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सोनिया का इस्तीफा
फिर ओढ़ा “त्याग” का बाना
24.3.2006
श्रीमती सोनिया माईनो गांधी को यह श्रेय तो देना ही पड़ेगा कि उन्होंने भारतीय जनता की मानसिकता, छवि निर्माण में मीडिया की भूमिका व सीमाएं तथा अपनी राजनीतिक पार्टी के वंशवादी चरित्र का अन्यों की अपेक्षा सही आकलन किया है। वे समझती हैं कि सहस्राब्दियों लम्बे संस्कारों के कारण भारतीय समाज प्रेम, करुणा और त्याग की ऊंची भाषा को ज्यादा पसंद करता है। इस छवि के पर्दे के पीछे की षड्यंत्री बदले की तुच्छ राजनीति की ओर उसका ध्यान जाता ही नहीं। उन्होंने समझ लिया है कि यह छवि बनाने में मीडिया की मुख्य भूमिका है और मीडिया वही दिखा-छाप सकता है जो उसे दिखाया जाएगा। किसी भी घटना को मीडिया दो-चार दिन उछालेगा फिर वह अगले विषय पर चला जाएगा और कमजोर जनस्मृति पुराने विषय को भूलकर अगले विषय में चटखारे लेने लगेगी। फिर, जनता के सामने “प्रेम, करुणा और त्याग” का ढिंढोरा लगातार पीटने का काम वह वंशवादी पार्टी करेगी, जो वंश की चरण-स्तुति की सीढ़ियों पर चढ़कर ही सत्ता सुख भोग सकती है।
जिनकी स्मरणशक्ति पूरी तरह मरी नहीं है और जिनके पास थोड़ी भी राजनीतिक समझ है वे देख सकते हैं कि श्रीमती सोनिया की प्रबल आकांक्षा प्रधानमंत्री पद पाने की रही है। कैसे भूल सकते हैं कि 1999 में पर्दे के पीछे षड्यंत्र के द्वारा अटल बिहारी वाजपेयी की गठबंधन सरकार को केवल एक मत से गिराकर सोनिया जी वामपंथी सोच के राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के पास माकपाई नेता हरकिशन सुरजीत और ज्योति बसु की सलाह पर 272 लोकसभा सदस्यों के समर्थन का दावा लेकर पहुंच गयी थीं। किन्तु समाजवादी पार्टी के समर्थन न देने की सार्वजनिक घोषणा के बाद यह आंकड़ा झूठा सिद्ध हो गया और प्रधानमंत्री पद उनके हाथ में आते-आते फिसल गया। दूसरी बार मई, 2004 में कई दलों का समर्थन जुटाकर सोनिया जी बहुमत के समर्थन की सूची लेकर राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के दरबार में पहुंची थीं, प्रधानमंत्री पद पर उनके अभिषेक की घोषणाएं की जा रही थीं, पर राष्ट्रपति भवन में कुछ हुआ कि उन्होंने हरकिशन सुरजीत की सलाह पर जनाधारशून्य नौकरशाह मनमोहन सिंह को डमी प्रधानमंत्री बनाकर स्वयं को “त्याग की देवी” के रूप में उछालने का जबर्दस्त नाटक रचा। अब तीसरी बार पुन: “त्याग” का यह नाटक दोहराया जा रहा है। पर षडंत्री वंशवादी राजनीति का चेहरा पूरी तरह बेनकाब हो गया है।
षड्यंत्री कार्यशैली
सोनिया जी की इस राजनीति की वंशवादी प्रेरणा एवं उनकी षडंत्री कार्यशैली को समझने के लिए उनके द्वारा जुटाए गए गठबंधन के अन्तर्विरोधों, उठापटक व उस गठबंधन में उनकी सर्वशक्तिमान स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है। यह कैसी सरकार है जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, कानून मंत्री और शिक्षा मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर ऐसे