कश्मीर समस्या और वार्ताकार
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कश्मीर समस्या और वार्ताकार
13 अक्तूबर, 2010 को केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने कश्मीर समस्या का समाधान ढूंढने के लिए भारत के तीन कथित विद्वानों की समिति बनाई। ये तीन कथित विद्वान हैं-अंग्रेजी के वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, मैकाले परम्परा की विद्वान राधा कुमार तथा वामपंथी विचारक व अर्थशास्त्री एम.एम.अंसारी। संभवत: यह पहला अवसर है जब कश्मीर जैसी महत्वपूर्ण समस्या का समाधान खोजने के लिए 'बुद्धिजीवियों की टोली' को लगाया गया। इससे पूर्व पं.नेहरू ने 1963 में हजरत बल के प्रश्न पर लाल बहादुर शास्त्री, 1974 में इंदिरा गांधी ने जी.पार्थसारथी व 1990 के दशक में कश्मीर के प्रश्न पर राजेश पायलट व जार्ज फर्नांडीस की सहायता ली गई थी। इसलिए सरकार द्वारा वर्तमान वार्ताकारों की नियुक्तियों का विरोध भी हुआ तथा किसी वरिष्ठ राजनीतिक व्यक्ति की नियुक्ति की मांग भी की गई।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सर्वविदित है कि कश्मीर समस्या वस्तुत: कांग्रेस सरकार और मुख्यत: नेहरू परिवार की देन है। स्वतंत्रता के बाद ही पं. नेहरू ने कश्मीर रियासत के प्रश्न को सरदार पटेल से छीनकर स्वयं अपने हाथों में लिया था। हालांकि 26 अक्तूबर, 1947 को कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय हो गया था, पर उसके बाद क्रम प्रारंभ हुआ एक के बाद एक अक्षम्य भूलों का। 4 नवम्बर, 1947 को पाकिस्तानी कबाइलियों को भारतीय सेना द्वारा वापस खदेड़ दिया गया था, परंतु भारतीय सेना के बारामूला तक पहुंचने पर अचानक युद्ध विराम कर दिया गया। इस घोषणा के कारण एक तिहाई कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में ही रह गया। जनवरी, 1948 में कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र में ले जाना, अपने मित्र शेख अब्दुल्ला के सुझाव पर 17 अक्तूबर, 1949 को भारतीय संविधान सभा के अत्यधिक विरोध के बाद भी धारा 370 जोड़ना, पहले राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के कारण शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करना फिर अप्रैल, 1964 में छोड़ देना आदि पं.नेहरू की भयंकर गलतियां थीं। डा.कर्ण सिंह के अनुसार, 'कश्मीर रियासत में मौके का फायदा उठाकर पं.नेहरू के आशीर्वाद से महाराज को हटाकर शेख अब्दुल्ला खुद जम गया (देखें हरबंस सिंह-महाराजा हरिसिंह। ट्रबल्ड ईयर्स)। इसी भांति इंस्टीट्यूट आफ पीस एंड कनफिल्ट स्टडीज के प्रसिद्ध विद्वान पी.आर.चारी ने कश्मीर के संदर्भ में पं. नेहरू की ऐतिहासिक गलतियों को स्पष्ट रूप से सिद्ध किया है। इसी क्रम में इंदिरा गांधी ने 1972 में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो से 'शिमला समझौता' कर युद्ध विराम रेखा को ही नियंत्रण रेखा मान लिया, जिसे इसके बाद से भारत-पाकिस्तान के बीच एक अन्तरराष्ट्रीय सीमा की तरह देखा जा रहा है। 1974 में पुन: शेख अब्दुल्ला से दोस्ती कर जनवरी, 1975 में उन्हें पुन: कश्मीर का मुख्यमंत्री स्वीकार किया गया। यही दोस्ती राजीव गांधी की फारुख अब्दुल्ला से चलती रही, जो आज राहुल गांधी की उमर अब्दुल्ला के साथ है।
