सोचें,भारत को क्या मिला?
|
सऊदी अरब में ओ.आई.सी. और ईरान में गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन
एशिया महाद्वीप में पिछले दिनों दो बड़े अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन सम्पन्न हुए। सऊदी अरब में 'आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कंट्री' (ओ.आई.सी.) के सदस्य देशों का जमावड़ा था, तो ईरान में गुटनिरपेक्ष देश एकत्रित हुए थे। पहले बात करते हैं ओ.आई.सी.की। इस्लामी देशों के संगठन ने अपने प्रथम अधिवेशन में भारत का जो अपमान किया था वह भुलाया नहीं जा सकता। लीबिया के नगर बिन गाजी में आयोजित इस सम्मेलन में भारत ने इंदिरा गांधी के मंत्रिमण्डल में मंत्री फखरुद्दीन अली अहमद को प्रतिनिधि के रूप में भेजा था। भारत का तर्क था कि दुनिया में इंडोनेशिया के पश्चात् सबसे अधिक मुस्लिमों की जनसंख्या रखने वाला वह अकेला देश है, इसलिए उसे भी सम्मेलन में शामिल किया जाना चाहिए। लेकिन पाकिस्तान के दुराग्रह पर भारत को स्थान नहीं दिया गया था। फखरुद्दीन अली अहमद को भारत उल्टे पांव लौट जाना पड़ा था। इस्लामी देशों ने उन दिनों भारत के विरुद्ध जो घृणा व्यक्त की थी वह आज भी विश्व की बड़ी हस्तियों को याद है। तबसे आज तक इतनी बड़ी मुस्लिम जनसंख्या वाले देश भारत को ओ.आई.सी. की सदस्यता प्रदान नहीं की गई है। यह अकेला उदाहरण ओ.आई.सी. की साम्प्रदायिकता और संकीर्णता को समझ लेने के लिए पर्याप्त है।
'अमरीकी जूठन'
ओ.आई.सी. के अधिकांश देश अमरीका के समर्थक माने जाते हैं। इसलिए उन्हें 'अमरीकी जूठन' की संज्ञा से याद किया जाता है। इस बार जब सऊदी अरब में ओआईसी की बैठक हुई उस समय भी मीडिया में इसे 'मरे घोड़े' की संज्ञा दी गई। उक्त सम्मेलन की फलश्रुति यह मानी जा रही है कि सऊदी अरब के राजा ने ईरान के राष्ट्रपति अहमदी निजाद को अपने निकट बैठाया। पाठक भली प्रकार जानते हैं कि सऊदी सुन्नी देश है और ईरान शिया-बहुल। यह दोनों ही इस्लाम के दो सम्प्रदायों का नेतृत्व करते हैं। सम्मेलन के पश्चात् जो स्वर उभरा वह इस बात की ओर इशारा करता है कि सऊदी राजा को ईरान से प्रेम नहीं है, बल्कि वे तो अमरीका और इस्रायल के समर्थन में अपना राजनीतिक दांव खेल रहे थे। इस्रायल और ईरान में जो तनातनी है, वह जगजाहिर है। ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम पर समझौता नहीं करना चाहता है। वह परमाणु बम बना चुका है। इससे अमरीका भयभीत है। यह भय बढ़ता जा रहा है कि ईरान अपने परमाणु हथियार का पहला निशाना इस्रायल को ही बनाएगा। इस्रायल फिलस्तीन को अपने लिए खतरा मानता है। इसलिए ईरान का साथ लेकर फिलस्तीन कभी भी इस्रायल पर हमला कर सकता है। इस्रायल के लिए इस चुनौती का मुकबला करना अनिवार्य है। स्थिति बिगड़ती है तो परमाणु युद्ध का मैदान मध्य-पूर्व बन जाएगा। अमरीका दो कारणों से इसे रोकना चाहता है। एक तो यह कि अभी अमरीका और यूरोप में भयानक मंदी है और दूसरा इस समय अमरीका में राष्ट्रपति के चुनाव चल रहे हैं। ओबामा किसी भी सूरत में इस युद्ध को लड़ना अपने लिए खतरे की घंटी समझ रहे हैं। इसलिए सऊदी के माध्यम से ईरान पर शिकंजा कसना चाहते हैं। ओआईसी सम्मेलन सीरिया में बशरूल असद पर भी कोई शिकंजा नहीं कस सका, क्योंकि बसरूल असद शिया हैं, लेकिन सीरिया की बहुसंख्यक जनता सुन्नी। बशरूल असद आर-पार की लड़ाई लड़ लेना चाहते