चेहरे विराजमान हैं, जिन्हें जनता ठुकरा चुकी है और जो राज्यसभा के रास्ते से मंत्री पद भोग रहे हैं? क्या कोई बता सकता है कि पिछले दो वर्ष में शिवराज पाटिल और हंसराज भारद्वाज ने कहां अपनी योग्यता और प्रशासकीय क्षमता का परिचय दिया है? सिवाय इसके कि वे गृहमंत्रालय और कानून मंत्रालय का उपयोग सोनिया जी की व्यक्तिगत राजनीति के लिए करते रहे हैं। गोधरा-नरमेध पर बनर्जी कमीशन, क्वात्रोकी के खाते को खुलवाने, गोवा, झारखण्ड, बिहार और अब उत्तर प्रदेश में राज्यपाल पदों के दुरुपयोग, अमर सिंह फोन टैपिंग, जया बच्चन प्रकरण, निर्वाचन आयोग में नवीन चावला की नियुक्ति आदि सभी घोटालों में इन दोनों मंत्रालयों की मुख्य भूमिका रही है और ये दोनों सोनिया जी के दरबारी की तरह कार्य करते रहे हैं। मनमोहन सिंह के बारे में अब यह स्पष्ट हो चुका है कि अच्छे अर्थशास्त्री होने के बावजूद वे नौकरशाही मानसिकता से ग्रस्त हैं और सोनिया की कृपा से प्राप्त डमी प्रधानमंत्री की अपनी हैसियत को भलीभांति समझते हैं।
उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि सब राजनीतिक निर्णय सोनिया जी लेती हैं, मेरी सरकार उन्हें क्रियान्वित करती है। वे अपनी मर्जी से मंत्रिमण्डल में कोई हेरफेर भी नहीं करते। बीमार अर्जुन सिंह के कंधों पर महत्वपूर्ण शिक्षा मंत्रालय का भार क्यों है, क्योंकि वे वामपंथी बौद्धिकों के कंधों पर सवार होकर हिन्दुत्व विरोध और मुस्लिम तुष्टीकरण का वायुमण्डल पैदा कर रहे हैं। मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए अलग अल्पसंख्यक मंत्रालय बनने के बाद भी अर्जुन सिंह मुस्लिम-शिक्षा के विषय को उस मंत्रालय को सौंपने को तैयार नहीं हैं। संप्रग और राष्ट्रीय परामर्शदाता समिति के अध्यक्ष के रूप में केन्द्र सरकार के सब निर्णय सोनिया जी के दस जनपथ से ही लिए जाते थे। उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला, अनेक आई.एस.एस. अधिकारी, बड़ा स्टाफ और वाहन आदि की सुविधाएं उन्हें उपलब्ध हुर्इंं, केन्द्रीय सरकार की शक्ति का वे एकमात्र केन्द्र हैं, उनकी इच्छा के बिना एक पत्ता नहीं हिल सकता। इसलिए इस सरकार के पिछले दो साल के निर्णयों की दिशा को ठीक-ठीक समझना बहुत आवश्यक है।
श्रीमती इंदिरा गांधी के घर में रहने के कारण सोनिया यह जान चुकी हैं कि सत्ता के वास्तविक सूत्र संसद में नहीं, सचिवालय, सी.बी.आई. जैसी जांच एजेन्सियों, चुनाव आयोग और राज्यपाल जैसी संस्थाओं में होते हैं। पर सत्ता-तंत्र के इन औजारों पर नियंत्रण पाने एवं उनका मनचाहा इस्तेमाल करने के लिए लोकसभा में बहुमत को जुटाना पहला कदम है। इसीलिए सोनिया जी ने लालू यादव, राम विलास पासवान, शिबू सोरेन, द्रमुक और वामपंथी दलों जैसे परस्पर विरोधी दलों को जोड़कर कृत्रिम बहुमत बनाया और केवल 142 लोकसभा सदस्यों के बल पर सत्ता-तंत्र पर अपना कब्जा स्थापित किया। उन्होंने यह भी समझ लिया है कि लोकसभा में अधिक सीटें पाने के लिए चुनाव जीतना आवश्यक है और चुनाव का वोट गणित पूरी तरह जातिवाद और मुस्लिम तुष्टीकरण पर निर्भर करता है। इसलिए लालू यादव, राम विलास पासवान, वाईको आदि जातिवादी नेताओं को साथ रखते हुए भी सोनिया जी का पूरा ध्यान इन दो वर्षों में मुस्लिम तुष्टीकरण पर केन्द्रित रहा है। उनके गठबंधन का एकमात्र आधार पंथनिरपेक्षता अर्थात् मुस्लिम तुष्टीकरण है। