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संतों की सरकारजितेन्द्र तिवारी से बातचीत पर आधारित”हमारी नहीं बन सकती तो किसी की नहीं बनने देंगे सरकार।” ऐसी मानसिकता वाली कम्युनिस्टों की बैसाखी पर टिकी संप्रग सरकार से और उम्मीद भी क्या की जा सकती थी। गोवा किया, फिर झारखण्ड किया और चुनाव के ढाई महीने बाद भी बिहार को लेकर सेकुलर जमात में तू-तू, मैं-मैं होती रही और सरकार नहीं बन पाई तो वहां की विधानसभा भी भंग कर दी।23 मई को राजग के संयोजक श्री जार्ज फर्नांडीस ने तो बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह पर सीधा आरोप लगाया और कहा कि किस आधार पर वे खरीद-फरोख्त की बात कर रहे हैं। वे यह क्यों नहीं बताते कि कहां खरीद-फरोख्त हो रही थी, कौन-किसको खरीद रहा था। श्री फर्नांडीस ने कहा कि बूटा सिंह स्वयं खरीद- फरोख्त के आरोपी रहे हैं, उनके मुंह से ये बातें शोभा नहीं देतीं। उन्होंने कहा कि बूटा सिंह झूठा सिंह हैं, जिन्होंने लालू यादव और वाममोर्चे के दबाव में झुकी केन्द्र सरकार को झूठी रपट भेजी थी। बिहार प्रकरण से जुड़े राजनीतिक और संवैधानिक पक्षों पर यहां प्रस्तुत हैं विशेषज्ञों की टिप्पणियां। -सं.इस संवैधानिक संहार से बचा जा सकता था, अगर….-प्राण नाथ लेखी, वरिष्ठ अधिवक्ताबिहार में जो हुआ है वह पिछले 55-56 साल के संसदीय इतिहास में कभी नहीं हुआ था। मेरे अनुसार, विधानसभा का गठन तब होता है जब निर्वाचित प्रतिनिधि सदन में जाकर शपथ ग्रहण करते हैं। जब तक वह शपथ नहीं लेते तब तक सदन का गठन हुआ नहीं माना जा सकता। विधानसभा बर्खास्त ही तब हो सकती है जब निर्वाचित प्रतिनिधि शपथ ले लें और तब उनसे कहा जाए कि सरकार का गठन न हो सकने के कारण आप सदन में नहीं बैठेंगे।आखिर बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह ने किया क्या? इसके बड़े भयंकर परिणाम होंगे। दु:ख की बात यह है कि किसी भी राजनीतिक दल ने इसका गहराई से विश्लेषण नहीं किया है। भारत के संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर है जब एक चुनाव को खारिज किया गया है। चुनाव को खारिज करने का अधिकार किसी के पास नहीं है, राष्ट्रपति के पास भी नहीं।बिहार विधानसभा के चुनावों को निरस्त करने के सभी दोषी हैं। वहां जनता ने अपना जो फैसला दिया था उसको बहुमत न होने के नाम पर चौपट कर दिया गया। पर किसी भी राजनीतिक दल ने इसे “चुनावों को खारिज” कर देना नहीं कहा। सब इसी उधेड़बुन में लगे हैं कि आखिर विधानसभा भंग कैसे हो गयी और अगला चुनाव कैसे जीतेंगे।सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि लोकतंत्र हमारे संविधान की मूल अवधारणा है। और लोकतंत्र का मूल आधार है जनादेश। जो हमारे संविधान का मूल आधार है, उसे खारिज किया जाना संविधान के मूल ढांचे को तोड़ना है। हमारे देश के राष्ट्रपति अपनी शपथ में कहते हैं कि “मैं शपथ लेता हूं कि जितने समय तक मेरा यह कार्यभार है, मैं संविधान को संरक्षित, सुरक्षित रखूंगा तथा उसका बचाव करुंगा।” अब वही राष्ट्रपति किसी चुनाव को खारिज करने के निर्णय पर हस्ताक्षर करें तो मैं समझता हूं उन्होंने शपथ के अनुरूप कार्य नहीं किया है। बिहार में संविधान के बिल्कुल विरुद्ध काम किया गया है। वर्तमान राष्ट्रपति से मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वे ऐसे किसी भी असंवैधानिक निर्णय पर विशेषज्ञों की राय लिए बिना हस्ताक्षर कर देते। संविधान के इस संहार से बचा जा सकता था अगर राष्ट्रपति अपने अधिकारों का प्रयोग करते।