पर्यावरण हितैषी नानक खेती
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पर्यावरण हितैषी
नानक खेती
राकेश सैन
भारतीय आध्यात्मिक आकाशगंगा के प्रकाशस्तंभ श्री गुरुनानक देव जी का अमर संदेश है कि “रज्ज के वाह, ते रल्ल के खा” अर्थात खूब परिश्रम करो और मिल-बांटकर खाओ। गुरु जी ने मिल-बांटकर खाने का संदेश केवल मानव जाति के लिए ही नहीं, बल्कि सभी चराचर जगत के लिए दिया जो प्राणवान है। उन्होंने सारे जगत में एक ही ज्योतिपुंज के दर्शन किए। उनके इन्हीं अमर वाक्यों में छिपा है पर्यावरण संरक्षण व जीवप्रेम का सिद्धांत। इसी सिद्धांत पर चलते हुए की जाने वाली कृषि को नाम दिया गया है नानक खेती, जो पंजाब में धीरे-धीरे गति पकड़ती जा रही है। गिरते भूजल स्तर, बिगड़ते पर्यावरण, लुप्तप्राय होते प्राणी जगत और बंजर होती जमीन को बचाने का अब केवल एक ही रास्ता बचा है नानक खेती, जिसमें विषैले कीटनाशकों व रासायनिक खादों का प्रयोग किए बिना परंपरागत तरीके से अधिक उपज लेने का सफल प्रयोग किया जा रहा है।
हम आपको मिलाने जा रहे हैं पंजाब के उन पांच किसानों से, जो नानक खेती के सफल प्रयोग से, उन कथित कृषि वैज्ञानिकों के समक्ष चुनौती बनकर उभरे हैं, जो देश में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए रासायनिक खादों व विषैले कीटनाशकों का प्रयोग आवश्यक मानते हुए अक्सर परंपरागत कृषि का उपहास उड़ाते हैं।
विनोद कुमार ज्याणी
लगभग 130 एकड़ में कृषि करने वाले सीमावर्ती जिला फाजिल्का के समीपवर्ती गांव कटहड़ा के निवासी विनोद कुमार ज्याणी पांच-छह साल पहले आम किसानों की तरह थे। खेतों में नरमा कपास की फसल के लिए कीटनाशक, कनक के लिए यूरिया व रासायनिक खाद खरीदने और कृषि में मशीनों के अंधाधुंध प्रयोग के बाद वार्षिक आय का जमाखर्च करते तो हाथ मलते रह जाते। सारे परिवार के परिश्रम के बाद भी खाली झोली या बस इतना ही बचता कि दिहाड़ी भी शायद ही पूरी हो। नवम्बर 2005 में जब खेतों में कपास की बिजाई की जानी थी तो उनके हाथों लगी कृषि वैज्ञानिक श्री सुभाष पालेकर की किताबें, जिनमें जीरो बजट खेती के बारे में जानकारी दी गई है। उसके बाद से उन्होंने कथित आधुनिक कृषि का पूरी तरह त्याग कर दिया। आज वे पूरे पंजाब में कुदरती खेती या नानक खेती के सबसे सफल सेनानी बनकर उभरे हैं।
श्री ज्याणी बताते हैं कि किसान होने के नाते उनसे अधिक कौन जान सकता था कि रासायनिक खेती हमारे जीवन में बड़ी तेजी से जहर घोल रही है। परंतु अन्य किसानों की तरह वे बेबस और विकल्पहीन थे परंतु अब ऐसा नहीं है। सबसे पहले उन्होंने फसली विविधता को अपनाते हुए मिश्रित खेती शुरू की जिसमें गेहंू, नरमा कपास के साथ-साथ सब्जियां, फल, दलहन फसलों का उत्पादन लेना शुरू किया। बिजाई से पहले गोमूत्र से तैयार बीजामृत से बीजोपचार और कीटनाशक की जगह पर जीवामृत का प्रयोग करना शुरू किया। परंपरागत जाति की फसलों के बीज पहले तो समविचारी किसानों से प्राप्त किए, परंतु आज वे अपने खेतों से ही बीज अगली