महान सामाजिक एवं धार्मिक क्रांति के अग्रदूत
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करुणावतार भगवान बुद्ध-2
धार्मिक क्रांति के अग्रदूत
डा. कृष्णगोपाल
(गतांक से आगे)
भगवान बुद्ध स्वभावत: विनम्र और निरहंकारी थे। उनके प्रमुख शिष्य सारिपुत्त ने एक दिन कहा-'भगवान्! मेरा विश्वास है कि अभी तक उत्पन्न सभी महात्माओं में आप सर्वश्रेष्ठ हैं और आगे भी कोई आप जैसा पैदा नहीं होगा।' बुद्ध ने सारिपुत्त को ऐसी उक्ति बोलने से मना किया और कहा 'सारिपुत्त! क्या तुम जानते हो कि पूर्व में कैसे बुद्ध पैदा हुए हैं? क्या तुम यह जानते हो कि भविष्य में कैसे बुद्ध होंगे? सारिपुत्त! क्या तुम मेरे बारे में भी पूर्ण रूप से जान गए हो? फिर तुम ऐसे साहसपूर्ण वचन क्यों बोलते हो?' सारिपुत्त को अपनी भूल का आभास हो गया। तथागत नहीं चाहते थे कि उनके शिष्यगण उन्हें 'ईश्वरत्व' का आभामण्डल प्रदान करें। किन्तु, आगे चलकर बुद्ध के अनुयायियों ने बुद्ध की इतनी प्रतिमाएं खड़ी कर दीं कि बुद्ध से ही 'बुत' (मूर्ति) अर्थ स्थापित हो गया। मूर्तिपूजकों को 'बुतपरस्त' कहा जाने लगा। हिन्दू समाज के अन्दर मूर्तिपूजा के व्यापक प्रसार के पीछे बुद्ध के अनुयायियों की प्रेरणा का भी बड़ा योगदान है।
कोई भेदभाव नहीं
एक दिन भगवान बुद्ध घने जंगल से गुजर रहे थे। उसी जंगल में लोगों की हत्या करके लूटने वाला अंगुलिमाल नामक डाकू रहता था। लोगों की हत्या कर उनके दाहिने हाथ की छोटी अंगुलि काटकर वह अपनी माला में डाल लेता था, इसीलिए इसे अंगुलिमाल कहा गया। अंगुलिमाल तथागत के पीछे दौड़ता हुआ पुकारता है-'ओ श्रमण! ठहरता क्यों नहीं?' अंगुलिमाल के निकट आने पर बुद्ध ने अत्यंत कोमल वाणी में कहा–'मैं तो ठहरा ही हुआ हूं। तू भी तो स्थिर हो जा।' न जाने क्या जादू था तथागत के शब्दों में-अंगुलिमाल अवाक् रह गया। बुद्ध की बात कहीं गहरी लगी। अब अंगुलिमाल लुटेरा नहीं रहा। विनम्र भिक्षु होकर वह भिक्षु संघ में सम्मिलित हो गया। ऐसे हजारों जीवन परिवर्तित करने का साम्य तथागत के पास था।
बुद्ध के लिए राजा और रंक, विद्वान और निरक्षर, ब्राह्मण और चाण्डाल, धनवान और निर्धन, समाज-प्रतिष्ठित और समाज-त्यक्त सभी समान थे। किसी भी प्रकार के भेदभाव को बुद्ध ने श्रमण संघ में स्थान नहीं दिया। बुद्ध का मानना था कि दुनिया में लोग सरल हृदय हैं। वे स्वभावत: दुष्ट न होकर अज्ञानी हैं। वे विद्रोही नहीं हैं किन्तु संतुष्टि की तलाश में अवश्य हैं। बुद्ध ने कहा कि मनुष्य के जीवन में दु:ख है। उस दु:ख के कारण हैं। दु:ख निवारण हेतु कूटदन्त ब्राह्मण को वे समझाते हैं कि जनसाधारण को पांच बातों का पालन करना योग्य है- (क) अहिंसा, (ख) जो अपने लिए योग्य नहीं उसको छोड़ देना, (ग) भोगों को मर्यादित रखना, (घ) असत्य न बोलना, (ड़) मादक द्रव्यों का सेवन न करना।
अप्प द्वीपो भव
भगवान बुद्ध ने भारतीय तत्वज्ञान की मूलधारा को कभी नहीं छोड़ा। बुद्ध ने अपन धर्म को 'आर्य धर्म' तथा अपने सिद्धान्तों को 'चत्वारि आर्य सत्यानि' कहा है। उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था को जन्म के स्थान पर गुण तथा कर्म के आधार पर ही मान्य किया। अनेक ऐसे प्रश्न थे जिन पर भगवान बुद्ध ने शान्त रहना ही उचित समझा। जैसे-ईश्वर है या नहीं, मरने के बाद व्यक्ति कहां जाता है, जगत नित्य है या अनित्य, जीव और शरीर एक हैं या दो, आत्मा और परमात्मा का सम्बंध क्या है आदि-आदि। बुद्ध ने इन सभी प्रश्नों को 'अव्याकृत' कहकर पूछने से मना किया। इसका अर्थ यह था कि इन प्रश्नों के विवाद में पड़ने से कोई लाभ नहीं और इन प्रश्नों का कोई भी समाधानकारक उत्तर देना किसी के लिए भी संभव नहीं। इन प्रश्नों में उलझकर अपनी शक्ति का अपव्यय करने से कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है।
