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पहले देश तोड़ा अब समाज तोड़ेंगे
आरक्षण के नाम पर हिन्दू समाज के दो वर्गों को आपस में लड़वाया तो जैन समाज को अल्पसंख्यक कहकर हिन्दू धर्म से अलग करने की साजिश रची। प्रस्तुत हैं जैन समाज के आदरणीय संत आचार्य महाप्रज्ञ व सुप्रसिद्ध लेखिका सुश्री संध्या जैन के विचार तथा आरक्षण के विरुद्ध छात्र आंदोलन पर एक रपट। -सं.
जाति नहीं, राष्ट्रीयता है हिन्दू!
इसलिए जैन भी हिन्दू हैं!!
-आचार्य महाप्रज्ञ
न्दुस्थान एक लोकतांत्रिक देश है। संविधान में उसे “सेक्युलर स्टेट” माना गया है। इसका अनुवाद किया गया धर्म-निरपेक्ष राज्य। इस धर्म-निरपेक्ष शब्द ने पुरानी पीढ़ी के मन में एक भ्रांति को जन्म दिया। लोकतंत्र में राज्य का शासन किसी संप्रदाय विशेष के हाथ में नहीं होता। वह संप्रदायातीत अथवा असांप्रदायिक होता है। इस उदात्त भावना को धर्म-निरपेक्ष शब्द अभिव्यक्ति नहीं दे सकता, फलत: भ्रांति पैदा हो गई। आचार्य श्री तुलसी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी से धर्म-निरपेक्ष शब्द को बदलने की बात कही और सुझाव दिया- “धर्म-निरपेक्ष के स्थान पर संप्रदाय-निरपेक्ष अथवा पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया जाए।” बाद में जो संविधान का हिन्दी अनुवाद मुद्रित हुआ है, उसमें सेकुलर का अर्थ पंथ-निरपेक्ष किया गया है।
संप्रदाय निरपेक्ष होने का तात्पर्य धर्म निरपेक्ष, धर्महीन अथवा धर्मविरोधी होना नहीं है। कोई भी राष्ट्र जब किसी भी धर्म या संप्रदाय के द्वारा शासित हुआ है, तब जनता के साथ न्याय नहीं हो सका, अपने प्रतिपक्षी मतों के साथ अन्याय हुआ। इसीलिए राजनीति किसी संप्रदाय विशेष की अवधारणा से संचालित नहीं होनी चाहिए।
राष्ट्रवाचक है हिन्दू
आज जिस भूखंड का नाम हिन्दुस्थान है, प्राचीनकाल में उसका नाम भारत या भारतवर्ष था। भरत के नाम पर उसका नामकरण भारत किया गया। पारस (वर्तमान ईरान) आदि मध्य एशियाई देशों के संपर्क के कारण इसका नाम हिन्दू देश प्रचलित हुआ। पारसी सम्राट द्वारा महान (छठी शताब्दी ई.पू.) के अभिलेखों में सिंधु प्रदेशों के लिए हिन्दू शब्द का प्रयोग मिलता है, जैसे राजस्थान आदि कुछ प्रदेशों में “स” का उच्चारण “ह” किया जाता है, वैसे ही प्राचीन फारसी बोली में भी “स” का उच्चारण “ह” होता था। पारसी लोग “सप्तसिंधु” का उच्चारण “हप्तहिन्दू” करते थे। मूल प्रकृति के अनुसार हिन्दू शब्द देश या राष्ट्र का वाचक है, धर्म का नहीं।
भारतवर्ष में चिरकाल से धर्म की दो धाराएं प्रवाहित रहीं- श्रमण और वैदिक। श्रमण परंपरा का तंत्र क्षत्रियों के हाथ में था। वैदिक परंपरा का सूत्रधार ब्राह्मण वर्ग था। सांख्य, जैन, बौद्ध और आजीवक- ये सब श्रमण परंपरा के धर्म हैं। मीमांसा, वेदांत- ये वैदिक परंपरा के धर्म हैं। हिन्दू नाम का कोई भी प्राचीन धर्म नहीं है। मुसलमानों के आगमन के पश्चात हिन्दू और मुसलमान पक्ष और प्रतिपक्ष बन गए। प्राचीनकाल में श्रमण और ब्राह्मण पक्ष और प्रतिपक्ष में प्रतिष्ठित थे। संस्कृत व्याकरणकारों ने श्रमण और ब्राह्मण का नित्य विरोधी के रूप में उल्लेख किया है। आधुनिक काल में श्रमण और ब्राह्मण का विरोध मंद हो गया। एक श्रमण ब्राह्मण धर्म में दीक्षित हो जाता और एक ब्राह्मण श्रमण धर्म में दीक्षित हो जाता, उससे कोई जाति परिवर्तन नहीं होता। हिन्दू और मुसलमान में कोरा धर्म संप्रदाय का भेद ही नहीं है, जातिभेद भी है। जातिभेद के आधार पर हिन्दू और मुसलमान शब्द प्रचलित हुआ। उसका प्रभाव धर्म की धारणा पर भी पड़ा। फलत: हिन्दू धर्म जैसा शब्द भी प्रचलित हो गया।
क्या जैन हिन्दू हैं?
