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पूर्व थलसेनाध्यक्षनफरत नहीं, सिर्फ प्यारअपनी विशिष्ट संस्कृति के कारण भारत सदियों से एक देश के रूप में बना रहा है। इस लम्बे कालखण्ड में हम देखें तो शक्ति और संघर्ष के बल पर बने न जाने कितने ही देशों के नक्शे बदल गए, देशों की सीमाएं घट-बढ़ गईं और कुछ देश दुनिया के नक्शे से ही मिट गए। पर भारत चिरंतन रहा है। मेरी दृष्टि में यह भारतीय संस्कृति के कारण है, धर्म के कारण नहीं। इस भू-भाग पर रहने वाले निवासियों का एक जैसा चाल-चलन हो गया, जिंदगी जीने की पद्धति बन गई, इसी को लोग पसंद करते थे और यहीं रहना चाहते थे। इसकी एक विशेष वजह यह थी कि इस भू-भाग पर, विशेषकर उत्तर भारत में नदियां बहुत हैं, जमीन बहुत अच्छी है। इस कारण इस नदी घाटी में रहने वाले लोग सुखी व समृद्ध हो गए। यही वजह है कि आक्रांताओं की नजर इन पर पड़ी और उत्तर भारत की ओर से ही आक्रमण हुए। ये लोग हमारे देश में आना चाहते थे, क्योंकि हमारी समृद्ध संस्कृति से वे आकर्षित होते थे।हम सेना से जुड़े लोग देश के निर्माण को सुरक्षा की दृष्टि से देखते हैं। देश के निर्माण में उसकी सीमाओं की सुरक्षा से जुड़ी कुछ आशंकाएं होती हैं। यदि हम अमरीका को देखें तो पाएंगे कि उसके दो ओर विशाल समुद्र है, इसलिए भौगोलिक रूप से अमरीका के एक देश बनने में अधिक कठिनाई नहीं थी। हालांकि कनाडा के रास्ते उस पर अनेक हमले हुए लेकिन वह धीरे-धीरे स्थिर हो गया और वहां शांति हुई। अमरीका की दक्षिणी सीमा पर मैक्सिको आदि इतने शक्ति सम्पन्न देश नहीं थे कि हमला कर पाते। इसलिए अमरीका की सुरक्षित सीमा बनने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। इसके अलावा वहां प्राकृतिक संसाधन, जैसे पानी, उपजाऊ भूमि, खनिज पदार्थ भी प्रचुर मात्रा में हैं। इसलिए वे समृद्ध और शक्ति- सम्पन्न होते चले गए। अमरीका में पंथ को लेकर अधिक झगड़े नहीं हैं। हालांकि वहां भी बहुत से ईसाई, विशेषकर काले अंग्रेज, मुसलमान बने हैं। ईसाइयों में भी भेद हैं, प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक मान्यता को लेकर, पर संघर्ष नहीं है। दूसरी तरफ यदि हम देखें कि जिस देश में किसी एक मान्यता, पंथ या विचार को सब पर थोपने की कोशिश की गई, उसकी हार हुई है। इस पृष्ठभूमि में हम भारत को देखें तो यह बहुत जरूरी हो जाता है कि भारत में लोग धर्म के कारण नहीं बल्कि भारतीयता के नाते एकजुट हों।परन्तु दुर्भाग्य है कि हमारे देश के राजनीतिज्ञ सत्ता पाने के लिए इस देश की गरीब और अशिक्षित जनता को जाति, पंथ के गलत रास्ते पर धकेलते हैं। यह कहना गलत होगा कि देश का विभाजन केवल हिन्दू-मुस्लिम के बीच मतभेदों के चलते हुआ। देश के विभाजन में इन दोनों समुदायों का उतना दोष नहीं है जितना कि अंग्रेजों का। “बांटो और राज करो” की अंग्रेजी नीति के चलते मुस्लिम लीग की स्थापना अंग्रेजों ने कराई। अंग्रेज चाहते थे कि ये दोनों बड़े समुदाय आपस में लड़ते रहें और हम इस स्थिति का लाभ उठाकर इन पर राज करते रहें। अन्यथा शुरुआती इतिहास देखें तो हम पाएंगे कि हिन्दू और मुस्लिम एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे हैं। सेना के लोगों में यह साम्प्रदायिक भावना बिल्कुल नहीं है। आज भी भारतीय सेना में सभी हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई व सिख जवान एक ही लंगर से खाना खाते हैं, कोई नहीं पूछता कि यह मांस झटके का है कि हलाल का। हम सभी एक-दूसरे के त्योहारों पर इकट्ठे होकर जाते हैं चाहे फिर वह मंदिर हो, मस्जिद हो या गुरुद्वारा।ऐसा नहीं है कि भारतीय सेना में यदि मुस्लिम 50 प्रतिशत (जो कि अभी 2 प्रतिशत के लगभग हैं) हो जाएं तो उसके चरित्र में कोई परिवर्तन आ जाएगा। सेना के लोगों का प्रशिक्षण ही ऐसा होता है कि उनके बीच आपसी भाईचारा और अनुशासन ही महत्वपूर्ण होता है, साम्प्रदायिक भावना नहीं। मैं ऐसे किसी भी विचार से सहमत नहीं हूं कि जनसांख्यिकीय बदलाव से यदि सेना में अधिक मुसलमान हो गए तो देश की सुरक्षा पर कोई अंतर पड़ जाएगा।