बड़े देशों की दादागिरी और राजनीति से दूरएक कदम… सुनहरे कल की ओर
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बड़े देशों की दादागिरी और राजनीति से दूर
आलोक गोस्वामी
30 अक्तूबर 2002 को नई दिल्ली में संयुक्त राष्ट्र के 8वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस तरह इन सीधे-सरल शब्दों में दुनिया पर मंडराते मौसमी बदलाव और वैश्विक ताप के गंभीर खतरों और भारत की समय-सिद्ध परंपरागत सोच और संस्कृति को सबके सामने रखा था, वह दुनियाभर में खूब सराहा गया था। सरकार के प्रमुख के नाते वाजपेयी प्रकृति के संदर्भ में भारत की प्राचीन काल से चली आ रही “वसुधैव कुटुम्बकम्” और “सर्वे भवन्तु सुखिन:” के स्वस्थ, मेलजोल वाले सहअस्तित्व के विचारों को ही रेखांकित कर रहे थे।
आजकल अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वैश्विक ताप और मौसमी बदलाव को लेकर जो बातें की जा रही हैं, जैसे सिद्धांत लाए जा रहे हैं, उनमें एक चीज बार-बार सुनाई देती है- “सस्टेनेबल ग्रोथ” यानी ऐसा विकास जो कायम रहे, जो आगे और उत्पादन के रास्ते खोले। भारत के आदि ग्रंथों में तो यह बात आज से हजारों साल पहले लिखी जा चुकी थी- “…तेन त्यक्तेन भुंजीथा” यानी त्याग के साथ उपभोग यानी जितनी जरूरत बस उतना लेना यानी कुदरत का एक सीमा से ज्यादा दोहन न करना, उससे ऐसा बर्ताव करना कि उसकी हानि न हो। लेकिन हैरानी की बात है कि ऐसी मान्यता पर चलने वाले भारत को वे देश घुड़काने की जुर्रत करते हैं जो कुदरत को रौंदते हुए विकास के पायदान चढ़ने में शान समझते हैं। अमरीका, कनाडा, रूस, जापान जैसे बड़े-बड़े कल-कारखानों के बूते विकसित बने देशों ने कुदरत का बेतहाशा दोहन किया और पर्यावरण संतुलन बिगड़ने का ठीकरा हमेशा भारत सरीखे विकासशील देशों पर फोड़ा। इनके ऐसे अक्खड़ और दरोगाई स्वभाव के चलते वैश्विक ताप और मौसमी बदलाव को लेकर होने वाले संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलनों का नतीजा सिर्फ चंद संधि-प्रावधानों को छोड़कर धरातल पर सिफर रहा।
21 मार्च 1994 को क्रियान्वित हुए संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण परिवर्तन पर चिंतन-समूह (यूएनएफसीसीसी) की शुरुआत के वक्त दुनियाभर के देशों ने मौसम में की जा रही छेड़छाड़, हवा में जरूरत से ज्यादा छोड़ी जा रही जहरीली गैसों, पाताल खोदकर खनिजों की बेतहाशा निकासी से बाज आने की कसमें खाई थीं। लेनिक आज संयुक्त राष्ट्र की अगुआई में दुनिया के देशों में बारी-बारी से ऐसे 17 अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हो चुके हैं, लेकिन बजाय सुधरने के पर्यावरण और बिगड़ता जा रहा है। क्यों? क्योंकि अमरीका, जापान, कनाडा, आस्ट्रेलिया, रूस जैसे विकसित देश मानने को तैयार नहीं कि वे हवा को सबसे ज्यादा जहरीला कर रहे हैं, कि उनको बिना आगा- पीछा सोचे विकास की अंधी दौड़ से बाज आकर प्रकृति को सहेजने की पहल करनी होगी।
दिसंबर 1997 में क्योटो, जापान में हुए मौसमी बदलाव पर तीसरे सम्मेलन में ढाई साल की मेहनत और बातचीत के बाद लाए गए “क्योटो प्रोटॉकाल” ने एक उम्मीद जगाई थी। इसमें विभिन्न विकसित और विकासशील देशों ने वायदा-दस्तखत किए थे। इस संधि में औद्योगिक देशों पर कानूनी बाध्यता थी कि वे 2012 तक अपने कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन को 1990 के स्तर से 5 फीसदी नीचे लाएंगे। हवा में मौजूद ग्रीनहाउस गैसों में कार्बन डाइआक्साइड सबसे जहरीली गैस है। लेकिन 18 अक्तूबर 2004 को अमल में आया “क्योटो प्रोटॉकाल” अमरीका की अगुआई में रूस, आस्ट्रेलिया, जापान, कनाडा जैसे विकसित देशों को खटकने लगा। उन्होंने भारत और चीन जैसे बड़े विकासशील देशों पर उंगली उठाते हुए कहा कि ये सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करते हैं, इन्हें कम करना चाहिए अपना उत्सर्जन स्तर। यह कोरा झूठ था। भारत में कार्बन उत्सर्जन का प्रति व्यक्ति औसत देखें तो यह दो टन से भी कम है, जबकि अमरीका में यह 20 टन और यूरोपीय देशों में 12 टन है।
