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दु:ख-दर्द की दवा ढूंढते हैं……गत 24 एवं 25 दिसम्बर को नई दिल्ली के लाजपत नगर स्थित कश्मीर भवन में विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं का दो दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। सम्मेलन का उद्घाटन सर्वज्ञ कश्यप मेरू कश्मीर पीठ के पूज्य शंकराचार्य स्वामी अमृतानन्द देव तीर्थ जी ने किया। इसका आयोजन कश्मीरी समिति, दिल्ली के तत्वावधान में हुआ था। सम्मेलन में देश-विदेश से लगभग 300 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इन प्रतिनिधियों में अधिकांश ऐसे थे, जो विभिन्न विस्थापित शिविरों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। प्रतिनिधियों ने खुलकर शिविरों एवं विस्थापित लोगों की समस्याओं पर चर्चा की। सबकी समान समस्याएं थीं। शिविरों में मूलभूत आवश्यकताओं का अभाव, बेरोजगारी, बच्चों की शिक्षा आदि। इन प्रतिनिधियों की शिकायत थी कि इतनी समस्याएं होने के बाद भी सरकार कश्मीरी विस्थापितों के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है। सरकारी उपेक्षा से त्रस्त इन प्रतिनिधियों ने एक प्रस्ताव पारित कर यह मांग की कि विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं के लिए झेलम नदी के दक्षिण-पूर्वी भाग को केन्द्र शासित क्षेत्र बनाया जाए और उन्हें वहां बसाया जाए। प्रतिनिधियों ने साफ कहा कि विस्थापित परिवार किसी भी हालत में अपनी पुश्तैनी जगह पर नहीं जाएंगे, क्योंकि वहां उनकी जान-माल की सुरक्षा नहीं है।प्रतिनिधियों ने यह भी मांग की कि कश्मीर समस्या से सम्बंधित किसी भी बातचीत में कश्मीरी विस्थापितों के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया जाए। सम्मेलन में जम्मू एवं कश्मीर के उप मुख्यमंत्री श्री मंगतराम शर्मा एवं पैन्थर्स पार्टी के अध्यक्ष प्रो. भीम सिंह ने विस्थापितों की समस्याएं सुनीं और उन्हें हल करने का आश्वासन दिया।कश्मीरी समिति के अध्यक्ष श्री सुनील शकधर ने जानकारी दी कि 1990 में कश्मीर घाटी से विस्थापित होकर नई दिल्ली आए हजारों हिन्दुओं ने इसी कश्मीर भवन में शरण ली थी। बाद में यहीं से वे लोग विभिन्न शिविरों में गए थे। कैलाश कालोनी स्थित शरणार्थी शिविर से आए श्री अशोक त्रिसल 1990 की उस भयावह स्थिति के बारे में कहते हैं, “आज भी सपने में उस भयावह स्थिति को देखते हैं तो पूरी रात नींद नहीं आती। श्रीनगर में पड़ोसियों ने ही हमारे घर में लगा दी थी। जब कुछ नहीं बचा तो जान बचाने के लिए परिवार सहित दिल्ली आ गए। इसी भवन में कई महीने ठहरे, फिर शरणार्थी शिविर में गए। इस भवन ने विस्थापितों के लिए वह सब किया है जो सरकार भी अब तक नहीं कर पाई है।”श्री शादीलाल भी 1990 में परिवार सहित श्रीनगर से इसी भवन में आए थे। उनका परिवार दिल्ली के एक शरणार्थी शिविर में रहता है और वे श्रीनगर के एक सरकारी होटल में नौकरी करते हैं। कहते हैं, “14 साल बीत गए पर अब तक श्रीनगर से मात्र 60 कि.मी. की दूरी पर स्थित अपनी जन्मभूमि का स्पर्श नहीं कर पाया हूं। श्रीनगर में जिस होटल में नौकरी करता हूं, बस वहीं तक सीमित हूं। बहुत इच्छा होती है जन्मभूमि को देखने की पर हिम्मत नहीं होती। सरकार भी कुछ नहीं करती। श्रीनगर से दिल्ली या अन्यत्र कहीं स्थानान्तरण के लिए कई बार अर्जी दे चुके हैं, पर कोई सुनवाई नहीं हो रही है। इतना ही नहीं, हर माह वेतन से व्यक्तिगत खर्च के लिए 2000 रु. सरकार काट लेती है।”NEWS
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