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पिछले सप्ताह सभी खबरिया चैनलों और अखबारों पर भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की गोवा बैठक छायी रही। पहले बैठक की तैयारी का समाचार, फिर बैठक में आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता और उनके अतिरिक्त यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, शत्रुघ्न सिन्हा और उमा भारती जैसे नेताओं की अनुपस्थिति का समाचार, बैठक प्रारंभ होने पर सुषमा स्वराज के तीन घंटे लेट पहुंचने और कार्यक्रम स्थल से काफी दूर एक होटल में ठहरने का समाचार, फिर प्रश्न कि क्या आडवाणी की अनुपस्थिति में यह बैठक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का आगामी लोकसभा व विधानसभा चुनावों के प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष पद पर अभिषेक कर पायेगी? यदि अभिषेक हुआ तो भाजपा की कितनी हानि होगी? नरेन्द्र मोदी का व्यक्तित्व कितना विभाजनकारी है? क्यों भाजपा नरेन्द्र मोदी के लिए अपने संस्थापक सदस्य आडवाणी की भावनाओं की उपेक्षा कर रही है? क्यों वह सुषमा स्वराज के इस आग्रह को अनसुना कर रही है कि आडवाणी जी की अनुपस्थिति में कोई निर्णय न लिया जाए?
सिर्फ नकारात्मक दृष्टिकोण
किन्तु जब नरेन्द्र मोदी का अभिषेक हो ही गया और उस निर्णय से पूरे अधिवेशन में उत्साह और हर्ष की लहर दौड़ गई, उसके विरोध में कोई स्वर सुनायी नहीं पड़ा, जिन्हें उस निर्णय के विरुद्ध बताया जा रहा था वे भी मंच पर उपस्थित रहकर उस निर्णय का समर्थन करते दिखायी दिये, तो भी टेलीविजन स्क्रीन पर बार-बार उनके चेहरे दिखाकर कहा गया कि उनके मन की असहमति उनके गुमसुम और उदास चेहरों पर साफ झलक रही है। इसके बाद आया कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करने का सत्र। इस सत्र में अरुण जेटली का बहुत ही प्रभावी व सकारात्मक भाषण हुआ। अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने नरेन्द्र मोदी से पहले बोलने की पहल की और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के निर्णय की पुष्टि करते हुए कहा कि 'लोकतंत्र में लोकप्रिय नेता ही नेता होता है।' बैठक के इस उत्साहपूर्ण सकारात्मक पक्ष की गहराईयों में प्रवेश करने की बजाय सभी चैनल मंच पर लगे एक पोस्टर में अटल और आडवाणी के चेहरों की अनुपस्थिति का बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन करने लगे कि जनसंघ और भाजपा के संस्थापक चेहरे नदारद हैं। जिन आडवाणी ने भाजपा को लोकसभा में 2 से 89 सीटों तक पहुंचाया, जिन्होंने भाजपा को 6 वर्ष तक सत्ता में रहने की स्थिति में पहुंचाया, उन आडवाणी को भाजपा ने पूरी तरह भुला दिया। तभी किसी ने 'कैमरामैनों' का ध्यान अटल और आडवाणी के दो आदमकद 'कटआउटों' की ओर खींचा तो बेचारे सकपका गये और शर्मा-शर्मी में एकाध बार उन्हें भी दिखाने लगे। खबरिया चैनलों को सबसे अधिक रस आया इस बात में कि सुषमा स्वराज देर से पहुंचीं और कार्यकर्ताओं का सम्बोधन सत्र आरंभ होने के पहले ही दिल्ली उड़ गयीं। तीन मुख्यमंत्रियों- शिवराज सिंह, रमन सिंह व मनोहर परर्ीकर के द्वारा नरेन्द्र मोदी का अभिनंदन और समर्थन उन्हें इतना महत्वपूर्ण नहीं लगा।
अच्छा क्यों नहीं देखते?