फसल के लिए बचा कर रखते हैं। यही भारत की परंपरा भी है। हर बार बीज न खरीदने तथा कीटनाशकों व रासायनिक खादों का खर्च कम होने से कृषि उनके लिए फायदे का सौदा बन गई। आरंभ में चाहे अपेक्षानुरूप सफलता नहीं मिली परंतु आज गुणवत्ता व उत्पादन दर के आधार पर वे खेती को लाभ का सौदा बना चुके हैं। आज वे अपने खेतों में फसलों के अतिरिक्त किन्नू-मालटा, नींबू जाति के अन्य फलों, अमरूद, आड़ू, अलूचा सहित अनेक फलों की सफल खेती करते हैं। गुणवत्ता के कारण उनके बहुत से उत्पाद खेतों में ही हाथों हाथ बिक जाते हैं।
श्री ज्याणी बताते हैं कि रासायनिक खेती पर किसानों को सरकार भारी भरकम छूट देती है। उदाहरण के लिए अगर बाजार में यूरिया के बोरे की कीमत 260 रुपये है तो सरकार को उस पर 850 रुपये रु. की छूट देनी पड़ती है, क्योंकि यूरिया की अंतरराष्ट्रीय कीमत 1100 रुपये प्रति बोरे से अधिक बैठती है। इसी तरह अगर डीएपी की बाजार में कीमत 460 रुपये प्रति बैग है तो सरकार को 2240 रुपये की छूट देनी पड़ती है। कथित आधुनिक या रासायनिक खेती करने पर औसतन सरकार को 10000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से किसानों को छूट (सब्सिडी) देनी पड़ती है। अगर इतनी ही सब्सिडी कुदरती या परंपरागत कृषि करने पर दी जाए तो किसान भला खेतों में आत्मघाती रसायन व जहर क्यों छिड़कें? इससे पर्यावरण प्रदूषण की बहुत सारी समस्याएं हल हो जाएंगी।
अमरजीत शर्मा
सूफी सम्प्रदाय के संत शेख फरीद जी की कर्मभूमि फरीदकोट जिले के चैना गांव के निवासी अमरजीत शर्मा अक्सर सोचते थे कि कुछ किसान अपने लिए जो सब्जियां उगाते हैं उनमें कीटनाशकों व रासायनिक खादों की जगह गोबर की खाद डालते हैं और रासायनिक सब्जियों को बाजार में बेचते हैं तो उन्हें दु:ख होता था। क्योंकि इस दुनिया में सभी को जीने का समान अधिकार है और किसान का दायित्व है कि वह समाज को शुद्ध अन्न, फल, सब्जियां पैदा करके दे।
इन्हीं विचारों को खाद-पानी उस समय मिला जब उन्होंने 2006 में निकटवर्ती गांव भगतुआना में खेती विरासत मंच की गोष्ठी में हिस्सा लिया। उन्होंने अपनी पांच एकड़ जमीन में रासायनिक खादों व जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग छोड़ दिया और फसली विविधता पर जोर देना शुरू कर दिया। उन्होंने पिछले साल कुदरती खेती से 6 कुंतल (Ïक्वटल) कपास पैदा की, जबकि बीटी कॉटन 8 कुंतल पैदा हुई। इतना ही नहीं महंगे बीजों व कीटनाशक के छिड़काव के रूप में उन्होंने हजारों रुपये बचा लिए। उल्लेखनीय है कि पंजाब में बीटी कॉटन पर भी कीटनाशक के छिड़काव की आवश्यकता महसूस हो रही है और किसान 2-3 छिड़काव अवश्य करते हैं, जबकि बीटी कॉटन आने से पहले यह दावा किया जा रहा था कि इस तकनीक के आने से कीटनाशकों का प्रयोग बंद हो जाएगा। खैर, यह अलग विषय है। उन्होंने अपने खेतों से उगी सब्जियों को बच्चों के संस्थान में भेजना शुरू किया तो वहां बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार देखने को मिला, इससे