अमल करने पर उतारू हैं। देश का शायद ही कोई ऐसा राज्य होगा जिसने बजट राशि का निर्धारित प्रतिशत केवल मुसलमानों पर व्यय करने का निर्णय किया हो। अखिलेश सरकार ने 'अल्पसंख्यक' शब्द का बहाना नहीं लिया है, सीधे लिखित रूप में यह आदेश जारी कर दिया है कि सभी योजनाओं का 20 प्रतिशत केवल मुसलमानों के लिए ही व्यय करें। उनके मंत्रिमंडल के एक सदस्य आजम खां इसके बावजूद संतुष्ट नहीं हैं। उनकी मांग है कि कम से कम बजट का 25 प्रतिशत केवल मुसलमानों के लिए सुनिश्चित किया जाए।
उत्तर प्रदेश और अधिकांश अन्य राज्यों में भी अनुसूचित जाति एवं जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग के बच्चों की मुफ्त शिक्षा के लिए छात्र संख्या के आधार पर अनुदान दिया जाता है। अखिलेश सरकार आने के बाद से यह अनुदान बंद हैं। जिस पिछड़े वर्ग के मसीहा होने का दावा मुलायम सिंह यादव कर करते रहे हैं, उसके छात्रों को अनुदान नहीं दिया जा रहा है। रामपुर, मुरादाबाद, सहारनपुर, सीतापुर, लखनऊ और आजमगढ़ के औचित्यहीन मुस्लिम शिक्षा संस्थाओं को उनकी मांग के अनुसार दान दिया जा रहा है। शिक्षा, वित्त और योजना मंत्रालय के कार्यालयों में आजकल केवल इन्हीं विद्यालयों-मदरसों के लोग नजर आ रहे हैं। छात्र और अध्यापक के अनुपात के आधार पर पदों का सृजन करने की स्वीकृति के नियम को ताक पर रखकर अखिलेश सरकार मांग के आधार पर स्वीकृति दे रही है। इस अति मुस्लिमवाद वाद का नतीजा यह हो रहा है कि जहां एक ओर सांप्रदायिक तनाव बढ़ता जा रहा है, वहीं मुस्लिम के नाम पर सरकार को धमका कर 'ब्लैकमेल' करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम की अति बर्दाश्त से बाहर हो गई और अब वह मुलायम सिंह को सबक सिखाने पर उतारू हो गए हैं। बरेलवी संप्रदाय के मुखिया तौकीर रजा ने राज्यमंत्री का दर्जा अभी इसलिए स्वीकार नहीं किया है क्योंकि मुलायम सिंह अपने चुनावी वादे 'आबादी के आधार पर मुसलमानों को आरक्षण देने' के लिए कोई कदम नहीं उठा रहे हैं।
यूं तो उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार को, जो उनके बेटे के नेतृत्व में चल रही है, मुलायम सिंह कई बार फटकार सुना चुके हैं और अखिलेश को भी बीस बार से अधिक चेतावनी दे चुके हैं, लेकिन जून के शुरुआत में मुलायम सिंह ने यह कहकर कि 'यदि मैं मुख्यमंत्री होता तो 15 दिन में कानून-व्यवस्था सुधार देता, स्वीकार कर लिया है कि उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था कितनी भयावह है। हालांकि आज भी सरकार को वही चला रहे हैं, मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे बिना। जिस प्रकार सोनिया गांधी जो कुछ केंद्र में हो रहा है, उसकी कर्ता-धर्ता हैं, लेकिन आरोप मनमोहन सिंह के मत्थे मढ़ा जा रहा है। वैसे ही उत्तर प्रदेश की बिगड़ती शांति-व्यवस्था के कारण अखिलेश सरकार के प्रति बढ़ते आक्रोश से अपने को अप्रभावित रखने की मुलायम सिंह की यह चाल है। उ.प्र. की बिगड़ती कानून-व्यवस्था का एक कारण मुलायम सिंह ही हैं, क्योंकि अप्रैल के महीने में उन्होंने पार्टी के विधायकों और पदाधिकारियों की बैठक में यहां तक कह दिया कि अब जिलों में वही होगा जो जिलाध्यक्ष कहेंगे। वही हो भी रहा है।
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम संस्थाओं को दान की उदारता का भरपूर फायदा दिया जा रहा है, जो संविधा सम्मत नहीं है। केन्द्र सरकार ने छह मुस्लिम विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए थोरेट कमेटी बनाई थी। उसकी संस्तुति आ चुकी है, जिसमें कहा गया है कि सेकुलर राज्य में संप्रदाय के आधार पर सरकार कोई व्यय नहीं कर सकती, यह संविधान के खिलाफ होगा। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और दिल्ली की जामिया मिलिया द्वारा अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त करने के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में वाद चल रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश में तो पाकिस्तान का 'चार्टर' तैयार करने वाले मुहम्मद अली जौहर विश्वविद्यालय को, जो अभी प्रारंभिक दौर में है, सरकार पचास करोड़ तो दे ही चुकी है। कितने ही विभागों की प्रदेशव्यापी योजनाओं का व्यय केवल जौहर विश्वविद्यालय के लिए खर्च हो रहा है। समाजवादी पार्टी ने विधायकों को अपनी विधायक निधि से दस-दस लाख रूपए जौहर विश्वविद्यालय को देने का आदेश दिया है। केंद्रीय सरकार से अल्पसंख्यकों को लाभान्वित करने के लिए मिले ग्यारह सौ करोड़ रूपए खर्च हो चुके हैं, और धन की मांग जारी है।
यह ऐतिहासिक सचाई है कि आज जो पाकिस्तान और बंगलादेश हैं, वहां मुस्लिम आबादी की बहुलता के बावजूद मुस्लिम लीग का प्रभाव कभी नहीं रहा था। पाकिस्तान बनवाने का श्रेय मुख्यत: उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमानों को है, जहां आजादी के पूर्व और बाद में भी सबसे ज्यादा दंगे हुए हैं। आजादी के पूर्व केवल मुस्लिम लीग पृथकता की बात करती थी। अब पत्नी-बच्चों या भाई- भतीजों तक पार्टी को सीमित कर देने वाले राजनीतिक लोग विभाजन के पूर्व की अपेक्षा सौ गुना अधिक सांप्रदायिकता को उभारने में लगे हैं। वोट के इन सौदागरों की हरकतों ने मुस्लिम समाज को 'बेचने' वाले कठमुल्लों को बढ़ावा दिया है, और वे 'ब्लैकमेल' कर रहे हैं। लेकिन यह समझ लेना जरूरी है जैसे पाकिस्तान बनने से उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमानों का कोई भला नहीं हुआ, वह सर्व समाज में संदेह की निगाह से देखे जाते रहे हैं, वैसे ही इस वोट बैंक की राजनीति से उनका भला होने वाला नहीं है। सवाल सौदागरों और ठेकेदारों का नहीं है, सवाल है समाज का-विशेषकर मुस्लिम समाज का- वह 'अल्पसंख्यकवाद' के फरेब से बाहर निकल पाएगा या नहीं? राजनाथ सिंह 'सूर्य'
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