जहां तक संवैधानिक स्थिति का प्रश्न है, राष्ट्रपति और राज्यपाल का संबंध संविधान की धारा 160 द्वारा निर्धारित है। धारा 160 में राष्ट्रपति को पूरा अधिकार दिया गया है कि वह अपने विवेक के अनुसार राज्यपाल को उसके कार्य के संदर्भ में निर्देश दें। इसके लिए उन्हें मंत्रिमण्डल की राय की जरूरत नहीं है। इस मामले में राष्ट्रपति ने मंत्रिमण्डल की राय मानकर संविधान की धारा 160 द्वारा उन्हें प्रदत्त अधिकार का प्रयोग नहीं किया।बिहार बंद के दौरान प्रदर्शन करते हुए राजग कार्यकर्ताझारखण्ड प्रकरण के समय मैंने राष्ट्रपति को तार भेजा था कि वे संविधान की धारा 160 का अवलोकन करें। वह तार राष्ट्रपति निवास पहुंचा और जहां तक मेरी जानकारी है राष्ट्रपति ने उस पर संविधान विशेषज्ञों की राय भी ली थी। लेकिन उसी बीच सर्वोच्च न्यायालय की दखल और बहुमत को देखते हुए राज्यपाल सिब्ते रजी को अर्जुन मुण्डा को बुलाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसलिए मेरे तार पर राष्ट्रपति ने क्या मन बनाया था, मुझे मालूम नहीं। पर मैंने उसमें धारा 160 का उल्लेख करते हुए कहा था कि इसके अनुसार चलिए और राज्यपाल सिब्ते रजी को, तत्काल वापस बुलाइए।झारखण्ड प्रकरण में न्यायापालिका के दखल के बाद न्यायपालिका और विधायिका के कार्य क्षेत्रों को लेकर प्रारंभ हुई बहस का प्रश्न है तो जहां भी संविधान के अनुरूप कार्य नहीं हो रहा है वहां न्यायपालिका अवश्य दखल दे सकती है। बिहार में हुए इस निर्णय पर भी न्यायपालिका दखल दे सकती है, लेकिन अब उसके दखल देने पर होगा क्या? न्यायपालिका केवल यही कह सकती है कि जो हुआ वह गलत हुआ।राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग की पर वहां भंग करने वाली कोई चीज थी ही नहीं। राज्यपाल का कहना था, और अब प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का भी कहना है कि वहां विधायकों की खरीद-फरोख्त हो रही थी। किस प्रकार से यह हो रही थी, यह भी उन्हें स्पष्ट करना चाहिए था। और क्या यह खरीद-फरोख्त आज ही शुरू हुई है? 1969 में इसकी शुरूआत तब हुई थी जब इन्दिरा गांधी का शासनकाल था। उस समय यशवंत राव चव्हाण की अध्यक्षता में एक जांच समिति बनायी गई थी जिसके जिम्मे देश की संसद व विधानसभा में “आयाराम-गयाराम” (दलबदलुओं) का पता लगाने का काम सौंपा गया था। उस समय सांसद और विधायक कुल मिलाकर 4,000 प्रतिनिधि थे। इस समिति को यह भी पता चला कि इनमें से 50 प्रतिशत अर्थात् 2,000 प्रतिनिधि एक दल से दूसरे दल में गए हैं। और उनमें से एक ने तो 24 घंटे में ही पांच पार्टियां बदलने का कीर्तिमान बनाया था, उस विधायक का नाम “गयाराम” था। उसी समय से “आयाराम-गयाराम” नाम चला।