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सुरेश सोनीषोडश संस्कारजीवन में संस्कारों का अप्रतिम महत्व माना गया है। अत: सोलह संस्कारों का विधान किया गया है। मानव के जन्म के पूर्व ही संस्कार प्रक्रिया प्रारम्भ होती थी। माता-पिता को कैसी सन्तान चाहिए इसका विचार कर तदनुसार खान-पान तथा आचार- विचार, व्यवहार प्रारम्भ करते, तदनुसार सर्वप्रथम गर्भाधान संस्कार होता था। उसके बाद दूसरा पुंसवन संस्कार, तीसरा सीमान्तोन्नयन। बच्चा पैदा होते समय नाल काटी जाती है तब जातकर्म नामक चौथा संस्कार होता था। बच्चा आठ-दस दिन का होता तो पांचवां नामकरण संस्कार किया जाता था। 3-4 मास का बालक होने पर छठा संस्कार निष्क्रमण करते थे। निष्क्रमण का अर्थ है बालक को घर से बाहर ले जाना। घर से बाहर किसी पवित्र स्थान पर बालक को ले जाते थे ताकि उस पर सत् संस्कार पड़ें। 6-7 मास का बालक होने पर जब वह अन्न खाने लायक हो जाता था, तब सातवां अन्नप्राशन नामक संस्कार करते थे। थोड़ा बड़ा होने पर सर के बाल उतारने वाला चूड़ाकर्म नामक आठवां संस्कार होता था। फिर कर्णवेध नामक नवां संस्कार होता था। आजकल कान में कुछ पहना हो तो लगता है कि हम प्रगतिशीलता की दौड़ में कुछ पीछे रह गए हैं। परन्तु आधुनिक विज्ञान कहता है कि कान में कुण्डल पहनने से पाचन संस्थान नियंत्रण में रहता है। आठ वर्ष की आयु होने पर यज्ञोपवीत या उपनयन नाम से दसवां संस्कार होता था। उसके पश्चात् अध्ययन हेतु बालक गुरुकुल जाता था, तब गुरु के सान्निध्य में वेदाध्ययन नामक ग्यारहवां संस्कार होता था। अध्ययन पूर्ण होने पर समावर्तन नामक बारहवां संस्कार होता था। समावर्तन के बाद स्नातक गुरु-आज्ञा से घर लौटते थे। तब ब्राह्मचर्य आश्रम से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की तैयारी होती थी और विवाह नामक तेरहवां संस्कार होता था। 50 वर्ष की उम्र तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के बाद चौदहवां संस्कार वानप्रस्थ की दीक्षा का होता था। चिंतन-मनन और लोककल्याण के लिए जीते हुए 75 वर्ष की उम्र में संन्यास दीक्षा नामक पन्द्रहवां संस्कार था और अंतिम, मृत्यु के बाद अन्त्येष्टि नाम से सोलहवां संस्कार होता था। इसी का अर्थ होता है यज्ञ अर्थात् दाह संस्कार जो एक यज्ञ भी है। इस प्रकार सम्पूर्ण जीवन संस्कारमय था। संस्कारों की परम्परा जन्म लेने से पूर्व प्रारम्भ होती और मृत्यु के बाद तक चलती थी।विवाह के प्रकार-समाज में प्रजा वृद्धि एवं सुव्यवस्था हेतु विवाह संस्था अनिवार्य मानी गयी। परन्तु मानव विकारों के वश में होता है। उस अवस्था में भी समाज की व्यवस्था बनी रहे इस दृष्टि से आठ प्रकार के विवाहों का प्रावधान किया गया है-ब्राह्म विवाह -चरित्रवान व्यक्ति को पिता द्वारा निमंत्रित कर अपनी कन्या अलंकारों सहित दी जाती है।प्रजापत्य-दोनों पक्षों की सम्मति से जो विवाह हो वह।आर्ष-प्रतीकात्मक रूप से कुछ राशि लेकर कन्या दी जाती है तो उसे आर्षविवाह कहा गया है।दैव- ये चार प्रकार के विवाह शास्त्रसम्मत माने गए।असुर विवाह-जब मनुष्य धन के द्वारा किसी कन्या को उसके पिता से प्राप्त करता है, तो वह असुर विवाह कहलाता था।गान्धर्व विवाह-आजकल जिसे प्रेम विवाह कहते हैं वह गान्धर्व विवाह कहलाता था।राक्षस-बलात, मारपीट कर जो विवाह किया जाय वह राक्षस विवाह कहलाता था।पैशाच- अचेतावस्था में किसी कन्या से कोई दुव्र्यवहार करे उसे महापाप माना गया और उसे पैशाच विवाह कहा गया है। पंचयज्ञ-हमारे पूर्वजों ने मानव जीवन को चार आश्रमों में बांटा है। उसमें गृहस्थ आश्रम को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यह आश्रम शेष तीनों आश्रमों का आधार है। समाज में ब्राह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासी का भरण-पोषण गृहस्थ ही करता है। अत: प्रत्येक गृहस्थ के कुछ अनिवार्य कर्तव्य बताए गए जिनके कारण समाज जीवन सुचारू रूप से चलता था। इस परम्परा में प्रत्येक गृहस्थ के लिए पांच प्रकार के यज्ञ अनिवार्य माने गए थे। (पाक्षिक स्तम्भ)(लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” से साभार।)NEWS
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