1989 में पाकिस्तान द्वारा प्रेरित आतंकवादी गतिविधियों के कारण बड़ी संख्या में हिन्दुओं का पलायन हुआ, तब भारत सरकार को पुन: उधर ध्यान देने को बाध्य होना पड़ा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मई, 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने समस्या के अध्ययन हेतु कुछ कार्य दल बनाए, पर सफलता न मिली। उस कार्यदल के अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति सगीर अहमद ने जम्मू कश्मीर के लिए अधिक स्वायत्तता की बात की, परंतु इसका भारी विरोध हुआ, तब इसे उनकी व्यक्तिगत राय बताया गया। हुर्रियत नेताओं ने 'स्वतंत्र कश्मीर' की मांग को दोहराना शुरू कर दिया। इसी परिप्रेक्ष्य में सरकार ने एक और वार्ताकार समिति का गठन कर दिया।
वार्ताकार समिति की गतिविधियां
अक्तूबर, 2010 में सरकार ने उपरोक्त तीन वार्ताकारों की समिति नियुक्त की। पर प्रथम दृष्ट्या, यह राष्ट्रहित से जुड़े सभी प्रतिनिधियों की समिति नहीं थी। सरकार ने समिति के सदस्यों के लिए भारी वेतन तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था की। समिति के सदस्यों ने अक्तूबर मास में ही सर्वप्रथम जम्मू कश्मीर राज्य का चार दिन का दौरा किया। जाने से पूर्व समिति के सदस्य संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिले, जिसमें प्रधानमंत्री ने समिति को उच्चतम स्तर का सहयोग देने का आश्वासन दिया (देखें टाइम्स आफ इंडिया, 23 अक्तूबर, 2010)। इस समिति के तीन लक्ष्य तय किए गए-वस्तुस्थिति जानना, राजनीतिक विचार- विमर्श करना तथा भविष्य का मार्ग निर्धारित करना। लेकिन समिति के सदस्यों ने विभिन्न प्रतिनिधिमंडलों से बहकी-बहकी तथा संप्रभुता सम्पन्न समिति सरीखी बातें की। जैसे-पाकिस्तान से भी बातें करेंगे, संविधान को बदला जाएगा, किसी भी विषय पर बातचीत के लिए तैयार आदि-आदि। अब समिति का दावा है कि वे 700 प्रतिनिधिमंडलों से अर्थात लगभग 6000 लोगों से मिले तथा बातचीत की। परंतु किसी भी हुर्रियत नेता अथवा प्रमुख अलगाववादी अथवा 'स्वतंत्र कश्मीर' की मांग करने वालों के किसी भी प्रतिनिधि ने बार-बार अनुरोध के बाद भी समिति के सदस्यों से मिलने अथवा बातचीत करने से साफ इंकार कर दिया। यह समिति की भारी असफलता का पहला चरण था। अक्तूबर, 2011 में समिति ने अपनी रपट गृह मंत्रालय को सौंप दी। आंकड़ों के अनुसार इस समिति ने भारतीय जनता के कर से जुटाई गई भारी धनराशि, लगभग 96.5 करोड़ रुपए खर्च की।
समिति की मुख्य अनुशंसाएं
समिति ने अपने सुझाव को 'समस्या के समापन की रूपरेखा' अथवा 'ए न्यू कम्पैक्ट विद द पीपुल आफ जम्मू एंड कश्मीर' कहा। वार्ताकारों के अध्यक्ष ने वहां की जनता से 64 वर्षों पुरानी (1947-2011) परंपरागत विवेचना को छोड़ नई विवेचना की ओर ध्यान देने को कहा। नई सोच के अन्तर्गत कुछ प्रमुख सुझाव दिये गये। इनमें पहला है-एक संवैधानिक समिति की स्थापना की जाए जो 1952 के बाद के कश्मीर के संदर्भ में सभी केन्द्रीय सरकारों द्वारा बने कानूनों का अध्ययन करे तथा उनमें आवश्यक परिवर्तन करे। दूसरा धारा-370 को स्थायी कर दिया जाए ताकि सार्थक स्वायत्तता कायम हो। तीसरा-सुरक्षा बलों को तुरंत हटाया जाए या कम किया जाए तथा उनके विशेषाधिकारों को तुरंत समाप्त किया जाए। चौथा-पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को 'पाक प्रशासित कश्मीर' कहा जाए। पांचवा-राज्य