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दीनानाथ मिश्रप्राकृतिक आपदा-एक अच्छा कवचभूकम्प प्राकृतिक आपदा है। समुद्री भूकम्प भी उसी का बड़ा भाई है। वैसे हमारे यहां तो सर्दी और गर्मी भी प्राकृतिक आपदा ही हैं। लू और सर्दी, सैकड़ों लोगों को बुहार कर ले जाती है। आप चाहें तो लू और सर्दी को केवल प्राकृतिक मानें। आपकी इच्छा हो तो इसे भी आपदा मान लें। आपदा मानने का एक फायदा है। सरकार और समाज अपनी जिम्मेदारी से बच जाते हैं। लोग जानते हैं कि फलां नुक्कड़ पर एक गरीब ठिठुर रहा था। सरकार तो उस नुक्कड़ पर आती नहीं। लोग जरूर देखते हुए निकल जाते हैं। बस, अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते। प्राकृतिक आपदा है न, कोई सामाजिक आपदा तो है नहीं। सो कोई अपने घर से पुराना कम्बल लाकर दे नहीं देता। अभी सुमात्रा में समुद्री भूकम्प आया और एशिया के छह देशों के 30,000 से भी कहीं ज्यादा लोगों को समुद्र में दफन करने के लिए ले गया। मरने वालों में श्रीलंका, भारत, माले, थाईलैण्ड, इंडोनेशिया जैसे देशों के लोग हैं।अगर इस भूकम्प की सूचना घण्टे-आधे घण्टे पहले मिल जाती तो इसमेंं से आधे से ज्यादा लोगों को जान से हाथ न धोने पड़ते। पहला भूकम्प समुद्र की अतल गहराई में 6 बजे के आसपास इस रविवार के दिन आया था। प्रशान्त महासागर में इस तरह के सुनामी भूकम्प आते रहे हैं। सो प्रशांत क्षेत्र के 26 देशों ने मिलकर ऐसे भूकम्प की पूर्व या तत्काल सूचना प्रसारण की वैज्ञानिक व्यवस्था कर रखी है। इस सूचना तंत्र ने रविवार के इस भूकम्प की जानकारी भी लगभग 6 बजे ही दे दी थी। एक छोटा-सा द्वीप है। नाम है- सेशेल्स। उसने अपने नागरिकों को इसकी जानकारी दे दी थी। हमारे दूतावास ने भी भारतीय तट से भूकम्प जनित समुद्र की उत्ताल तरंगों के टकराने से ढाई घंटे पहले सम्बद्ध विभाग को सूचना दे दी थी। मगर सर्दियों के दिन हैं। सुबह की मीठी नींद को सरकारीकर्मी क्यों खराब करता? अगर संयोग से सचमुच यह खबर डेढ़ घंटे पहले भी चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों के माध्यम से दे दी जाती अथवा रेडियो से प्रसारित हो जाती तो…? मगर गलती सरकारी तंत्र की नहीं है। गलती समुद्री भूकम्प की है। उसने सरकारी छुट्टी का दिन क्यों चुना? रविवार की छुट्टी पर सबका हक है और सरकारी तंत्र का तो और भी ज्यादा है।प्रशांत महासागर में सुनामी समुद्री तरंगों की टोह लेने वाले तंत्र का विकास करने में एक भारतीय मूल के अमरीकी नागरिक मूर्ति का भी योगदान था। मूर्ति साहब ने सुमात्रा के सदियों से सक्रिय रहे समुद्री ज्वालामुखी को ध्यान में रखकर हिन्द महासागर में भी प्रशांत महासागर जैसा सूचना और चेतावनी का तंत्र विकसित करने का सुझाव दिया था। मगर हमारी व्यवस्था के तंत्र बड़े व्यावहारिक हैं। कान पर इतना कड़ा पहरा रहता है कि मजाल है कि कोई सुझाव भीतर अवैध रूप से प्रवेश कर जाए। अव्वल तो हमारी व्यवस्था को मुफ्त के सुझाव पचते ही नहीं। और किसी तरह सुझाव आ भी जाए तो ठंडे बस्ते में भेजने से उसे कौन रोक सकता है? हाल में इंग्लैण्ड के रायल इंस्टीटूट में भूगर्भ वैज्ञानिकों के एक समूह की बैठक हुई थी। उसमें दैत्याकार सुनामी लहरों के आसन्न संकट पर एक अध्ययन हुआ था। इसमें सुमात्रा के समुद्री ज्वालामुखी के भी थोड़े-बहुत संकट का उल्लेख था। जब रविवार को यह हादसा हो चुका तब उस अध्ययन के हवाले से दिल्ली के एक बड़े अखबार ने अच्छी खासी खबर बनाई। ऐसे अध्ययन तो होते ही रहते हैं। अध्ययन पत्र तो लिखे जाते रहे हैं। उनका तो काम ही अध्ययन पत्र लिखना है। सरकारी विभाग उन पर क्यों आए दिन माथा-पच्ची करे?जब इतना बड़ा हादसा हो गया तब उस अध्ययन पत्र पर ध्यान गया। पहले क्यों उन पर गौर किया? हमारी आदत है। हम हादसा हो जाने देते हैं फिर करते हैं उसका विश्लेषण। पूर्वाकलन में क्या रखा है। भविष्य के मातम पर आज क्यों दुखी हुआ जाए। न हम भूतकाल से सीखते हैं, न भविष्य काल में झांकते हैं। जो कुछ होता है, उसे भुगत लेते हैं। एक अरब लोगों का देश है। क्या हो गया जो आठ-दस हजार लोग मर गए। हम तो प्राकृतिक आपदा की प्रतीक्षा करते रहते हैं। असम और बिहार की बाढ़ों की बात देख लीजिए। मालूम है कि बाढ़ आएगी, तबाही होगी। आती भी है, होती भी है। भुगतते भी हैं। मेरा एक निश्चित मत है। सरकार एक बात की हरगिज जांच नहीं करेगी, इन सुनामी उत्ताल तरंगों की चेतावनी घंटे-डेढ़-घंटे पहले दी जा सकती थी या नहीं? प्राकृतिक आपदा ऐसी जांच को टालने का अच्छा बहाना है।NEWS
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