इस अधिवेशन के समय गोवा के युवा मुख्यमंत्री मनोहर परर्ीकर का हंसमुख चेहरा, उनकी सादगी और निरंहकरिता मीडिया के लिए आकर्षण और चर्चा का विषय नहीं बनी। वे विमानतल पर प्रतिनिधियों के स्वागत से लेकर पाण्डाल और भोजन की व्यवस्था तक सब जगह दिखायी देते थे। उसी हंसमुख चेहरे के साथ, बिना किसी अंगरक्षक या सहायक को साथ लिये, अपनी स्थायी विनम्रता के साथ। किंतु उनके दृढ़ संकल्पी व्यक्तित्व का आभास अधिवेशन प्रारंभ होने के पहले ही मिल गया जब उन्होंने पत्रकारों के सामने पार्टी और राष्ट्र के हित में नरेन्द्र मोदी को ही चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपने के अपने मनोभाव को प्रगट कर दिया।
मनोहर परर्ीकर के इस अनुकरणीय पहल और उदाहरण को अपने दर्शकों के सामने लाने की बजाय टीवी चैनलों ने अस्वस्थ आडवाणी को 'शरशय्या पर लेटे भीष्म पितामह' के रूप में दिखाना उचित समझा। उनके ब्लाग पर भीष्म पितामह, हिटलर व मुसोलिनी के नामोल्लेख के चटखारे लेकर अजीबोगरीब व्याख्याएं कर रहे थे। अगले दिन आडवाणी जी के त्यागपत्र ने तो उन्हें स्वर्ण अवसर दे दिया। राजनाथ सिंह के नाम आडवाणी जी के पत्र को बार-बार 'स्क्रीन' पर दिखाया गया। सोनिया पार्टी के ढिंढोरचियों ने उस पत्र को अपना चुनाव पोस्टर बनाने का एलान कर दिया। भाजपा पर व्यंग्य वाण कसने शुरू कर दिये। राजीव शुक्ला, रेणुका चौधरी, राशिद अल्वी, शकील अहमद एक से एक चुने हुए व्यंग्य वाण चलाने लगे। सभी चैनलों पर बहस शुरू हो गयी, तथाकथित भाजपा विशेषज्ञों ने उस त्यागपत्र के अनेक अर्थ लगाने शुरू कर दिये। कहा गया कि आडवाणी ने भाजपा पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 'रिमोट कंट्रोल' के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजा दिया है। वे भाजपा पर संघ के 'माइक्रो मैनेजमेंट' से दु:खी थे, परेशान थे। संघ ने उन्हें 2006 में अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने को मजबूर किया था। अब अपने संस्थापक के बिना भाजपा अनाथ हो गयी है। आडवाणी के जाते ही राजग बिखर जाएगा। पर शिवसेना और अकाली दल ने इसे भाजपा का आंतरिक मामला बताया, नरेन्द्र मोदी के नये दायित्व का स्वागत किया। भाजपा प्रवक्ताओं ने आडवाणी जी के प्रति पूरा सम्मान दिखाया, उनके त्यागपत्र पर चिंता प्रगट की, उनको मनाने की पूरी कोशिश की। उनको मनाने के लिए उनके घर पर भाजपा नेताओं का तांता लग गया। भाजपा के संसदीय बोर्ड ने बैठक करके आडवाणी जी के त्यागपत्र को अस्वीकार कर दिया। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह पहले ही उसे अस्वीकार कर चुके थे। भाजपा नेतृत्व पूरी तरह आडवाणी जी की वरिष्ठता को नमन कर रहा था।
अफवाहों के निहितार्थ