बात केवल पंथ की नहीं है। मैंने पूर्वोत्तर के राज्यों में अपनी तैनाती के दौरान ईसाई मिशनरियों का काम देखा है। हमारे हिन्दू समाज में उस प्रकार की सेवा भावना है ही नहीं। अब वे सीखने की कोशिश कर रहे हैं कि किस प्रकार प्रेम से दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करें। आंतरिक सुरक्षा अभियान के दौरान मिजोरम में, जहां 98 प्रतिशत ईसाई हैं, दो वर्ष तक कार्य करने के दौरान मैंने पाया कि वे हमारे साथ आने, हमें सहयोग देने को तैयार हैं। पर वे हमारे राजनेताओं की राजनीति को पसंद नहीं करते, इसलिए विरोध करते हैं। प्रशासन, सेना व गुप्तचर विभाग ने मिलकर वहां के लोगों की मदद से मिजोरम को पूरी तरह अहिंसक राज्य बना दिया है। अब वह प्रजातांत्रिक राज्य है। हालांकि नागालैण्ड में अभी अशांति है। पर मिजोरम और उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों में 250 वर्ष से अधिक समय से ईसाई मिशनरियों ने वहां रहकर वहां के लोगों को शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं दीं, यह काम हम लोग नहीं कर पाए। ठीक है कि अंग्रेज चले गए, पर अगर आप पूर्वोत्तर के लोगों की पांथिक भावनाओं को बदलना चाहेंगे तो वहां विद्रोह हो जाएगा।मुझे नहीं लगता कि तुलनात्मक रूप से हिन्दुओं की जनसंख्या कम हो जाने से इस देश की संस्कृति पर कोई विपरीत असर पड़ेगा। असर तो तब पड़ेगा जब हम अपनी वसुधैव कुटुम्बकम् की संस्कृति को भुलाकर हिन्दू-मुस्लिम या ईसाई की दृष्टि से लोगों को देखने लगेंगे। इस देश की वर्तमान स्थिति को देखें कि विश्व के इस विशाल देश में आज लोकतंत्र क्यों सुरक्षित है? क्योंकि हम प्रत्येक पंथ-मजहब, उपासना पद्धति को समान अधिकार देते हैं। आज इस देश के राष्ट्रपति मुस्लिम हैं, प्रधानमंत्री सिख और सत्तारूढ़ गठबंधन की प्रमुख हैं एक ईसाई महिला। ऐसा सोच-विचार कर नहीं किया गया, हिन्दू विरोध के चलते ऐसा नहीं हुआ, बल्कि लोगों ने स्वेच्छा से इनको चुना है, स्वीकार किया है। मैं मानता हूं कि इस देश में एक बार फिर श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा का शासन वापस आना चाहिए था, क्योंकि पिछली राजग सरकार ने अच्छा काम किया था। वैसे भी भाजपा अपेक्षाकृत एक अनुशासित पार्टी है और उसकी राजनीति उतनी मैली नहीं है जितनी कि अन्य दलों की। पर पिछले चुनावों में भाजपा ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल और उनके ईसाई होने को जिस प्रकार से मुद्दा बनाया, उस पर ज्यादा जोर दिया, उसे लोगों ने स्वीकार नहीं किया। मैं किसी से कम हिन्दू नहीं हूं, इसीलिए मैं कह रहा हूं कि इस हिन्दू संस्कृति में कहीं यह नहीं कहा गया है कि स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानकर शेष विचारों को चलने मत दो।एक बात और, भारत में ईसाइयों ने आमतौर पर जोर-जबरदस्ती से मतान्तरण नहीं किया है। हमारे देश का कानून उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देता। हां, जो लोग गरीब हैं, अशिक्षित हैं उनकी उन लोगों ने सेवा की, स्कूल दिए, उनकी गरीबी दूर की। तब वे लोग ईसाई बने। क्या हम अपने समाज के लोगों की सेवा नहीं कर सकते थे?उनकी संख्या बढ़ जाने से हमारी भारतीय संस्कृति को कोई खतरा नहीं है, बल्कि उनको हमारी हिन्दू संस्कृति से बचना होगा। भारत का मुसलमान और ईसाई अन्य देशों में नहीं जाना चाहता। 1947 में जो हो गया, वह एक राजनीतिक घटना थी, अंग्रेजों की चाल थी। पर अब यहां रहने वाला मुसलमान अपने अधिकारों के लिए भले ही लड़ता हो, पर यहां से कहीं और जाना नहीं चाहता। क्योंकि वह जानता है कि उसे इस देश में समानता का अधिकार मिला हुआ है, वह यहां अधिक सुरक्षित है। हमारे देश में पाकिस्तान से कहीं ज्यादा मुसलमान हैं। यदि इतनी बड़ी आबादी कोई अलग रास्ता चुन ले तो आप इसे कैसे रोक सकते हैं? धमकी की भाषा और भय या दबाव से आप उन्हें अपने साथ नहीं ला सकते बल्कि प्रेम, भाईचारे और दोस्ती से सब एकजुट हो सकते हैं। सबके मन में यह भाव लाने का कार्य भारतीय संस्कृति ही कर सकती है। हमारी भारतीय संस्कृति की विश्व भर में बहुत साख है, हम ही उसका महत्व नहीं समझ रहे हैं। हमें अपनी संस्कृति में इस कट्टरता को जगह नहीं देनी है।(जितेन्द्र तिवारी से बातचीत पर आधारित)NEWS
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