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तोड़ें इतिहास पर लगा वामपंथी ताला
-राकेश उपाध्याय एवं कुरुक्षेत्र से डा. केशव ममगाई
लगभग 5000 वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में भारतीय इतिहास ने निर्णायक करवट ली थी। महाभारत के युद्ध में जन-धन की भीषण तबाही हुई किन्तु “धर्म” ने “अधर्म” को उसकी अन्तिम परिणति तक पहुंचाकर ही दम लिया। कहते हैं उस महायुद्ध के बाद ही सरस्वती नदी का प्रवाह विलुप्त हुआ। हिमालय क्षेत्र की भू-आकृति में परिवर्तन होने लगा, एक भयानक भूचाल आया और सहस्रों वर्षों से जो धारा पश्चिमी भारत के जन-जन को समृद्ध करती आ रही थी, वह भूतल में समा गयी, उसका प्रवाह खण्ड-खण्ड बंटकर विलुप्त हो गया।
गत 17 नवम्बर को उसी कुरुक्षेत्र में सरस्वती पुत्रों का महा-सम्मिलन हुआ। अपने-अपने क्षेत्र के ख्यातलब्ध, मूर्धन्य विद्वान और वक्ता वहां जुटे थे। भारतीय इतिहास संकलन योजना का सातवां त्रै-वार्षिक राष्ट्रीय अधिवेशन इस महा-सम्मिलन का निमित्त बना था। इस अवसर पर “सरस्वती-भारतीय संस्कृति की जीवन धारा” विषयक चित्र प्रदर्शनी तथा वैज्ञानिकों और इतिहास व पुरातत्व शास्त्रियों के परिसंवाद से स्पष्ट हो गया कि कुरुक्षेत्र एक बार पुन: इतिहास के निर्णायक मोड़ पर दस्तक दे रहा है। सरस्वती नदी शोध प्रकल्प के निदेशक श्री एस. कल्याण रमण कहते हैं- “इस बार कुरुक्षेत्र में भारतीय मेधा और बौद्धिकों का जो संगम हुआ है, उसका निचोड़ यह है कि सरस्वती पुन: भारत-भूमि पर प्रवाहित होगी। सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा तो आगामी तीन वर्षों में हम आदि बद्री से गुजरात के सिन्धु सागर तक सरस्वती नदी का प्रवाह पुन: प्रारंभ कर देंगे।”
अ.भा. इतिहास संकलन योजना के इस राष्ट्रीय अधिवेशन का उद्घाटन रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन तथा प्रख्यात विद्वान एवं पंजाब विश्वविद्यालय के पूर्व व्याख्याता श्री धर्मपाल मैनी ने किया। राष्ट्रीय भू-भौतिकी शोध संस्थान के पूर्व निदेशक डा. जनार्दन नेगी उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि थे। अध्यक्षता अ.भा. इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री शिवाजी सिंह ने की। अपने उद्बोधन में श्री सुदर्शन ने कहा कि अंग्रेजों ने षडंत्रपूर्वक हमारे इतिहास को विकृत किया। स्वतंत्रता के बाद भी यह षडंत्र चलता रहा। आज समय आ गया है कि हम अपने गौरवपूर्ण इतिहास को पुन: प्रकट करें ताकि हमारी पीढ़ियां अपने अतीत पर गौरव करें। श्री सुदर्शन ने सरस्वती नदी अनुसंधान प्रकल्प पर प्रसन्नता व्यक्त की और कहा कि हमारे वैज्ञानिकों और पुरातत्वविदों ने इस महान उपलब्धि के द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि सरस्वती नदी मिथक नहीं वरन् एक जीवंत, प्रवाहमान नदी थी। वह हमारी सभ्यता के उत्कर्ष का प्रतीक है। सरस्वती की धारा पुन: प्रवाहित होने से न केवल सांस्कृतिक वरन् प्राकृतिक रूप से भी हमारी सभ्यता समृद्ध होगी। प्रख्यात विद्वान श्री धर्मपाल मैनी ने इस अवसर पर कहा कि मानवीय मूल्यों के सन्दर्भ में इतिहास का अध्ययन और अनुसंधान बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि हमें अपनी पीढ़ीगत महान सभ्यता और परम्पराओं को सम्यक रूप में समझना चाहिए तभी हम अपनी विरासत को सहेजकर भावी पीढ़ी को उससे अवगत करा सकेंगे।
