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हरित क्रांति का अभिशाप झेल रहा पंजाब बहुफसली खेती की ओर मुड़ता दिखाई दे रहा है। कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि खेती में विविधता न केवल भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए उपयोगी होगी, बल्कि फसलों की पैदावार में जो एकरूपता आ गई है, उसे भी विविधता में बदला जा सकता है। हरित क्रांति के बाद प्रचलन में आई कृषि प्रणाली को बदलना इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय की एक रपट के मुताबिक पिछले 10 साल में अकेले पंजाब में 7000 से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इन बदतर हालातों के मद्देनजर यह अच्छी बात रही कि पंजाब सरकार ने वैज्ञानिकों का सुझाव मानते हुए बहुफसली खेती को बढ़ावा देने वाले उपायों को अमल में लाना शुरू कर दिया है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि हरित क्रांति कृषि के वैश्विक फलक पर एक ऐतिहासिक घटना थी। इस क्रांति को भारत में सफल बनाने की दृष्टि से डॉ. नॉर्मन बोरलॉग और सी सुब्रह्मण्यम की अहम् भूमिकाएं रहीं थीं। डॉ बोरलॉग 1963 में भारत आए थे। यहां गेहूं की कम पैदावार देखकर उनका चिंतित होना लाजिमी था। इसी समय अमरीका ने जापान से कुछ विलक्षण किस्म के गेहूं के आनुवांशिक बीज लेकर नई किस्में विकसित कीं थीं। मैक्सिको ने भी गेहूं उत्पादकता की कमी के चलते इस तकनीक को अपनाया और सफलता पाई। कृषि सचिव सी सुब्रह्मण्यम ने ढाई टन बीज मैक्सिको से आयात किए और इनका कृषि संस्थानों में परीक्षण किया। कारगर नतीजे आने के बाद मैक्सिको से 18 हजार टन गेहूं आयात किया गया। ये लरमा रोजो-64 और सोनोरा-64 नामक किस्में थीं। 1966-67 में इन्हीं बीजों से हरियाणा-पंजाब की 2,40,000 हेक्टेयर कृषि भूमि में खेती की गई। इसके आश्चर्यजनक नतीजे आए। 1967 में 12.4 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन हुआ, 1968 में यह बढ़कर 16 मिलियन टन हो गया। बाद में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय और जीबी पंत कृषि प्रौद्योगिकी संस्थान, पंतनगर ने इन्हीं बीजों को सोनालिका और कल्याण-सोना नाम उत्पादित करके पूरे देश में फैलाया। गेहूं की बढ़ी उत्पादकता से खुश होकर इंदिरा गांधी ने गेहूं-क्रांति पर एक डाक टिकट भी जारी कराया।
लेकिन महज 30 साल बाद ही देश को अनाज के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने वाली इस कृषि प्रणाली का भयावह काला पक्ष दिखने लगा। क्योंकि इसकी ज्यादा उत्पादकता में सिंचाई के लिए बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत और रसायनिक खाद व कीटनाशकों की उपयोगिता अनिवार्य थी। नतीजतन धीरे-धीरे जमीन ने उर्वरा क्षमता तो खोई ही, भूजल के बेतहाशा दोहन से पूरे देश का जल स्तर पाताल चला गया। पंजाब के कई इलाके 'शुष्क क्षेत्र' (डार्क जोन) घोषित कर दिए गए। अब इन क्षेत्रों से आधुनिकतम तकनीकों से पानी खींचना नामुमकिन हो गया। दूसरी तरफ बड़ी मात्रा में रसायनों के उपयोग से पंजाब के किसान कैंसर जैसे लाइलाज रोग से ग्रस्त होने लगे। सबसे ज्यादा बुरे हालात मालवा इलाके में देखने में आ रहे हैं। यह इलाका सबसे ज्यादा समृद्ध है और जहां 26 प्रतिशत खेती