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का एकमात्र शत्रु भाजपा है और यहां वाममोर्चा उनके लिए उपयोगी बन जाता है। क्योंकि उनका एकमात्र घोषित कार्यक्रम भाजपा को सत्ता में वापस आने से रोकना है। यही कारण है कि वाम मोर्चे की लातें बार-बार सहकर भी सोनिया गांधी राष्ट्रवाद की सैद्धांतिक राजनीति का रास्ता अपनाने को तैयार नहीं हैं।
वंशवादी इतिहास
उनकी राजनीति में राष्ट्र कहीं नहीं है, केवल व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा और वंशवाद है। स्वयं को पर्दे के पीछे रखकर उन्होंने जिन राज्यपालों का दुरुपयोग किया, वे सब उनकी व्यक्तिगत पसंद थे, मनमोहन की नहीं। उनकी नियुक्ति मनमोहन नहीं, शिवराज पाटिल के माध्यम से करायी गई। सी.बी.आई. का जितना निर्लज्ज दुरुपयोग इन दो वर्षों में हुआ है उतना पहले कभी नहीं हुआ। सतीश शर्मा के विरुद्ध आरोपों की वापसी, अमर सिंह की फोन टैपिंग, क्वात्रोकी के खातों को खुलवाने, वोल्कर घोटाले आदि अनेक उदाहरण हैं। निर्वाचन-आयोग में नवीन चावला की नियुक्ति, के.जे. राव की विदाई और जया बच्चन के विरुद्ध चुनाव-आयोग की सिफारिश आदि से स्पष्ट है कि इस महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था का भी तेजी से राजनीतिकरण किया जा रहा है। सोनिया माईनो की राजनीति की एकमात्र व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा वंशवाद है, इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश ही नहीं है। उनका वंशवादी इतिहास राजीव गांधी से शुरू होता है और राहुल गांधी पर खत्म होता है। केन्द्र और कांग्रेस शासित राज्यों में अधिकांश योजनाओं, भवनों, पुरस्कारों और प्रकल्पों के नामकरण के लिए राजीव गांधी के अलावा और किसी इतिहास पुरुष का नाम ही उन्हें स्मरण नहीं आता। ज्योतिरादित्य सिन्धिया, सचिन पायलट, नवीन जिन्दल, मिलिन्द देवड़ा, संदीप दीक्षित आदि अनेक क्षमतावान युवा सांसदों के रहते राहुल गांधी को आगे बढ़ाने की कोशिश यही बताती है। जया बच्चन को संसद की सदस्यता से हटाने, बीमार अमिताभ बच्चन को इन्कमटैक्स का नोटिस भिजवाने, अमर सिंह का फोन टेप कराने, अमर सिंह के विरुद्ध राज बब्बर को खड़ा करने, अमर सिंह के मित्र अनिल अम्बानी के विरुद्ध उनके भाई मुकेश को संरक्षण देने के पीछे केवल पारिवारिक विद्वेष और बदले की राजनीति काम कर रही है।