अब भी मीडिया में तरह-तरह की अफवाहें घूम रही हैं। इसमें सबसे रोचक प्रकरण सुषमा स्वराज का था। आडवाणी जी के घर जाते समय कार में बैठे-बैठे उन्होंने कहा, 'आज सायं 4.45 पर उनसे मेरी भेंट का समय तय हुआ था। पर अचानक उनका त्यागपत्र आ गया। मैं उनसे मिलने जा रही हूं, सब ठीक हो जाएगा, आप विश्वास करें, सब ठीक हो जाएगा।' कुछ लोगों ने उनके इस कथन के अर्थ लगाने शुरू कर दिये। क्या सुषमा स्वराज सचमुच अपने को प्रधानमंत्री पद का सहज दावेदार मान चुकी थीं? क्या वे नरेन्द्र मोदी को अपनी राह का रोड़ा समझने लगी थीं? क्या उन्होंने आडवाणी जी को अपनी नरेन्द्र मोदी विरोधी रणनीति का हथियार बनाया? क्या उन्होंने ही शिवराज सिंह को उनके प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़ा करने की बिसात बिछायी, जिसमें शिवराज सिंह नहीं फंसे? क्या उन्होंने ही नरेन्द्र मोदी को रास्ते से हटाने के लिए गडकरी को विधानसभा चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाने के जाल बिछाये, जिसमें गडकरी नहीं फंसे? क्या उनके कहने पर आडवाणी जी गोवा नहीं गये, ताकि सुषमा स्वराज उनकी अनुपस्थिति को आधार बनाकर मोदी के नये दायित्व पर विराम लगाया जा सके? परंतु जब वहां अपने को अकेला पाया और उस घोषणा के समय उनका बुझा हुआ चेहरा टीवी स्क्रीनों पर दिखायी पड़ा, तो वे पहले ही दिल्ली चली आयीं। क्या उनकी प्रेरणा से ही त्यागपत्र का अध्याय प्रारंभ हुआ? किन्तु जब वह भी खाली चला गया तो आडवाणी जी को भाजपा में बनाये रखने का रास्ता खोजना शुरू हो गया। सबसे विचित्र यह हुआ कि जिस संघ के नियंत्रण के विरुद्ध आडवाणी जी का विद्रोह बताया जा रहा था, उसी संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत से टेलीफोन पर बात करके आडवाणी जी ने अपना त्यागपत्र वापस लिया। अर्थात मीडिया के लाल बुझक्कड़ चक्कर में पड़ गये कि आडवाणी ने संघ के 'रिमोट कंट्रोल' का विरोध करते-करते स्वयं संघ के प्रति समर्पण कर दिया।
नरेन्द्र मोदी ही क्यों?
वस्तुत: इस प्रकरण को लेकर चैनलों और अखबारों में जितनी बहस हुई उससे यह साफ हो गया कि अधिकांश पत्रकार न तो यह समझ पाये कि नरेन्द्र मोदी के पक्ष में पूरे भारत में समर्थन की लहर का कारण क्या है। वे इस लहर को एक गुट के संगठित प्रयास का परिणाम बताते रहे। वे यह नहीं देख पाये कि 2002 से पूरा प्रचार तंत्र नरेन्द्र मोदी पर केन्द्रित रहा है। मुस्लिम वोटों को रिझाने के लोभ में सभी राजनीतिक दल पहले अयोध्या आंदोलन और विवादास्पद बाबरी ढांचे के ध्वंस की घटना को भुनाने की कोशिश में लगे रहे। किंतु 2002 के बाद उन्होंने नरेन्द्र मोदी को मुसलमानों के हत्यारे के रूप में चित्रित करके मुस्लिम मन में उनके और भाजपा के विरुद्ध जहर भरना शुरू कर दिया। बिहार में लालू और पासवान ने तो मोदी को अपना 'पोस्टर ब्वाय' बना लिया। तीस्ता सीतलवाड़, शबनम हाशमी, फादर सैड्रिक प्रकाश, मुकुल सिन्हा, मल्लिका साराभाई जैसे कुछ नाम चौबीसों घंटे मोदी के विरुद्ध षड्यंत्री राजनीति में जुट गये। इन बारह वर्षों में गुजरात के सर्वतोमुखी विकास, वहां के मुस्लिम समाज द्वारा मोदी का समर्थन और दंगा-मुक्त गुजरात के सत्य की उन्होंने उपेक्षा की। पूरा विश्व गुजरात के विकास मॉडल की सराहना करता रहा, पर ये झूठे सेकुलरवादी मोदी निंदा में जुट रहे। इसकी तीव्र प्रतिक्रिया भारत के राष्ट्रवादी मन पर हुई है। पूरे भारत में बिखरा युवा अंत:करण नरेन्द्र मोदी को विकास पुरुष के रूप में एवं मुस्लिम साम्प्रदायिकता को भड़काने की झूठी सेकुलर राजनीति के विरुद्ध नरेन्द्र मोदी को भारतीय राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में देखने लगा। इसीलिए पूरे भारत में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में एक लहर उमड़ी जिस पर सवार होकर मोदी सामने आये हैं। मोदी के इस उभार को राष्ट्रवाद के उभार के रूप में देखा जाना चाहिए।