पर्यावरण और वैश्विक ताप पर काम कर रही दिल्ली की एक प्रमुख गैर सरकारी संस्था “सेंटर फार साइंस एंड एन्वायरनमेंट” के उप महानिदेशक चंद्रभूषण का कहना है कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में सिर्फ राजनीति हो रही है इसलिए कितनी ही संधियां करें, दस्तखत करके वायदे करें, मुद्दा जस का तस बना हुआ है। विकसित देश आर्थिक तरक्की के नाम पर कुदरत से छेड़छाड़ करना बंद नहीं करेंगे और दोष विकासशील देशों पर लगाएंगे तो कोई रास्ता नहीं निकलेगा। चंद्रभूषण की चिंता में हैं वैज्ञानिकों द्वारा बार-बार दी जा रही चेतावानियां कि आने वाले बीसेक सालों में धरती की शक्ल बिगड़ने का खतरा है। वे कहते हैं, विज्ञान द्वारा तथ्यों के आधार पर दिए जा रहे खतरे के संकेत को भी न देखना मानव के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगाता है।
विंस्कोंसिन-मेडिसन विश्वविद्यालय और व्योमिंग विश्वविद्यालय के शोधकत्र्ताओं का कहना है कि अगर कार्बन डाइआक्साइड और दूसरी ग्रीन हाउस गैसों का इसी मात्रा में उत्सर्जन होता रहा तो महज 88 साल बाद मौसम में ऐसे बदलाव आ जाएंगे जो आज दुनिया के लिए अनजाने हैं। अमरीका, दक्षिण पूर्वी एशिया और अफ्रीका जैसे सघन आबादी वाले देशों से लेकर अमेजन के वर्षावन और दक्षिण अमरीका की पर्वत श्रृंखलाएं तक बेहद प्रभावित होंगी। मौसम में ऐसे औचक बदलाव होंगे कि मानव जाति के लिए संकट खड़ा हो जाएगा।
बीते सौ सालों में धरती का महज एक डिग्री फारेनहाइट तापमान बढ़ने के दुष्परिणाम हम देख ही रहे हैं। इसके और बढ़ने के मायने होंगे बारिश पड़ने के मौसम में बदलाव, ध्रुवीय हिमखंडों के पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ना। चंद्रभूषण हैरान हैं कि जिस अमरीका के वैज्ञानिक अपने शोध के आधार पर ये चेतावनियां दे रहे हैं वही अमरीका अट्टहास कर रहा है। कनाडा ने तो पिछले डरबन सम्मेलन (नवम्बर 2011) में अधिकृत तौर पर कह दिया कि “हम नहीं मानते क्योटो।” जापान और रूस ने शाबाशी दी। कनाडा दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जक देश है। “क्योटो प्रोटॉकाल” के लक्ष्य से उसका उत्सर्जन 29 फीसदी ऊपर है। वहां एक आदमी एक साल में 8,300 किलो कच्चे तेल की खपत करता है। पर अकड़ है, नहीं मानेंगे, तो नहीं मानेंगे, कर लो क्या करना है।
तो रास्ता क्या है? सियासी दावपेंच खेलने वालों के हाथ में तो आने वाली पीढ़ी को नहीं सौंपा जा सकता। चंद्रभूषण की मानें, तो लोगों में अपने अपने स्तर पर पर्यावरण को बचाने की जागरूकता पैदा होना उम्मीद की किरण है। पेड़-पौधे से लेकर घर में बिजली की कम खपत वाली रोशनी-उपकरण लगाने की सोच बढ़ती जा रही है। बारिश के पानी को सहेजने, सूरज और हवा से मिलने वाली ऊर्जा काम में लेने के प्रति उत्सुकता का बढ़ना दिल को ढाढस देता है। भारत में तो यूं भी जीवाश्म ईंधनों (कोयला, पेट्रोल और गैस) के सहारे रहने की बजाय पनचक्कियों, सौर ऊर्जा और सीएनजी को तरजीह दी जाने लगी है। गैर सरकारी संगठन ही नहीं, आम आदमी भी अब अपने बच्चों को विरासत में जहरीली हवा नहीं देना चाहते।
शुरुआत तो करनी होगी, अपने घर आंगन से। पेड़-पौधे लगाकर, गाड़ी बस जरूरत के वक्त चलाकर, फिजूल बिजली बर्बाद होने से बचाकर, कागज बचाकर, जंगल सहेजकर, नदियों को साफ रखकर, भौतिक टीम-टाम से दूर रहकर और सबसे बढ़कर “हमेंे क्या” की सोच छोड़कर एक कदम तो बढ़ाया ही जा सकता है… सुनहरे कल की ओर!थ्
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