45 वर्षों तक निरंतर भ्रमण करते-करते बुद्ध का शरीर भी अब निर्बल हो चला था। वे अब निर्वाण चाह रहे थे। उन्होंने अपनी यह इच्छा आनन्द से व्यक्त की। आनन्द ने प्रार्थना की कि 'बुद्ध संघ को अपना अन्तिम संदेश दिये बिना तथागत अपना शरीर न त्यागें।' भगवान् बुद्ध ने आनन्द से कहा- 'आनन्द। मैंने कोई भी बात भिक्षु संघ से छिपाकर नहीं रखी है। हे आनन्द! अब तुम अपने आप पर ही अवलम्बित रहो। आत्मनिर्भर हो जाओ। आत्मा को ही दीप बना लो (अप्प दीपो भव)। धर्मदीप के प्रकाश में आगे बढ़ो। आत्मा की शरण में रहो। धर्म की शरण में ही रहो। किसी के वाक्यों और शास्त्रों की बजाय अपनी अन्तरात्मा की आवाज को ही मार्गदर्शक मानो।'
महापरिनिर्वाण
बुद्ध की जग-कल्याणी वाणी शान्त हो गयी। परिव्राजक की जीवन यात्रा पूर्ण हो चुकी थी। असित की भविष्यवाणी सत्य निकली। परिव्राजक सार्वभौम हो चुका था। यही उनका 'महापरिनिर्वाण' था। मल्लों के निर्जन शालवन में एक वृक्ष के नीचे वह महायोगी निश्चिन्त सो गया। शुद्धोधन का पुत्र, शाक्य मुनि सिद्धार्थ, यशोधरा का पति, राहुल का पिता, कपिलवस्तु का यशस्वी राजकुमार, भिक्षुकों का हृदय सम्राट, लाखों दु:खियों के अश्रु पोंछने वाला महान करुणावतार क्या पहले कभी इस पृथ्वी पर आया था? उनके शरीर को घेरे बैठे हुए भिक्षुकों की संख्या बढ़ती गई। अन्तिम संस्कार के समय लाखों कण्ठों से एक ही स्वर मद्धिम ध्वनि से निसृत हो रहा था: बुधं शरणं गच्छामि! धम्मं शरणं गच्छामि!!
मानव समुदाय ही क्यों, पशु-पक्षी, प्रकृति, निसर्ग सभी उदास थे। पृथ्वी का माणिक्य चला गया। जो सभी के लिए दु:खी होता था, आज उसी के लिए सभी दु:खी थे। भिक्षु-भिक्षुणी एक-दूसरे को देख-देख रोते थे। राजा-महाराजा भी रोते थे। अन्तिम संस्कार के बाद अस्थि-भस्म के अनेक कलश बनाए गए। भारत भर में दूर-दूर तक इन कलशों के ऊपर बड़े-बड़े स्तूप स्थापित हो गए। बौद्ध मत की यश पताका दिग्दिगन्त तक फहराने लगी, बौद्ध मत देशव्यापी और विश्वव्यापी होने लगा।
भगवान बुद्ध का संघर्ष उस समय प्रचलित सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताओं से ही अधिक था। शास्त्रों और महापुरुषों की बातों पर लोगों की श्रद्धा अटूट रहती थी। बुद्ध ने महापुरुषों के वचनों तथा शास्त्रों की उक्तियों के स्थान पर आत्मानुभूति पर बल दिया। बुद्ध ने 'शास्त्र महारथियों' के स्थान पर 'सत्यानुभवी' लोगों को मान्यता दी। बुद्ध का आग्रह था कि हम सिद्धान्तों का आग्रह करने के स्थान पर अपनी बुद्धि-विवेक का उपयोग करते हुए सत्य पर पहुंचें। 'सत्य' एक ऐसी वस्तु है जहां शान्ति से ही पहुंचा जा सकता है। वाक्पटुओं तथा तर्क शास्त्रियों के शास्त्रार्थ से ज्ञान की परत दर परत खोली जा सकती है, किन्तु सत्य तो अन्तरात्मा से हृदय की अनुभूति का विषय है। यह बुद्धि विलास से बहुत ऊपर है। उसी सत्य के जागरण पर व्यक्ति के अन्तस्थल में अवस्थित करुणा-प्रेम-ममता-दया-श्रद्धा-समर्पण आदि दैवीय भावों का स्फुरण होता है। यह 'सत्य' सभी मानवीय मूल्यों का उत्स है।