डा. शिवाजी सिंह ने भारतीय इतिहास के गौरवशाली पक्ष के सन्दर्भ में वामपंथी इतिहासकारों को लताड़ लगाई और कहा कि औपनिवेशिक इतिहासकारों से कहीं ज्यादा क्षति भारतीय इतिहास को वामपंथी इतिहासकारों ने पहुंचाई है। भारतीय इतिहास को उन्होंने अपनी भ्रान्त अवधारणाओं में बन्दी बनाकर रखा हुआ है। आर्य आक्रमण जैसी झूठी बातें वामपंथी इतिहासकारों के कारण ही भारत में प्रचारित होती रहीं। श्री सिंह ने कहा कि समय आ गया है कि हम भारत के इतिहास को वामपंथी कैद से मुक्त कराएं। सरस्वती नदी की खोज ने इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण कार्य किया है।
इसके पूर्व अधिवेशन में प्रख्यात पत्रकार एवं स्तंभ लेखिका सुश्री संध्या जैन ने सरस्वती सभ्यता एवं 1857 के स्वातंत्र्य समर पर आधारित चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। अधिवेशन के विभिन्न सत्रों में “सरस्वती- भारतीय संस्कृति की जीवन धारा” एवं “1857 का स्वतंत्रता संग्राम” विषय पर आयोजित परिसंवाद में अनेक ख्यातनाम विद्वानों ने हिस्सा लिया और शोध पत्र भी पढ़े गए। पूसा इंस्टीटूट, नई दिल्ली के पूर्व निदेशक डा. के.एल. मेहरा ने “सरस्वती सभ्यता एवं कृषि” विषय पर अपनी शोधपूर्ण प्रस्तुति दी। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (जोधपुर) से आए वैज्ञानिक डा. अनिल कुमार गुप्ता एवं डा. विद्युत भद्र ने मानसरोवर हिमनद से हरियाणा होते हुए गुजरात तक सरस्वती के प्राचीन प्रवाह मार्ग एवं उसके पुन: प्रवाहित होने के संदर्भ में अनुसंधानपरक प्रस्तुति दी। पुरातत्वविद् श्री राजेश पुरोहित ने सरस्वती नदी से जुड़े हरियाणा के अनूठे पुरातत्व स्थलों और समद्ध सांस्कृतिक विरासत की विस्तार से जानकारी दी। डा. कल्याण रमन ने सरस्वती नदी से जुड़े 2000 पुरातात्विक महत्व के स्थानों के संरक्षण के सन्दर्भ में प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसे सर्वसम्मति से पारित किया गया। प्रस्ताव में कहा गया है कि सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग में पड़ने वाले 2000 पुरातात्विक स्थलों की खुदाई की जानी चाहिए ताकि भारतीय सभ्यता के उद्भव के सन्दर्भ में नये और ठोस तथ्यों को गहराई से जाना जा सके।
अधिवेशन के दूसरे दिन प्रख्यात इतिहासकार प्रोफेसर सतीश चन्द्र मित्तल ने 1857 के सैनिक विद्रोह को स्वतंत्रता का संघर्ष बताते हुए इस सन्दर्भ में इतिहास का चित्रमय निरुपण किया। अधिवेशन में इस सन्दर्भ में प्रस्ताव भी पारित हुआ। अधिवेशन में लगभग 80 शोध पत्र विविध मुद्दों पर पढ़े गए। 18 नवम्बर को अधिवेशन के समारोप सत्र को संबोधित करते हुए रा.स्व.संघ के सह सरकार्यवाह श्री सुरेश सोनी ने इतिहासकारों से आग्रह किया कि भारतीय चिन्तन पर आधारित सच्चे इतिहास को वे सामने लाएं तथा इतिहास की वर्तमान विकृतियों को दूर करें। इतिहास संकलन योजना के अ.भा. महामंत्री प्रो. शरद हेब्बालकर ने राष्ट्रीय अधिवेशन की संपूर्ण कार्रवाही का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया। सम्मेलन में शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति के प्रयासों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् और केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् की पाठपुस्तकों में अंकित विकृत तथ्यों के संशोधन की मांग करते हुए एक प्रस्ताव भी पारित किया गया। अधिवेशन के समापन के बाद अधिकांश प्रतिनिधियों ने सरस्वती सरोवर में स्नान भी किया।
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