उन्हें आत्मिक खुशी मिली। चाहे पंजाब में मोटे अनाज जैसे बाजरा, जौ, चना की खेती सीमित या लुप्तप्राय हो चुकी है और इसका बाजार भी नहीं है परंतु श्री शर्मा ने इनकी खेती शुरू की है। लोग दवा के रूप में इन उत्पादों का प्रयोग करने लगे हैं जिससे उनके उत्पादों की काफी मांग बढ़ी है। वे विभिन्न समय में अपने खेतों में 60 तरह के उत्पाद पैदा कर लेते हैं। श्री शर्मा कहते हैं कि परिश्रम से बचने व समय बचाने के चक्कर में हम कथित आधुनिक कृषि व कृषि के अंधाधुंध मशीनीकरण की दलदल में फंसते जा रहे हैं। अगर किसान अपने व्यवसाय को प्रसन्नतापूर्वक व दिल लगाकर करे तो कोई कारण नहीं है कि परंपरागत कृषि का प्रचलन दोबारा शुरू न हो।
बीज बैंक-श्री शर्मा ने नया प्रयोग करते हुए बीज बैंक शुरू किया है। इसके तहत किसानों को परंपरागत फसलों के बीज मुफ्त दिए जाते हैं और उनसे आशा की जाती है कि फसल पैदा होने पर वे दोगुने बीज या पच्चीस किलो अतिरिक्त बीज ब्याज के रूप में बैंक में जमा करवाएं ताकि उनको आगे अन्य किसानों में वितरित किया जा सके। इस बैंक के अभी तक 200 से अधिक सदस्य बन चुके हैं। बैंक के लिए बीज जमा करने के लिए श्री शर्मा पूरे देश की यात्रा करते हैं। राजमा के बीज उन्होंने सिक्किम जाकर प्राप्त किए हैं और इसी तरह गेहूं की बंसी नामक नस्ल के बीज महाराष्ट्र से प्राप्त किए हैं। उनके बैंक में गेहूं के बंसी के अतिरिक्त चावल कट्टा, मुंदरी, शर्बती बीजों का पर्याप्त भंडार है। इसके अतिरिक्त नरमा कपास, ज्वार, बाजरे के भी अनेक देसी नस्ल के बीज उपलब्ध हैं। फिलहाल यह बैंक अपने प्रारंभिक स्तर पर है।
गौरव सहाय
चंडीगढ़ के पास गांव लांडरां के युवा किसान गौरव सहाय को बचपन से ही प्रकृति से लगाव था। आधुनिक खेती के नाम पर इसका विनाश होते देख कर उन्हें पीड़ा होती थी, परंतु वे कुछ कर पाने में असमर्थ थे। उन्होंने सूचना प्रौद्योगिकी में एमबीए किया है। चाहते तो अच्छी नौकरी करके सुविधासंपन्न जीवन व्यतीत कर सकते थे, परंतु बचपन के शौक ने जोर मारा और निकल पड़े धरती माता की सेवा में।
पंजाब में रबी (स्थानीय भाषा में हाड़ी) की फसल में गेहूं और सावनी की फसलों में धान या मालवा के कुछ इलाकों में नरमा कपास बीजने का ही प्रचलन है। दोआबा के कुछ इलाकों में मक्का व आलू बीजने का भी प्रचलन है, परंतु अधिक निर्भरता दो तीन फसलों पर ही है। धान पंजाब जैसे मैदानी इलाके की फसल नहीं है क्योंकि इसमें पानी की खपत बहुत ज्यादा है। इसी के कारण पंजाब का भूजल स्तर बड़ी तेजी से नीचे जा रहा है। राज्य दो तीन फसलों के चक्कर में ऐसा फंसा कि यहां से बाजरा, चना, जौ, मूंगफली, दलहन व तिलहन फसलें लुप्तप्राय सी ही हो गईं। इसी फसली चक्र से मुक्ति दिलवाने के लिए उन्होंने किसानों के सामने उदाहरण पेश किया।