में निर्वाचित सरकार का मनपसंद राज्यपाल होना चाहिए। छठा-भारतीय सेनाओं के अधिकारियों की संख्या पहले घटाई जाए तथा बाद में समाप्त कर दी जाए। सातवां- जिन्होंने पहली बार अपराध किया, उनके खिलाफ एफआईआर रद्द की जाए अर्थात एक दो अपराध माफ हों। आठवां-किसी भी बातचीत में अलगाववादी नेता भी शामिल किये जाएं। नवां- कश्मीर विषय में पाकिस्तान भी एक पक्ष है। पाकिस्तान का कश्मीर पर जबरन अधिकार नहीं है बल्कि उसके शासन की वास्तविकता है।
चहुंओर विरोध
तीनों वार्ताकारों की 'नई सोच वाली' इस रपट का सब तरफ तीखा विरोध हुआ। मोटे तौर पर इन सिफारिशों को भारतीय संविधान का उल्लंघन, पिछले 64 सालों से कश्मीर को एक अविभाज्य अंग बनाये रखने के लिए किए गए प्रयत्नों की उपेक्षा तथा 1994 में भारतीय संसद द्वारा पारित संकल्प का अपमान समझा गया। संसद में विपक्षी दल की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज ने इस रपट को 'घड़ी की सुई को पीछे घुमाने तथा कालचक्र को वापस धकेलने' के समान बतलाया। रपट में कश्मीर से विस्थापित हिन्दुओं के बारे में लगभग चुप्पी साधे रखी गई तथा 176 पृष्ठों की रपट में केवल लगभग दो पृष्ठ दिये गए, जबकि उनके बारे में अधिक लिखा जो वार्ताकारों से बात नहीं करना चाहते थे। वस्तुत: रपट ने भारत के राष्ट्रपति, संसद, संविधान, राष्ट्रध्वज तथा भारतीय सेना का अपमान किया है तथा अलगाववादियों को निर्लज्जतापूर्ण प्रोत्साहन दिया है। इसीलिए देश के अधिकांश जन प्रतिनिधियों, विद्वानों, विचारकों ने रपट को पक्षपातपूर्ण, अस्पष्ट तथा अधकचरी बताया है। कुछ ने इसे 'स्वतंत्र कश्मीर' का मार्ग बतलाया है। मजे की बात यह है कि रपट का सर्वाधिक विरोध वे संदिग्ध लोग भी कर रहे हैं जिनको ध्यान में रखकर यह रपट तैयार की गई है। कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता यासीन मलिक का कहना है कि हम उनसे मिले ही नहीं, हम इसे अस्वीकार करते हैं। हुर्रियत नेता मीरवायज उमर फारुख रपट को कश्मीरियों का ध्यान बंटाने वाली बताते हैं। नेशनल कांफ्रेंस के सांसद जी.एन.रत्नपुरी ने कहा कि नई दिल्ली इस मामले में गंभीर नहीं हे। सैयद अली शाह गिलानी ने इसे धोखा देने वाली रपट कहा। अब्दुल गनी बट्ट ने इसे समस्या का स्थायी हल नहीं माना। पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती पहले ही अपने 'विजन आन कश्मीर' में कराकोरम तथा अक्साई चिन को चीन का भाग बता चुकी हैं तथा स्वशासन की मांग कर रही हैं। उधर कश्मीरी समाज के महामंत्री रमेश रैना का कहना है कि रपट में सर्वाधिक पीड़ित कश्मीरी हिन्दुओं के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है। कुल मिलाकर इस रपट को समय बर्बाद करने वाली या समय को टालने वाली समझा गया। स्पष्ट है कि तीन वार्ताकारों की यह रपट राष्ट्रहित के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बनने की बजाय आतंकवादियों, अलगाववादियों, स्वतंत्र कश्मीर की मांग करने वालों के लिए एक हथियार बन गई है। यह रपट अमरीका को संतुष्ट करने वाली, पाकिस्तान को प्रसन्न करने वाली तथा चीन को मजबूत करने वाली है। निश्चय ही यह रपट विघटनकारी तथा देश की एकता, अखंडता तथा प्रभुसत्ता के लिए अत्यंत घातक है। रद्दी की टोकरी ही इसकी उपयुक्त जगह है।
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