देवपुत्र बनी भारत की सर्वोत्तम बाल पत्रिका
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देवपुत्र बनी भारत की सर्वोत्तम बाल पत्रिका

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Apr 6, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Apr 2006 00:00:00

मनोरंजन भी, संस्कार भी

-कृष्ण कुमार अष्ठाना, सम्पादक, देवपुत्र

15मई, 2006 को बाल साहित्य की सर्वाधिक प्रसारित होने वाली पत्रिका “देवपुत्र” के सम्पादक श्री कृष्ण कुमार अष्ठाना 66 वर्ष के हो गए, पर अब भी वही बाल सुलभ सरलता और निर्मल, सरल व्यवहार। देवपुत्र को बच्चों की नम्बर 1 पत्रिका बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है, इसकी खुशी उनके चेहरे पर वैसे ही झलकती है जैसे किसी बच्चे को मनचाहा खिलौना मिलने पर होती है। पर उनका लम्बा अनुभवी जीवन कहता है- अभी तो और भी आगे जाना है।

इंदौर से प्रकाशित होने वाली बाल पत्रिका देवपुत्र (हिन्दी मासिक) के नवीनतम अंक की प्रसार संख्या रही 1 लाख 10 हजार, जो वर्तमान में प्रकाशित हो रही बाल पत्रिकाओं में सर्वाधिक है। भारत के पत्र पंजीयक कार्यालय (आर.एन.आई.) ने ही यह घोषणा की है। कौन कल्पना कर सकता था कि विद्या भारती (म.प्र.) के संगठन मंत्री श्री रोशन लाल सक्सेना द्वारा 1979 में शुरू की गई यह पत्रिका कभी देश की सर्वोत्तम बाल पत्रिका बनेगी। वर्तमान में विद्या भारती (म.प्र.) के मार्गदर्शक श्री सक्सेना ने रीवा से इस सोच के साथ देवपुत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया था कि विद्यालयीन शिक्षा के अतिरिक्त बच्चों का संस्कारक्षम मनोरंजन हो सके। वे दादी-नानी की कहानियां न भूलें, पूर्वजों की ऐतिहासिक गाथा याद रखें। कुछ समय बाद श्री विश्वनाथ मित्तल देवपुत्र के सम्पादक बने तो इसका प्रकाशन ग्वालियर से होने लगा। 1991 तक यह श्याम-श्वेत ही छपती रही और प्रसार संख्या पहुंची 18-20 हजार तक, मध्य प्रदेश तक सीमित। तब इससे जुड़े श्री कृष्ण कुमार अष्ठाना।

आगरा (उ.प्र.) में 1940 में जन्मे श्री अष्ठाना मूलत: शिक्षक हैं पर 1973 से पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े हैं। 1986 में जब वे विद्या भारती से जुड़े तब इंदौर से प्रकाशित होने वाले दैनिक स्वदेश के प्रबंध सम्पादक थे। विद्या भारती ने उन्हें देवपुत्र का काम सौंपा, वे इसे इंदौर ले आए। परिवर्तन का दौर शुरू हुआ। पत्रिका आकर्षक दिखे इसलिए आकार बदला। फिर पृष्ठों की संख्या बढ़ायी, पहले आवरण रंगीन किया फिर भीतर के सभी पृष्ठों को कम से कम द्विरंगी किया। अब तो आठ पृष्ठ बहुरंगी हो गए हैं। वे कहते हैं- “बच्चों को अपनी ओर खींचना है तो आकर्षक सामग्री प्रस्तुत करनी होगी। हमें बच्चों को समय के साथ लेकर चलना होगा। अब बच्चे उड़न-खटोला, राजा-रानी और परीक्षाओं से आगे बढ़कर राकेट और उपग्रह तक पहुंच गए हैं। इस युग के बच्चे जिज्ञासु हैं, हमने उनकी भूख को समझा और उनके मनोनुकूल सामग्री दी। हमने कारगिल युद्ध, कम्यूटर, क्रांति, शबरी कुम्भ तथा एकात्मता यात्रा जैसे विषयों पर विशेषांक निकाले और अभी समरसता पर विशेष अंक प्रकाशित किया है।”

श्री अष्ठाना मानते हैं कि भारत में बाल साहित्य की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। कानपुर के श्री राष्ट्रबन्धु, दिल्ली के श्री श्याम सिंह शशि, बनारस के डा. शिवप्रसाद, लखनऊ के श्री सुरेन्द्र विक्रम सरीखे कुछ ही साहित्यकार हैं जो बाल जगत के लिए शिक्षाप्रद मनोरंजन साहित्य उपलब्ध करा रहे हैं। बच्चों के प्रिय जय भैया (स्व. जयप्रकाश भारती) का स्मरण करना भी वे नहीं भूलते जिन्होंने वर्षों तक नंदन का संपादन किया था। स्व. भारती की इच्छा थी कि बाल साहित्य पर कोई शोध केन्द्र बने, उनकी इस इच्छा को भी श्री अष्ठाना के प्रयासों से सफलता मिली। आज देवपुत्र के प्रकाशन संस्थान सरस्वती बालकल्याण न्यास इन्दौर के अन्तर्गत ही “भारतीय बाल साहित्य शोध संस्थान” चल रहा है। यह देश का पहला ऐसा संस्थान है जो बाल साहित्य पर शोध कर रहा है और इसे इन्दौर विश्वविद्यालय से मान्यता भी प्राप्त है। इस संस्थान में 7-8 शोधार्थी बाल साहित्य पर शोध (पी.एचडी. एवं एमफिल) कर रहे हैं। इस संस्थान के लिए देशभर के बाल साहित्यकारों ने अपना साहित्य नि:शुल्क भेजा है। किसी ने 10-20 बाल पुस्तकें भेजीं तो किसी ने 50-60। लगभग 1 दर्जन लोगों ने 250-300 पुस्तकें भेजीं, जिनमें 1920-25 के बीच प्रकाशित हुआ बाल साहित्य भी था। देवपुत्र को तो बस डाक खर्च ही देना पड़ा। पर टेलीविजन, फिल्म, हैरीपाटर श्रंृखला की पुस्तकें बाल साहित्य के लिए कितनी बड़ी चुनौती हैं, यह पूछने पर श्री अष्ठाना कहते हैं- “पाश्चात्य संस्कृति का सर्वाधिक प्रभाव बाल मन पर ही होता है। पश्चिमी जगत भारतीय बाल जगत को ध्यान में रखकर अनेक प्रकार की मनोरंजक सामग्री पुस्तकों एवं टेलीविजन के माध्यम से परोस रहा है। क्षणिक उन्माद और नवीनता के बच्चे भी दीवाने दिखते हैं। पर इस प्रकार के मनोरंजन से कोई संस्कार नहीं मिलता और न ही इस मनोरंजन का कोई स्थायी प्रभाव होता है। हमारा प्रयास है कि हम बच्चों को उनकी मिट्टी और महापुरुषों के साथ जोड़ें। टेलीविजन और इस प्रकार के प्रचार के बीच भी हम क्रमश: बढ़े हैं। अब देवपुत्र को केवल म.प्र. में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण भारत और नेपाल तक के बच्चों का प्यार मिल रहा है।”

(जितेन्द्र तिवारी से बातचीत पर आधारित)

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