हैं। मुस्लिम राष्ट्रों ने जब बशरूल असद का विरोध किया तो सीरिया का प्रतिनिधिमंडल सम्मेलन से बहिर्गमन कर गया। मिस्र की स्थिति इस मामले में पड़ोसी होने के नाते बहुत खराब है। वास्तविकता तो यह है कि मुर्सी का शासन आ जाने के बाद भी वहां हुसनी मुबारक के लोग सक्रिय हैं। मिस्र स्वेज नहर को चौड़ा करना चाहता है। इस मुद्दे पर भी पड़ोसी मुस्लिम देशों में एक राय नहीं है। फिलीस्तीन मुद्दे, जिसे इस्लामी दुनिया अपना मजहबी मुद्दा मानती है, पर भी ओआईसी अब तक कुछ नहीं कर सका है। वास्तविकता तो यह है कि अब तक इस मुद्दे पर इस्लामी जगत तीन बार इस्रायल से टकरा चुका है और तीनों बार उसे करारी मात खानी पड़ी है।
पश्चिम की सहायता
इस्लामी राष्ट्रों का सम्मेलन न तो इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकवाद पर कोई निर्णय ले सका और न ही मुस्लिम राष्ट्रों में जिन अल्पसंख्यकों को सताया जा रहा है उस पर कोई प्रस्ताव पारित कर सका। पाकिस्तान में शिया, हिन्दू, सिख, ईसाई और अहमदिया अल्पसंख्यक हैं। इसी प्रकार ईरान में बाही अल्पसंख्यक के रूप में परेशान हैं। ओ.आई.सी. में अधिकांश देश पेट्रोलियम उत्पादक हैं। इस कारण उनसे शेष दुनिया पंगा नहीं लेना चाहती है। लेकिन वे इतने अविकसित और तकनीक के मामले में कोरे हैं कि बिना पश्चिमी राष्ट्रों की सहायता के उनके यहां पत्ता भी नहीं हिल सकता। इराक में एक बहुत बड़ी संख्या अमरीका विरोधियों की है। इसी प्रकार अफगानिस्तान और दुनिया के अन्य देश जहां मुस्लिम आतंकवादियों के अड्डे हैं, उनके विरुद्ध सम्मेलन में एक शब्द भी नहीं बोला गया। इस्लामी देशों पर पश्चिमी राष्ट्र हावी हैं, लेकिन इन राष्ट्रों की सरकारें आतंकवादियों के निशाने पर हैं। इसलिए सऊदी अरब में आयोजित इस्लामी देशों का सम्मेलन विरोधाभास का शिकार था। यही कारण है कि कोई ठोस प्रस्ताव पारित किए बिना ही यह सम्मेलन सम्पन्न हो गया। दुनिया के अखबारों में छपी टिप्पणियों के अनुसार ओ आई सी बिना दांत का संगठन है तो गुटनिरपेक्ष आन्दोलन बिना नाखून का। इंडोनेशिया के 'जकार्ता टाइम्स' ने इन दोनों सम्मेलनों के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है, 'इनकी स्थिति बैसाखी पर चलने वाले किसी असहाय आदमी जैसी है। जिसके पास अपने पांव तो नहीं हैं, लेकिन वह ओलम्पिक की स्पर्धा जीतने का सपना देखता है। एक के पास ताकत नहीं है इसलिए वह तटस्थ बन गया और दूसरे के पास केवल मजहब की अफीम है, जो स्वयं भी खाकर सुनहरे सपने देखता है और दूसरे से भी यह अपेक्षा रखता है कि वह नि:हत्था बन जाए। राजनीति में तो ताकतवर ही टिकता है कोई ढोंगी नहीं। सम्मेलनों के नाम पर वे आदर्शवादी बनकर स्वादिष्ट पकवान खाते हैं और मुंगेरी लाल के सपने संजोते हैं। इसके पश्चात् वे अपने घरों को लौट जाते हैं। ओआईसी को बने 42 वर्ष बीत गए हैं लेकिन उसका एक भी काम ऐसा नहीं है जिसके कारण उसे याद रखा जाए। शोकांतिका की बात तो यह है कि ओआईसी की बात मुस्लिम राष्ट्र भी नहीं मानते हैं। भूतकाल में न तो बंगलादेश और न पाकिस्तान ने युद्ध के दौरान उनकी बात सुनी और न ही इराक-ईरान युद्ध के समय। किसी की इतनी ताकत नहीं थी कि सद्दाम के साथ जो अमरीका ने किया वे उसकी निंदा कर सकें। मुस्लिम राष्ट्रों में अधिकांश राष्ट्राध्यक्ष तानाशाह बनकर देश का शोषण करने लगते हैं लेकिन इस संगठन ने कभी अपना दमखम नहीं