बुद्धं शरणं गच्छामि
एक समय ऐसा भी आया जब बौद्ध मत अपने पूर्ण प्रभाव और आभा के साथ भारत और विदेशों में सर्वदूर दैदीप्यमान हो उठा। भारत वर्ष के महान प्रतापी राजाओं-अजातशुत्र, बिम्बसार, अशोक, कनिष्क तथा हर्षवर्धन आदि का पूर्ण संरक्षण प्राप्त करने के बाद बौद्ध मत के विस्तार की गति तीव्र होती चली गई। नागार्जुन, वसबन्धु, दिङ्गनाग, धर्मकीर्ति जैसे परम विद्वानों की असाधारण प्रतिभा के बल पर बौद्ध विचार दर्शन ने खूब प्रतिष्ठा पाई। विश्व भर के हजारों विद्यार्थी विक्रमशिला, नालन्दा, मगध तथा ओन्दतपुरी जैसे विश्वविद्यालयों में बौद्ध दर्शन तथा अन्य विषयों की शिक्षा प्राप्त करने को दूर-दूर से आने लगे। दर्शन, कला, संगीत, रसायन, व्याकरण, गणित, स्थापत्य, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि में भारतीय विद्वानों ने महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त कीं। यह काल भारतीय इतिहास का एक सर्वोत्कृष्ट स्वर्णिम पृष्ठ था, जिसकी आधारभूमि भगवान बुद्ध ने स्वयं निर्माण की थी।
विश्व भर में बौद्ध मत का विस्तार बौद्ध भिक्षुओं ने अपने विलक्षण त्याग-शील-परिश्रम तथा अपनी आध्यात्मिक साधना के बल पर ही किया था। इसके लिए अन्य देशों में वे सेना लेकर नहीं गए थे। बौद्ध भिक्षुओं ने वहां के देवी-देवताओं तथा वहां की स्थापित मान्यताओं को शैतान या अपवित्र कहकर अपमानित कभी नहीं किया और न ही वहां के धर्म ग्रन्थों को आग के हवाले ही किया। ये तो प्रेम-ममता-करुणा तथा विशाल हृदय लेकर ही सर्वदूर गए थे। भगवान बुद्ध ने इन भिक्षुओं को कितने भी विरोध में शान्त रहना सिखाया था। बुद्ध का कहना था कि :
न हि वैरेन वैरानि सम्मंतीध कुदाचनं
अर्थात् 'वैर से वैर कभी समाप्त नहीं होता'- यही उनकी शिक्षा थी। सम्पूर्ण विश्व में ऐसा उदाहरण खोजना कठिन है जहां श्रमण साधकों ने किसी अन्य मतावलम्बी के ऊपर अत्याचार किए हों।
आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व चीन के भीतर जब बौद्ध भिक्षु गए तब वहां पहाड़ों पर बसने वाली जातियां बर्बर और हिंसक थीं। आपस में संघर्षरत इन लोगों ने सैकड़ों बौद्ध भिक्षुओं की हत्या कर दी, किन्तु इन भिक्षुओं के मन में प्रतिहिंसा उत्पन्न नहीं हुई। इसके बदले इन भिक्षुओं ने उन्हें करुणा और ममता का ही संदेश दिया। परिणामस्वरूप चीन के लाखों लोग धीरे-धीरे बौद्धमत के अनुयायी बन गए। दूसरी ओर 19वीं शताब्दी में अंग्रेज और फ्रांसीसी भी वहां गए और उन्होंने अपने आथिर्क लाभ के लिए चीन के लोगों में अफीम की बिक्री प्रारम्भ की। चीन के शासकों के विरोध के बावजूद यूरोप के लोग वहां के लोगों को अफीम का आदी बनाते रहे। इसी कारण चीन और अंग्रेजों के मध्य दो बार (1842-1856 में) युद्ध हुए। दोनों बार चीन हारा और अफीम की खुली बिक्री करके पूरे चीन को अफीम का नशेड़ी बनाकर अंग्रेजों ने भारी मुनाफा कमाया। इतिहास में इन युद्धों को 'अफीम युद्ध' के नाम से ही जाना जाता है। बहुसंख्य चीनी समाज अफीम खाकर निस्तेज और निष्क्रिय बना दिया गया। बदले में अफीम की बिक्री से अंग्रेज और फ्रांस आर्थिक रूप से मालामाल हुए। भारतीय बौद्ध दर्शन तथा पश्चिमी व्यापारिक मनोवृत्ति के इस मानवीय और अमानवीय दृष्टिकोण को समझना बहुत आवश्यक है।
विद्वानों का मत