सोनिया माईनो की कार्यशैली की विशेषता यह है कि ये सब निर्णय पर्दे के पीछे गुपचुप ढंग से लिए जाते हैं, इनमें वे प्रत्यक्ष कहीं नहीं हैं। निर्णयों का भेद खुलने पर उसकी जवाबदेही चाटुकार मन्त्रियों या प्रधानमंत्री की होती है। इन निर्णयों पर मीडिया और संसद में विवाद छिड़ने पर सोनिया गांधी मौन रहती हैं। विपक्ष के बार-बार उकसाने पर भी वे अपना मुंह नहीं खोलतीं। 1984 के सिख नरमेध पर नानावती रपट आने पर विपक्ष के बार-बार ललकारने पर भी उन्होंने अपना मुंह नहीं खोला, जबकि उस नरमेध के समय वे स्वयं राजमहल की अंग थीं। उसकी जवाबदेही मनमोहन सिंह को उठानी पड़ी और बलि जगदीश टाईटलर की चढ़ी। वोल्कर घोटाले में नटवर सिंह सद्दाम हुसैन के पास सोनिया जी की चिट्ठी लेकर गए, पर उन्होंने अब तक एक शब्द नहीं बोला और बेचारे नटवर सिंह की बलि चढ़ गयी। क्वात्रोकी से सोनिया का सीधा सम्बंध होने पर भी उनका खाता खुलवाने के बारे में झूठ कानून मंत्री ने बोला, सोनिया का मुंह बंद रहा। अमर सिंह टेप कांड में बार-बार ललकारने पर भी सोनिया ने प्रतिक्रिया नहीं की, अखाड़े में वफादार अम्बिका सोनी को उतारा गया। जया बच्चन से अपना व्यक्तिगत बदला लेने के लिए किसी अनजाने कांग्रेसी मदनमोहन शुक्ल को और चुनाव आयोग को हथियार बनाया गया। सोनिया उसमें कहीं नहीं दिखाई दीं। उत्तर प्रदेश विधानसभा ने 99 पदों को लाभ के पदों से बाहर निकालने के लिए विधेयक पारित करके राज्यपाल को भेजा, किन्तु राज्यपाल ने उस पर अपनी स्वीकृति की मुहर तब तक नहीं लगाई जब तक राष्ट्रपति ने जया की सदस्यता समाप्त नहीं कर दी। एक दिन बाद ही उस पर स्वीकृति देने का रहस्य, इसके अलावा और क्या हो सकता है कि वे किसी के इशारे पर स्वीकृति रोके हुए थे?
पर्दे के पीछे की राजनीति
अपने से सम्बन्धित प्रत्येक विवाद पर सोनिया के सुविचारित मौन के पीछे उनका यह आकलन काम कर रहा है कि मीडिया वही दिखायेगा और छापेगा जो आप बोलोगे। बोलोगे ही नहीं तो मीडिया उसे उछालेगा कैसे? इसलिए सोनिया जी स्वयं को विवादों से अलग रखकर मीडिया के सामने अपनी जनहित, करुणा और त्याग की छवि प्रस्तुत करती हैं। ग्रामीण रोजगार योजना जैसी जनकल्याण की योजनाओं के प्रचार, विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में पुलिस दमन या प्राकृतिक आपदा की घटनाओं पर अपनी उपस्थिति, केरल में जिहादी मदनी को मुक्त कराने व मुस्लिम तुष्टीकरण पर पर्दा डालने के लिए आधी रात को वाराणसी के संकट मोचन मंदिर और अस्पताल में घायलों के दर्शन इसी छवि निर्माण के प्रयास हैं। रायबरेली और अमेठी में वंश की जनहित की छवि बनाने का पूरा ध्यान है। बाहर ऊंची बात बोलो, परदे के पीछे बदले की तुच्छ राजनीति खेलो, यही उनकी कार्यशैली का मूल मंत्र है। यह मंत्र उन्होंने इन्दिरा गांधी से सीखा और यही भेद वे अपने पुत्र राहुल को सिखा रही हैं। मीडिया बेचारा वंशवादी राजनीति को आगे बढ़ाने का हथियार बन रहा है।