दिखाया। उनके मुंह में लगाम नहीं डाल सका। उनकी तुलना में तो वे मुल्ला-मौलवी अधिक ताकतवर हैं, जो अपने फतवों के नाम पर समाज पर पकड़ बना लेते हैं। किसी का सामाजिक बहिष्कार करवा सकते हैं, तो किसी को दंडित भी। दुनिया में जिस आतंकवाद का कहर है वह मजहब के नाम पर ही तो है, लेकिन इस्लामी राष्ट्रों में कहीं पर भी इन मौत के सौदागरों के मुंह पर लगाम नहीं कसी जा सकी। यदि आज इस्लामी राष्ट्रों का यह संगठन आतंकवादियों के विरुद्ध खड़ा हो जाए तो आतंकवाद जड़-मूल से समाप्त हो सकता है। लेकिन जो स्वयं इनसे भयभीत हो जाते हैं वे दुनिया में किसकी रक्षा कर सकेंगे? तेल उत्पादक देशों के अधिकांश पैसे अमरीका में ही जमा हैं। कुवैत ने युद्ध के बाद जब अपने विकास के लिए उक्त धन मांगा तो अमरीका ने स्पष्ट कह दिया कि उन्हें उनके जमा पैसों पर कर्ज मिल सकता है, मूल धन कदापि नहीं।'
गुटनिरपेक्ष सम्मेलन
गुटनिरपेक्ष सम्मेलन का जन्मदाता ही भारत है। बेलग्रेड में इसका प्रथम सम्मेलन आयोजित किया गया था। जवाहरलाल नेहरू के साथ कर्नल नासिर, इंडोनेशिया के सुकार्णो और अफ्रीका के एनक्रूमो जैसे नेता शामिल थे। दूसरे महायुद्ध के पश्चात् जब दुनिया दो खेमों में बंट गई थी उस समय भारत असमंजस की स्थिति में था। अमरीका के पक्ष में जो देश थे उन्हें नाटो की संज्ञा दी गई थी। दूसरी सैनिक संधियों वाले देश सीटो और सेंटो कहलाते थे। रूस उनका नेतृत्व करता था। जवाहरलाल नेहरू ने उन दिनों एक सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि नवोदित राष्ट्र किसी भी गुट में शामिल नहीं होंगे। इस सिद्धांत को युगोस्लाविया के तत्कालीन राष्ट्रपति मार्शल टीटो, मिस्र के कर्नल नासिर ने समर्थन दिया था। इसके पश्चात् एशिया और अफ्रीका के अनेक नवोदित राष्ट्र इसमें शामिल होते चले गए। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसे 'नॉन एलायनमेंट' की संज्ञा दी गई। भारतीय परिवेश में इसे गुटनिरपेक्ष देशों का संगठन कहा गया।
पिछले ही दिनों गुटनिरपेक्ष सम्मेलन ईरान में प्रारम्भ हुआ। उसमें लगभग 120 राष्ट्रों ने हिस्सा लिया। ईरान के अयातुल्ला खुमैनी ने इसके उद्घाटन अवसर पर कहा कि अमरीका के लाख विरोध करने पर भी राष्ट्र संघ के महामंत्री जनरल हान क्यून ने इसमें भाग लिया। उन्होंने अमरीका और इस्रायल के आग्रह को लात मार दी और वे इसमें शामिल होने के लिए ईरान पहुंच गए। उन्होंने अपने सम्बोधन में कहा कि वे राष्ट्रसंघ के समस्त देशों को इस सम्मेलन में पारित प्रस्तावों से परिचित करवाएंगे। इसी प्रकार मध्य-पूर्व के देशों में शांति कायम किया जाना अत्यंत अनिवार्य है। उनका कथन इस बात का साक्षी था कि वे अमरीका और इस्रायल के दबाव में नहीं हैं। ईरान के परमाणु कार्यक्रम के सम्बंध में भी पश्चिमी देशों को विश्वास में लेने का प्रयत्न करेंगे। खुमैनी ने यह भी कहा कि ईरान को परमाणु मामले में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अकेला करने की वाशिंगटन की मुहिम असफल हो गई है। हान क्यून का कहना था कि गुटनिरपेक्ष देशों की संख्या इतनी अधिक हो गई है कि उनकी बातों की अब अनदेखी नहीं की जा सकती है। दो दिवसीय इस सम्मेलन में भारत भी शामिल हुआ। पाकिस्तान के नेताओं ने वहां मनमोहन सिंह से मुलाकात की। सभी ने अपने उद्देश्य पूरे किए। भारत को क्या मिला यह चिंतन और चिंता का विषय है।
टिप्पणियाँ