स्वामी विवेकानन्द भगवान बुद्ध के बारे में कहते हैं: 'भगवान बुद्ध ने वेदों के दर्शन के सारांश की शिक्षा बिना भेदभाव के हर किसी को दी; उन्होंने उसका उपदेश सारे संसार के लिए किया, क्योंकि मानव की समता उनके महान संदेशों में से एक है। बुद्ध समता के महान उपदेष्टा थे। हर स्त्री-पुरुष को आध्यात्मिकता प्राप्त करने का समान अधिकार है। यह उनकी शिक्षा थी। उन्होंने पुरोहितों तथा अन्य जातियों के मध्य अन्तर का उन्मूलन कर दिया, निम्नतम लोग भी उच्चतम उपलब्धियों के अधिकारी हैं यह स्थापित कर दिया; उन्होंने निर्वाण के द्वार हर किसी के लिए खोल दिए।'
आद्य शंकराचार्य ने बुद्ध से प्रभावित होकर भारत की उस समय की धार्मिक पद्धतियों में से कर्मकाण्डों के अतिरेक तथा वाह्य आडम्बरों को तिलांजलि दे दी और भगवान बुद्ध को महान धर्मोद्धारक स्वीकार कर दशावतार में स्थापित कर लिया। भारत के महान संतों में तिरुवल्लुवर, नानक, कबीर, दादू तथा निर्गुणियां संतों की परम्परा के उद्भव का श्रेय भी बुद्ध को ही दिया जाता है। बुद्ध की उन्हीं भावनाओं को कबीर ने चौदहवीं शताब्दी में स्पष्ट किया। कबीर ने शास्त्रज्ञों और विद्वानों को ललकारते हुए कहा- 'तू कहता कागज की लेखी–मैं कहता आंखन की देखी।' अर्थात् आप लोग तो पुस्तकीय ज्ञान की बात करते हैं और मैं प्रत्यक्ष अनुभूति की बात कहता हूं।
ईसा मसीह, गांधीजी, मार्टिन लूथर किंग, दलाई लामा, नेल्सन मण्डेला सहित विश्व के सभी अहिंसक आन्दोलनों की जड़ों को निरन्तर जीवन-रस देने का यश भगवान बुद्ध को ही देना होगा। आज भी यदि कहीं अत्याचार, अनाचार, शोषण, सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध कोई अहिंसक वाणी मुखरित होती है, तो उसका उद्गम बुद्ध के दर्शन में ही दिखता है। डा. अम्बेडकर ने भी ममता आधारित समता का सन्देश भगवान बुद्ध के विचारों से प्राप्त किया। बौद्ध मत स्वीकार करते समय डा. अम्बेडकर ने कहा- 'बौद्ध मत भारतीय संस्कृति का ही अभिन्न अंग है। मैंने इस बात का ध्यान रखा है कि मेरा मत परिवर्तन इस भूमि के इतिहास और संस्कृति की परम्परा को कोई हानि न पहुचाए।' डा. राधाकृष्णन लिखते हैं- 'मेरा विश्वास है कि भगवान बुद्ध ने हिन्दू धर्म के परिवत्रतम स्वरूप को प्रस्तुत किया था।'
भारत के बाहर प्रचलित सम्प्रदायों में बौद्ध ही एकमात्र ऐसा सम्प्रदाय है जो दार्शनिक आधार लेकर चल रहा है। भारत के बाहर जन्मे अन्य सम्प्रदाय तर्क, चर्चा और बहस वार्ता को अपना आधार नहीं मानते। वे श्रद्धा और विश्वास पर ही निर्भर हैं।
आज जहां एक ओर विश्व भर में व्याप्त वैचारिक असहिष्णुता तथा उपभोगवाद की आंधी से सभी सभ्यताएं और संस्कृतियां संकट का अनुभव कर रही हैं, वहीं भगवान बुद्ध उतने ही अधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं। वर्तमान में उपस्थित असहिष्णुता, असन्तोष, हिंसा और भौतिकतावाद के वातावरण में बौद्ध दर्शन की ओर विश्व के दार्शनिकों का ध्यान लगातार आकृष्ट हो रहा है। बुद्ध की शिक्षा में संयम, त्याग, शील, विनय, अहिंसा, ममता, अपरिग्रह, करुणा तथा मानवीय संवेदनाएं आज भी उतनी ही मूल्यवान हैं जितनी कभी भी वे रहती हैं। बुद्ध की शिक्षाओं को समाज अपने जीवन में उतारने के लिए प्रत्यनशील हो, यही समय की आवश्यकता है और यही विश्व को महाविनाश से मुक्ति दिलाने वाला एकमात्र मार्ग भी दिखाई देता है।
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