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विभाजक राजनीति पर सांसें लेती कांग्रेसनीत सरकार

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Apr 6, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Apr 2006 00:00:00

पहले देश तोड़ा अब समाज तोड़ेंगे

हिन्दू समाज का अंग हैं जैन

-संध्या जैन

खुद को हिन्दू समाज का नवनीत मानता आया जैन समाज केन्द्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री द्वारा उसे अल्पसंख्यक दर्जा देने की बात पर स्तब्ध है। निश्चित रूप से श्री ए.आर. अंतुले संप्रग सरकार की देश को तोड़ने की उसी नीति को आगे बढ़ा रहे हैं जो कांग्रेस शासित प्रदेशों में मुस्लिमों को आरक्षण और उच्च शिक्षा में अन्य पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण की बात करती है। कुछ पैसे वाले दिगम्बर जैन परिवारों, जो समाज पर मौलवियों जैसा नियंत्रण जमाने की आकांक्षा पाले हैं, को छोड़कर जैन समाज ने कभी भी अलपसंख्यक दर्जे की न मांग की है, न ऐसी इच्छा जताई है। जैन कभी कड़ी मेहनत या प्रतियोगिता से पीछे नहीं हटे और इस कारण उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में कामयाबी हासिल की है। उनके इस सफलता के आयाम को और बल देने की बजाय अल्पसंख्यक दर्जा वास्तव में उनकी उच्च शिक्षा संस्थानों तक में पहुंच पर रोक लगा सकता है क्योंकि जैन समाज संख्या के हिसाब से बहुत कम है, जिसने आबादी के आधा प्रतिशत आंकड़े को कभी पार नहीं किया है।

अपनी कम संख्या के बावजूद जैनियों ने हिन्दू समाज में अच्छा प्रभाव बनाए रखा है। उनका और हिन्दुओं का मूल साझा है। हिन्दुओं की ही तरह 22 तीर्थंकर श्रीराम के इक्षवाकु वंश की ही संतान हैं जबकि दो श्रीकृष्ण की “हरि” धारा से सम्बंधित हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि भारतीय संविधान जैनियों व अन्य भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं को “हिन्दू” के रूप में स्वीकार करता है, हालांकि कई अन्य धाराओं की ही तरह जैनी हिन्दुत्व के भीतर ही अपनी विशिष्ट पहचान बनाए हुए हैं और विशेष उपासना पद्धति से जुड़े हैं।

भारत के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन में जैनियों का पर्याप्त प्रभाव रहा है। बहुत पहले उन्होंने हिन्दुओं और बौद्धों पर अहिंसा और शाकाहार की सर्वोच्चता स्वीकारने का दबाव बनाया था। पौधों में जीवन होता है, आधुनिक-विज्ञान के यह बताने से बहुत पहले से जैन पौधों को सजीव मानकर उनका सम्मान करते रहे हैं।

निगोडा (एक कोशिकीय) जीवों के प्रति जैनियों की जागरुकता ने ही पशु बलि और मांसाहार के विरुद्ध निषेधाज्ञा लागू करवाई थी। जैन परंपरा में पर्यावरण और अन्य जीवों के प्रति जिम्मेदारी (परस्परोपग्रहो जीवनम्) पर बल दिया जाता है। इसी भावना की वजह से जैनियों ने सबसे पहले पशु-पक्षियों के अस्पताल शुरू किए। जैन परंपरा में सभी जीवों का आदर किया जाता है अत: गाय को विशेष रूप से पूज्य न मानते हुए भी जैनियों ने गोवध के विरुद्ध आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया है।

जैनियों ने हिन्दू मान्यताओं को अपनाया है, भले ही वे उनके आधिकारिक धर्म विज्ञान से मेल न भी रखती हों। महाभारत में किसी व्यक्ति के चार ऋण बताए गए हैं- देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण और मानव ऋण। जैन पंथ में 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमी की कथा प्रचलित है जिसमें अरिष्टनेमी अविवाहित रहते हुए संसार को त्यागने की इच्छा प्रकट करते हैं। उनके चचेरे भाई श्री कृष्ण (विष्णु के अवतार) ने उन्हें याद दिलाया कि पहले के सभी महान व्यक्तियों ने आध्यात्मिकता की खोज में संसार का त्याग करने से पहले विवाह करके परिवार बढ़ाया। अत: तुम्हें विवाह करके अपने पिता को प्रसन्न करना चाहिए।

हिन्दू और जैन तो हमारे ऋषियों के उस बिना सिले वस्त्र के ऐसे ताने-बाने हैं, जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। अल्पसंख्यक दर्जा वह ऐतिहासिक मील का पत्थर है जो संविधान सभा द्वारा बंटवारे से बचने के लिए मुस्लिमों को दिए गए कुछ विशेषाधिकारों के कारण देश में प्रचलित हुआ। लेकिन अफसोस कि बंटवारे के बाद भी इसके प्रावधान बने हुए हैं। सरदार पटेल की दूरदृष्टि पहचान चुकी थी कि आगे चलकर यह राजनीतिक लाभ उठाने का रास्ता खोल देगा। अत: वे बिना पांथिक अवरोधों के एक समरस समाज चाहते थे।

वस्तुत: इस तर्क में एक बहुत बड़ी खामी है कि भारत के मजहबी अल्पसंख्यकों को खुद को संरक्षित रखने के लिए विशेष संवैधानिक सुनिश्चितता चाहिए। एकेश्वरवादी मतों से अलग, सनातन धर्म सभी को अपनाने की बात करता है और भारत तो यहूदियों, सीरियाई ईसाइयों, पारसियों, तिब्बतियों और बहाइयों जैसे यातना भोग चुके समाजों के लिए एक सभ्यतामूलक सहज स्वीकार्य स्थान रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से आक्रामक रहे समाजों को भी अपनाने से यह पीछे नहीं हटा है। इन समाजों को सोनियानीत संप्रग से उनके द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा संस्थानों में 27 प्रतिशत ओ.बी.सी. कोटा लागू करने से छूट देकर बिन मांगा उपहार मिला हुआ है। इससे ये अल्पसंख्यक संस्थान योग्यता की बजाय जाति के आधार पर सामाजिक बंटवारे को बढ़ावा देकर गलत तरीके से राजनीतिक और आर्थिक ताकत दिखाएंगे।

अगस्त 2005 में न्यायमूर्ति लाहोटी, न्यायमूर्ति धर्माधिकारी और न्यायमूर्ति बाल सुब्राह्मण्यम की सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने केन्द्रीय व राज्यों के अल्पसंख्यक आयोगों को अल्पसंख्यकों को बढ़ावा देने की बजाय अंतर कम करने और अंतत: अल्पसंख्यकों की सूची को समाप्त करने का निर्देश दिया था। अदालत ने देश में समाज को तोड़ने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिए जाने के विरुद्ध चेतावनी दी थी; लगता है वह चेतावनी बहरे कानों से टकराकर लौट गई है।

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