को सिंचाई की सुविधा हासिल है। यहां 52 फीसदी सिंचाई नहरों के पानी से होती है। यह विंडबना ही है कि सबसे ज्यादा इसी मालवा क्षेत्र के अन्नदाता मौत को गले लगाने पर आमादा हैं। कैंसर पीड़ित भी इसी इलाके में ज्यादा हैं। क्योंकि यहीं जहरीले रसायनों का ज्यादा उपयोग हुआ है। अब हालात पलट गए हैं, किसान इसी जमीन से फसल तो कम निकाल पा रहा है, लेकिन खेती की लागत बढ़ जाने से कर्ज में डूबता जा रहा है। पंजाब के किसानों पर 2010-11 के आंकड़ों के मुताबिक 35 हजार करोड़ रुपए का कर्ज बकाया है।
अन्नदाता के इन बदतर हालातों के मद्देनजर जरूरी था कि मौजूदा कृषि नीति और खेती के तरीकों को बदला जाए। इसी नजरिए को ध्यान में रखते हुए पंजाब सरकार ने फैसला लिया है कि धान की उगाही में कमी लाई जाएगी। राज्य सरकार ने करीब 12 लाख हेक्टेयर जमीन में दूसरी फसलों की पैदावार के लिए 7.5 हजार करोड़ रुपए की एक योजना को अंतिम रूप दिया है। इसी कड़ी में सरकार ने बरसात से पहले धान की खेती करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। इस पहल से धान का रकवा घटेगा और भूजल दोहन थमेगा।
पंजाब में फिलहाल 28 लाख हेक्टेयर भूमि में धान की खेती होती है। सरकार की मंशा है, अगले पांच साल में इसे घटाकर 16 लाख हेक्टेयर कर दिया जाए। जिससे शेष कृषि भूमि में दालें, तिलहन, मक्का, ज्वार व अन्य शुष्क फसलें पैदा की जा सकें। हरित क्रांति से पहले भारत दाल और तिलहनों के मामले में आत्मनिर्भर था। किसान खुद देशी कोल्हुओं में मूंगफली, तिल और सरसों की पिराई करके तेल की आपूर्ति पूरे समाज के लिए कर लेता था, किंतु उद्योगों को बढ़ावा देने की मंशा के चलते इन देशज तकनीकों को नेस्तनाबूद कर दिया गया। पंजाब की इस पहल को मिसाल मानते हुए पूरे देश में यदि खेती में विविधता लाई जाती है तो इस विविधीकरण के अनेक लाभ होंगे। छोटे किसानों और छोटी जोत का महत्व सामने आएगा। 85 प्रतिशत किसान इसी वर्ग में आते हैं। अब तक बड़े किसान और बड़े खेतों के मद्देनजर इस वर्ग की अनदेखी की गई है। जबकि लघु खेत और सीमांत किसान बड़ी उत्पादकता से जुड़े हैं। जितना छोटा खेत होगा, पैदावार उतनी ही ज्यादा होगी। क्योंकि उसकी देख-रेख उचित ढंग से हो जाती है। किसान इस खेत में जरूरत पड़ने पर सिंचाई, बिना ऊर्जा की खपत वाले देशज संसाधनों से कर लेता है और खाद का इंतजाम मवेशियों के गोबर से कर लेता है। अण्णा हजारे ने अपने गांव रालेगन सिद्धि में कृषि के ऐसे ही छोटे उपायों से किसानों को आत्मनिर्भर बनाया है।
दाल, तिलहन और मोटा अनाज उत्पादकों को प्रोत्साहन व संरक्षण के लिहाज से इन फसलों को गेहूं-चावल की तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने की भी जरूरत है। साथ ही सीमांत किसानों को सहकारी बैंकों से ब्याज मुक्त कर्ज मुहैया कराने की जरूरत है। बैंक इन्हें अब कर्ज नहीं देते। इसकी तसदीक खुद बैंकों द्वारा जारी आंकड़ों से हुई है। बहरहाल समय आ गया है कि भूमि की उर्वरा क्षमता बनाए रखने, जल का संरक्षण करने और लोगों को जहरीलें रसायनों की वजह से हो रही बीमारियों से बचाए रखने के लिए कृषि की प्रचलित पद्धतियों को बदला जाए और खेती में विविधता लाई VÉÉB* |ɨÉÉänù भार्गव
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