संघ और भाजपा संबंध
इसी प्रकार मीडिया भाजपा और संघ के रिश्तों और आडवाणी और संघ के संबंधों को समझने में पूरी तरह असमर्थ है। वह यह नहीं जानता कि भाजपा किसी व्यक्ति के द्वारा स्थापित दल नहीं है, वह व्यक्ति पूजा से पूरी तरह मुक्त है। गोवा अधिवेशन में से निकला यह संदेश उन्हें अब समझ लेना चाहिए। भाजपा के जिन कार्यकर्त्ताओं के नाम लेकर कहा जा रहा है कि उन्हें आडवाणी जी ने राजनीतिक क्षेत्र में खड़ा किया, वे लगभग सभी संघ विचार परिवार के सदस्य होने के नाते राजनीतिक क्षेत्र में आये। भाजपा का जन्म 1980 में नहीं 1951 में हुआ था, और तब किसी व्यक्ति विशेष द्वारा नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार प्रवाह में से हुआ। जनसंघ अकेला राजनीतिक दल है जिसका विकास ऊपर से नीचे नहीं, नीचे से ऊपर हुआ। व्यक्ति और वंश केन्द्रित राजनीति के वातावरण में पले आज के पत्रकारों को इस इतिहास का ज्ञान नहीं है कि भारतीय जनसंघ की पहले जिला इकाईयां बनीं, फिर प्रांत इकाईयां और अंत में अखिल भारतीय इकाई की स्थापना अक्तूबर, 1951 में हुई। जनसंघ के अध्यक्ष पद के लिये उन्होंने स्व. द्वारिका प्रसाद मिश्र और डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी में से डा.मुखजीर् को अपनाया। जनसंघ की इस निर्माण प्रक्रिया का मैं स्वयं साक्षी रहा हूं।
अगर पत्रकार गहरायी में जाएंगे तो पाएंगे कि जनसंघ और भाजपा का अधिकांश नेतृत्व वर्ग और कार्यकर्ता स्वतंत्र रूप से संघ परिवार के अंग हैं। उनकी मूल निष्ठा संघ विचारधारा के प्रति है। वे व्यक्ति पूजक नहीं, तत्वनिष्ठ हैं। इस सत्य को समझने के लिए वे आडवाणी जी और अटल जी के जीवन चरित्रों को पढ़ें। उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि 1979 में जनसंघ ने संघ के साथ अपने संबंधों के आधार पर ही जनता पार्टी से संबंध विच्छेद कर लिया था। इसीलिए संघ को भाजपा के 'रिमोट कंट्रोल' के रूप में देखना बचकाना है। संघ का प्रयास राजनीति को राष्ट्रवादी, श्रेष्ठ जीवन मूल्यों और अनुशासित बनाने पर है, न कि सत्ता हथियाने पर। सत्ता हथियाना किसके लिए? 1951 से अब तक संघ नेतृत्व की पांच पीढ़ियां बदल चुकी है। अनेक पीढ़ियों तक सत्ता पाने की आकांक्षा वंशवादी दलों में तो हो सकती है पर राष्ट्रभक्त, विचारनिष्ठ दल में नहीं। वस्तुत: संघ के कारण ही भारतीय राजनीति में भाजपा का अपना वैशिष्ट्य है। यह सत्य है कि चुनावी राजनीति के कारण सभी राजनीतिक दलों का चरित्र विकृत हुआ है, तो भाजपा का भी हुआ है, पर उन विकृतियों से बाहर निकालने का प्रयास ही संघ की ओर से होता है, इस सत्य को आज के पत्रकारों को समझ लेना चाहिए। näù´Éäxpù स्वरूप
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