श्री सहाय मौसमी सब्जियों जैसे गोभी, गाजर, मूली, चुकंदर, सेम फलियां, टमाटर की खेती करते हैं। इसके साथ-साथ वे मसाले जैसे मिर्च, धनिया, मेथी, तिल, जीरा व अलसी की भी खेती करते हैं। खेती में रासायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग बिल्कुल नहीं किया जाता। इसका असर यह हुआ है कि खेतों के आसपास प्राकृतिक वातावरण बनना शुरू हो गया है। श्री सहाय ने बताया कि जैविक उत्पादों की मंडी न होने के कारण न तो उपभोक्ताओं को और न ही उत्पादकों को इसका लाभ मिल रहा हे। लोग जैविक उत्पादों को खरीदना तो चाहते हैं पंरतु उन्हें मालूम नहीं कि यह उत्पाद कहां उपलब्ध होंगे और न ही उत्पादक जानते हैं कि इसके उपभोक्ता कहां मिलेंगे। अगर सरकार जैविक खेती के उत्पादों का मंडीकरण करे और मंडियांे में इसकी खरीद फरोख्त की अलग से व्यवस्था करे तो राज्य में नानक खेती को काफी प्रोत्साहन मिलेगा और इससे पर्यावरण में आशातीत सुधार आएगा।
कुछ इसी तरह की ही खेती कर रहे हैं संगरूर जिले के श्री जरनैल सिंह माझी व अबोहर के श्री आशीष आहूजा। इन किसानों ने बताया कि आज पंजाब की लगभग सारी भूमि कृषि के काम में प्रयोग हो रही है। इसके चलते वन्यप्राणियों के निवास सदा के लिए छिन गए और वनस्थल लुप्त हो गए। आज आवश्यक है वन्य क्षेत्र बढ़ाने और जैविक खेती की, जिसे नानक खेती का भी नाम दिया गया है।थ्
पशु-पक्षी प्रहरी बिश्नोई समाज
एक ओर जहां पंजाब पर्यावरण संबंधी वन्य जीवन की समाप्ति की समस्या से जूझ रहा है तो दूसरी ओर पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर बिश्नोई समुदाय बहुल ऐसे गांव हैं, जिनको केन्द्र सरकार ने वन्यजीव अभ्यारण्यस्थल घोषित किया हुआ है। बिश्नोई संप्रदाय के संस्थापक गुरु जंभेश्वर जी महाराज ने अपने शिष्यों को हरे पेड़ों व जीवों की रक्षा करने का मंत्र दिया। दूरदृष्टि रखने वाले गुरु जंभेश्वर जी ने पर्यावरण संबंधी खतरों को आज से सैकड़ों वर्ष पहले ही पहचान लिया था।
यही कारण है कि लगभग 26000 वर्ग किलोमीटर में फैले इस अभ्यारण्य में हिरण, नील गायें, काले हिरन, जंगली बिल्लियां, गीदड़, लोमड़ियां, भारी संख्या में खरगोश, तीतर, बटेर जैसे अनेक तरह के पशु-पक्षी निर्भय होकर विचरण करते हैं। किसी के खेत में हिरन घुस जाए तो किसान अपने आपको धन्य समझता है। यह वन्य पशु-पक्षी इतने निर्भय हैं कि आवासीय क्षेत्रों में भी घुस आते हैं। रात के समय यहां की सड़कों पर वाहन गुजारते समय हार्न बजाने पड़ते हैं ताकि कोई पशु इसकी चपेट में न आ जाए। प्राकृतिक रूप से रेत के टीलों (धोरों) वाली इस जमीन पर हरे पेड़ बहुतायत में पाए जाते हैं।
बिश्नोई समाज ने बाकायदा जीव रक्षा संगठन का निर्माण किया है जिसके संस्थापक स्वर्गीय श्री संतराम बिश्नोई को राष्ट्रीय स्तर पर श्रीमती इंदिरा गांधी पुरस्कार मिल चुका है। आज उनके मार्ग पर चलते हुए श्री राजिन्द्र बिश्नोई जीवों की रक्षा में जी-जान से जुटे हैं। गोरक्षा में भी इस संगठन का बहुत बड़ा योगदान है और बिश्नोई समाज के भय से कोई पशु तस्कर इस इलाके से गोवंश की तस्करी करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। थ् राकेश सैन
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