वंशवादी पार्टी की आज स्थिति यह है कि उसके पास सोनिया, राहुल और प्रियंका के अलावा कोई लोकप्रिय चेहरा ही नहीं बचा है। चुनाव प्रचार के लिए केवल सोनिया ही सब जगह जाती हैं। सोनिया पार्टी गुमनाम बूढ़े चेहरों की पार्टी बन कर रह गयी है। इसीलिए जया बच्चन की संसद की सदस्यता समाप्त करने की बदले की षड्यंत्री राजनीति के घेरे में जब माकपा और कांग्रेस के 44 सांसदों के साथ सोनिया जी स्वयं भी घिरने लगीं तब वंशवादी टोला उन्हें बचाने का षडंत्र रचने में जुट गया। अचानक संसद का सत्र अनिश्चित काल के लिए भंग करके “सोनिया बचाओ अध्यादेश” लाने का गुप्त निर्णय किया गया। गृहमंत्रालय और कानून मंत्रालय अध्यादेश प्रारूप तैयार करने में जुट गए। किन्तु यहां उसी मीडिया ने, जो अनजाने में वंश का महिमामंडन कर रहा है, लोकतंत्र को चौकन्ना कर दिया। राजदीप सरदेसाई के नए चैनल सी.एन.एन.आई.बी.एन. ने 6 फरवरी को नवीन चावला के घोटाले को उजागर किया, 6 मार्च को टाइम्स-नाऊ चैनल ने पहली बार जया बच्चन की सदस्यता समाप्त करने की निर्वाचन आयोग की राष्ट्रपति को सिफारिश की जानकारी दी और 22 मार्च को प्रात: इंडियन एक्सप्रेस ने संसद सत्र के अनिश्चितकालीन स्थगन व “सोनिया बचाओ अध्यादेश” को लाने के षडंत्र का रहस्योद्घाटन किया। उसी प्रकार लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपनी गैर हाजिरी के लिए सफाई दी कि लाभ के पदों वाली सूची में उनका नाम होने के कारण वे सदन में नहीं आए। मीडिया को श्रेय जाता है कि उसने समय पर भंडाफोड़ करके इस षडंत्र को विफल कर दिया और भाजपा महासचिव अरुण जेटली के शब्दों में, सोनिया जी अपने ही बुने षडंत्र का शिकार बन गयीं।
त्याग का नाटक
झूठ के पैर नहीं होते, वह लड़खड़ा ही जाता है। अब एक मंत्री कह रहा है कि अध्यादेश था ही नहीं, दूसरा कह रहा है हमारे सामने अध्यादेश और विधेयक का विकल्प खुला है। मीडिया कह रहा है कि गृह मंत्रालय और विधि मंत्रालय में अध्यादेश को अंतिम रूप मिल चुका था। अब कहा जा रहा है कि यह सोनिया जी का व्यक्तिगत निर्णय है। उन्होंने केवल राहुल और प्रियंका से सलाह ली थी। पारिवारिक निर्णय दिखाने के लिए वह लोकसभा अध्यक्ष को अपना त्यागपत्र देते समय केवल राहुल और प्रियंका को साथ ले गई थीं। यदि ऐसा ही है तो उन्हें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, कानून मंत्री, रक्षा मंत्री और राजमहल के सलाहकार अहमद पटेल के साथ लम्बी मंत्रणा करने की क्या जरूरत थी? यदि वे लाभ के पद पर नहीं थीं तो त्यागपत्र देने की क्या मजबूरी थी? अपना चेहरा बचाने के लिए उन्होंने “त्याग” का नाटक किया और वंशवादी पार्टी उनके “त्याग” का ढोल पीटने में जुट गयी। स्तुतिगान की यह होड़ वंशवाद की शक्ति बन जाती है।
सोनिया पार्टी के सभी चेहरों की एकस्वरता का रहस्य 22 मार्च की रात्रि में जनमत चैनल पर भाजपा के संतोष गंगवार के प्रहारों से आहत दिल्ली के कांग्रेसी मंत्री मंगतराम सिंगला के मुंह से निकल ही गया कि “हम सोनिया जी को क्यों न बचाएं, वे अकेले ही तो पूरी पार्टी को जिताकर लाती हैं।” यही सोनिया राजनीति का अंतिम सत्य है। वंशवादी और लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र का यह अंतर हमें कहां ले जायेगा? यह वरदान भी बन सकता है और अभिशाप भी? क्या हम गहराई से इस अन्तर को समझने और उसका उपाय खोजने का प्रयास करेंगे?
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