जबसे यह सरकार बनी है गोवा, झारखण्ड और अब बिहार, अर्थात संविधान का हनन और उसे जेब में रखने की कोशिश हो रही है। सन् 1950 में संविधान को बने 365 दिन भी नहीं हुए थे तभी वह जेब में डाल दिया गया था और सत्ता द्वारा पहला संशोधन कराया गया था। तब से अब तक इसमें 92 संशोधन हो चुके हैं। यानी 55 साल में लगभग 100 यानी प्रतिवर्ष 2 संशोधन। इतने ज्यादा संशोधन किसी भी कानून की किताब में नहीं हुए जितने हमारे मौलिक संविधान में हो चुके हैं। संविधान तो एक अखबार जैसा हो गया है जिसका सुबह एक संस्करण छपता है और शाम को दूसरा।कहा जा रहा है कि राज्यपाल ऐसा कर सकते थे कि वे सदन को बुलाते और प्रतिनिधियों से कहते कि वे अपना नेता चुनें। अगर सदन कोई नेता चुनने में असमर्थ रहता तभी सदन भंग करते। शायद यह कुछ अच्छा विकल्प होता। अनेक नए विधायकों तथा निर्दलीय विधायकों ने कहा है कि उनसे कोई राय ही नहीं ली गई। इसीलिए मेरा मानना है कि उन्होंने जनादेश को ही खारिज कर दिया है। अब एक और नई चीज शुरू हो गई है; विधानसभा निलम्बित जो शब्द न संविधान में मिलता है और न ही जनप्रतिनिधित्व कानून में। लेकिन पिछले अनेक दशकों से इस “निलम्बित” (सस्पेंडेड एनीमेशन) का प्रयोग हो रहा है यानी आदमी पैदा हो गया, उसमें जान है, प्राण है। सांस थोड़ी देर के लिए बन्द करा दी गई है। इसी आस्था के कारण तो खरीद-फरोख्त बढ़ी है।संविधान का मखौल उड़ाने का यह काम वर्तमान सरकार में नहीं शुरू हुआ बल्कि यह खेल पं. नेहरू के समय में ही शुरू हो गया था। लोकतंत्र पर जब किसी खानदान का वर्चस्व हो जाए, यानी प्रधानमंत्री एक ही वंश से आने लगंे तो उसका क्या परिणाम होगा? इस स्थिति में लोकतंत्र कैसे पनप सकता है? मैं समझता हूं कि हमारे देश में सही अर्थों में लोकतंत्र कभी आ ही नहीं पाया, लोकतंत्र का मात्र खोल आया था।इस स्थिति के लिए भारत के हर राजनीतिक दल और उनके नेता जिम्मेदार हंै। जो सत्ता से बाहर रहते हैं वे सत्ता में आते ही सब भूल जाते हैं। उनका ध्यान इसी में लगा रहता है कि सत्ता को कैसे संभालकर रखें।स्वतंत्रता आन्दोलन के समय लोगों की सोच थी कि हमें देश को क्या देना है। 15 अगस्त, 1947 को इस सोच में बदलाव आया और लोगों की सोच बन गई कि इस देश से हमें क्या लेना है। जिस समय देने व लेने की यह प्रवृत्ति आकार ले रही थी उस समय देश की सेवा करने वाले किनारे हो गए और सत्तालोलुप अपना स्वार्थ साधने में जुट गए। अब ये नए रूपों में सामने आए हैं। जातियों में बंटे इन लोगों में कोई यादव है तो कोई दलितों का पासवान, तो कोई मुसलमान। क्या कोई हिन्दुस्थानी बचा है?इस स्थिति की एक वजह यह भी है कि चुनावों के समय अधिकांश वे लोग मतदान करते हैं जो कम-पढ़े लिखे हैं। सोच-विचार कर मतदान नहीं किया जाता बल्कि जाति, क्षेत्र और निहित स्वार्थ ही मतदान का आधार होता है।बिहार में जो किया गया वह भविष्य के लिए एक खतरनाक संकेत है। पर इस स्थिति में कोई भी दल लोकतंत्र बचाने के लिए चिंतित नहीं दिखाई देता है। सभी अपने नफे-नुकसान के बारे में अधिक सोच रहे हैं। यह तो संवैधानिक संकट का मामला है। इस सारी बहस में बिहार की जनता के बारे में कोई नहीं सोच रहा, जो कि स्वयं को ठगा सा महसूस कर रही है।(जितेन्द्र तिवारी से बातचीत पर आधारित)NEWS
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