आधुनिक युग में धर्म का वर्गीकरण सनातन, वैष्णव, जैन, बौद्ध, शैव, शाक्त आदि रूपों में रहा। हिन्दू धर्म की व्याख्या वैदिक धर्म के रूप में की गई। हिन्दू शब्द यदि राष्ट्र और जाति का वाचक रहे तो जैन, बौद्ध आदि सभी हिन्दू शब्द के द्वारा वाच्य हो सकते हैं। किसी के सामने कोई उलझन नहीं होनी चाहिए। आचार्यश्री तुलसी ने कई बार कहा था- हिन्दुस्थान में रहने वाला प्रत्येक नागरिक हिन्दू हैं। धर्म या मजहब की दृष्टि से भले वह ईसाई हो, इस्लाम का अनुयायी हो, पारसी अथवा और कोई भी हो। “हिन्दू धर्म”, इस शब्द ने हिन्दुत्व को संकुचित बना दिया। केवल मुसलमान, ईसाई और पारसी ही हिन्दुत्व से पृथक नहीं हुए हैं, जैन, बौद्ध और सिख भी उससे पृथक हुए हैं। पूना के कुछ पंडितों ने आचार्यश्री तुलसी से पूछा- जैन हिन्दू हैं या नहीं? आचार्यश्री ने उत्तर में कहा- यदि आप हिन्दू का अर्थ वैदिक परंपरा का अनुयायी मानते हैं तो तो जैन हिन्दू नहीं हैं और यदि हिन्दू का अर्थ राष्ट्रीयता से है तो जैन हिन्दू हैं।
हिन्दू शब्द का व्यापक अर्थ
हिन्दू शब्द व्यापक अर्थ में भारत का पर्यायवाची है। सिन्धु नदी से उपलक्षित होने के कारण यह देश हिन्दू देश कहलाया और इसी आधार पर इसका नाम हिन्दुस्थान हुआ। इस व्यापक संदर्भ में हिन्दुस्थान का प्रत्येक नागरिक हिन्दू कहलाए, इसमें कोई प्रतिवाद नहीं होना चाहिए। विश्व के अनेक देशों में हिन्दू रहते हैं। उनमें कुछ हिन्दुस्थान के नागरिक हैं और कुछ अन्य राष्ट्रों के नागरिक। इसलिए हिन्दू एक जाति भी है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
सबसे अच्छा है, हम हिन्दू शब्द को राष्ट्र के साथ अनुबंधित करें। उससे आगे बढ़ना चाहें तो उसे जाति के साथ अनुबंधित करें। इससे आगे न बढ़ें। वैचारिक असहिष्णुता ही सांप्रदायिक झगड़ों को उत्पन्न करती है, इसलिए सर्वधर्म सहिष्णुता का पाठ हमारे लिए अधिक श्रेयस्कर हो सकता है।
जैन दर्शन में निक्षेप पद्धति का महत्वपूर्ण स्थान है, उसका तात्पर्यार्थ है- शब्द प्रयोग का वैज्ञानिक दृष्टिकोण। हमारी सफलता और विफलता शब्द और अर्थ की परिक्रमा कर रही है, इसलिए शब्द-प्रयोग के प्रति हमारी जागरुकता नितांत स्पृहणीय है।
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